मंगलवार, अक्तूबर 30

जगमग दीप दीवाली के


जगमग दीप दीवाली के


कुछ कह जाते
 कुछ दे जाते
सरस पावनी
ज्योति बहाते
जगमग दीप दीवाली के !

संदेसा गर
कोई सुन ले
कही-अनकही
भाषा पढ़ ले
शीतल मधुरिम 
अजिर उजाला
कोने-कोने
में भर जाते
जगमग दीप दीवाली के !

पंक्ति बद्ध
सचेत प्रहरी से
तिमिर अमावस
का हर लेते
खुद मिट कर
उजास बरसाते
रह अकम्प
थिरता भर जाते
जगमग दीप दीवाली के !

सोमवार, अक्तूबर 29

मन माटी से जैसे कोई


मन माटी से जैसे कोई


ऊँचे पर्वत, गहरी खाई
दोनों साथ-साथ रहते हैं,
कल-कल नदिया झर-झर झरने
दोनों संग-साथ बहते हैं !

नीरव जंगल, रौरव बादल
दोनों में ना अनबन कोई,
शिव का तांडव, लास्य पार्वती
दोनों में ही प्रीत समोई !

गीत प्रीत के, सहज जीत के
चलो आज मिल कर गाते हैं,
 नित्य रचे जाता नव संसृति 
उस अनाम को जो भाते हैं !

थिर अंतर में शब्द किसी का
लहरों का वर्तुल बन चहके,
मन माटी से जैसे कोई
अंकुर फूट लता बन महके !

भीतर-बाहर एक हुआ सब
सन्नाटा आधार सभी का,
मौन अबूझ शब्द हैं सीमित
दोनों में आकार उसी का !


मंगलवार, अक्तूबर 16

रौशनी थी हर कहीं




रौशनी थी हर कहीं


कुछ कहा हमने नहीं
सुन लिया उसने कहीं,
तार कोई थी जुड़ी
देख जग पाता नहीं !

एक तितली पास आ
इक सँदेसा दे गयी,
एक बदली सूर्य से
उतार ओढ़नी गयी !

डालियाँ सजने लगीं
दूब में भी आभ थी,
कोहरे बहने लगे
रौशनी थी हर कहीं !

सरल मुद्रा में मनस
गोपियों सी सादगी,
उतर शिखरों से बहे
घाटियों सी शामनी !

रविवार, अक्तूबर 14

तुम ही हो नव भक्ति स्वरूपा



तुम ही हो नव भक्ति स्वरूपा



नाम हजारों जग जननी के
है अनंत शुभ शक्ति स्वरूपा,
दया रूपिणी ! उर अंतर में
तुम ही हो नव भक्ति स्वरूपा !

सारा जग तुमसे प्रेरित हो
गतिमय निशदिन स्पंदित होता,
तुम्हीं सृष्टि जन्माती हो माँ
तुमसे जग विस्तार पा रहा !

अष्ट भुजाओं वाली देवी
समृद्धि, सुख दे शांति भर रही,
अविरल, अविरत बहे पावनी
कृपा तुम्हारी सदा झर रही !

तुम्हीं भैरवी, रुद्राणी भी
विद्या दात्री माँ भवानी,
महालक्ष्मी, पार्वती माता
गंगा, तुलसी, तुम्हीं शिवानी !

कुष्मांडा, शैल पुत्री भी
गौरी, भद्रा, दुर्गा काली,
चन्द्र घंटा व ब्रह्मचारिणी
तुम्हीं वैष्णवी शेरों वाली !

दया, क्षमा, करुणा व सरलता
लज्जा, कांति, तुम्हीं हो मेधा,
क्षुधा, पिपासा रूप में रहो
यज्ञ तुम्हीं तुम से ही समिधा !

जागो ! हे जगदम्बा ! उर में
मर्म साधना का हम जानें,
ज्योति जगे अंतर में दिपदिप
जीवन रहते ही पहचानें !


सोमवार, अक्तूबर 8

निज सुनहरी भाग्य रेखा




निज सुनहरी भाग्य रेखा


स्वप्न देखा,
उसी पल में खींच डाली
निज सुनहरी भाग्य रेखा !

एक अनुपम स्वप्न सुंदर
जागते चक्षु से मनहर
कांपते थे प्राण भीतर !

ख़ुशी के पीछे छिपी थी
एक शायद भीति रेखा
स्वप्न देखा !

हम करें साकार सपने
दाम उसका अक्स अपने 
वैश्य है कितना अनोखा !

हाथ में कूँची थमा वह
क्षीर सागर में बसा जा !
है अदेखा !


गुरुवार, अक्तूबर 4

खुद न जाने जागता मन


खुद न जाने जागता मन


स्वप्न रातों को बुने मन
नींद में कलियाँ चुने मन,
क्या छिपाए गर्भ में निज
खुद न जाने जागता मन !

कौन सा वह लोक जिसमें
कल्पना के नगर रचता,
कभी गहरी सी गुहा में
एक समाधि में ठहरता !

छोड़ देता जब सुलगना
इस-उसकी श्लाघा लेना,
खोल कर खिड़की के पाट
आसमा को लख बिलखना !

 एक अनगढ़ गीत भीतर
सुगबुगाता सा पनपता,
एक न जाना सा रस्ता
सदा कदमों को बुलाता !

राज कोई खुल न पाया
खोलने की फिकर छोड़ी,
कौन गाये नीलवन में ?
सुनो ! सरगम, तान, तोड़ी !