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बुधवार, सितंबर 14

हिंदी या हिंग्लिश


हिंदी या हिंग्लिश


हिंदी दिवस पर अंग्रेजी में ट्वीट करते लोग

 हिंदी प्रेम होने का दम भरते हैं 

हिंदी के एक वाक्य में 

बस दो-चार अंग्रेजी के शब्द मिलाते 

मॉर्निंग में वाक और इवनिंग को योगा करते हैं 

आँख, नाक, कान से पहले 

जान जाता है शिशु आइज, नोजी और इयर

नौनिहालों को अंग्रेजी में झगड़ते देख 

भीतर तक निहाल होते हैं 

दीवाली और होली तो हैप्पी थी ही 

अब कहीं हिंदी दिवस भी 

हैप्पी बोल देने तक ही सीमित न हो जाये 

अंग्रेजी का जो जादू सर पर चढ़ा है 

नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से दूर न ले जाये 

हिंदी फल-फूल रही है अपने बूते पर 

सर्व को ग्रहण करती है 

शुद्ध रहे, हमें रखना है ध्यान 

दिल बहुत विशाल है उसका 

कैसा भी रूप धरे वह हिंदी 

ही कही जाती है !

गुरुवार, सितंबर 14

हिंदी दिवस पर

हिंदी दिवस पर


उन अनगिनत साहित्यकारों को विनम्र नमन के साथ समर्पित जिनके साहित्य को पढ़कर ही भीतर सृजन की अल्प क्षमता को प्रश्रय मिला है. जिनके शब्दों का रोपन वर्षों पहले मन की जमीन पर हुआ और आज अंकुरित होकर वाक्यों और पदों के रूप में प्रकटा है.

स्मृतियों का एक घना अरण्य है भीतर..
हाँ, अरण्य, उपवन नहीं.. जहाँ सब कुछ सजा संवरा है
अपनी-अपनी क्यारी में सिमटे हैं गेंदा और गुलाब..
यहाँ तो एक ओर प्रेमचन्द का होरी और हीरा-मोती हैं
दूसरी और महादेवी की नीर भरी बदली का साया
प्रसाद की कामायनी के मनु और इड़ा का वार्तालाप चल ही रहा है
अज्ञेय का शेखर भी अपनी कहानी सुनाता है
गोर्की की माँटालस्टाय की अन्ना भी जीवित है यादों में
टैगोर की आँख की किरकिरी और कोलकाता की भीषण बरसात में भीगता हुआ गोरा
श्रीकांत को कोई भूल सकता है क्या शरतचन्द्र के अनगिनत पात्रों के मध्य
पन्त का कौसानी भी बसा है और इलाचंद्र जोशी के गढ़वाल के ऊंचे-नीचे पर्वत
खिली है शिवानी की कृष्णकली और अमृता प्रीतम के लफ्जों की दास्ताँ
नाच्यो बहुत गोपाल और खंजन नयन के अध्याय सुना रहे हैं अद्भुत गाथा
कबीर और रहीम के शब्दों के तीर भी दिल में चुभे हैं जो आज तक नहीं निकले
गहन हैं बहुत गहन इस अरण्य के रास्ते...


रविवार, अगस्त 10

राखी


राखी



छुपाये है कितनी कोमल भावनाएं
रेशम के धागों से बनी
ये रंगीन राखियाँ !
गागर में सागर भरा हो जैसे
या बादलों में अमृत
अथवा तो फूलों में सुवास !
समेटे है अनगिनत स्मृतियाँ
अपने रंगीन नाजुक आकार में
 सजती है जब किसी कलाई पर
आलोड़ित हो जाता है उर
उग आते हैं
कितने सुमनों के उपवन
सूर्य और चन्द्रमाओं के समान
देदीप्यमान हो जैसे कोई राजा
और छाया हो उसका प्रताप चहूँ ओर...या
सुकोमल नवनीत सा पिघल जाता हो
हर स्पंदन
मुबारक हो बार-बार
राखी का यह त्योहार
यह रक्षा बंधन !


शनिवार, जून 7

तृषित उर को पोषता सा


तृषित उर को पोषता सा


अनदिखा है मीत कोई
अनलिखा है गीत कोई,
दौड़ती रग-रग में जैसे
अनछुई सी प्रीत कोई !

एक मादक शाम हो ज्यों
गोपियों का गाम हो ज्यों,
रम रहा हर रोम में जो
जानकी का राम हो ज्यों !

कार्तिक की धूप जैसा
कामिनी के रूप जैसा,
 तृषित उर को पोषता सा
 मधुर जल के कूप जैसा !

राह का साथी बना हो
पेड़ पीपल का घना हो
पोंछ देती हर उदासी
विरह की सी वेदना हो !




गुरुवार, मई 22

अनकहे गीत बड़े प्यारे हैं

आज एक पुरानी कविता 

अनकहे गीत बड़े प्यारे हैं

जो न छंद बद्ध हुए
बिल्कुल कुंआरे हैं
तिरते अभी नभ में   
गीत बड़े प्यारे हैं !

जो न अभी हुए मुखर
अर्थ क्या धारे हैं
ले चलें जाने किधर
 पार सिंधु उतारे हैं !

पानियों में संवरते
पी रहे गंध माटी
जी रहे ताप सहते
मौन रूप धारे हैं !

गीत गाँव की व्यथा के
भूली सी इक कथा के
गूंजते से, गुनगुनाते
अंतर संवारे हैं !

गीत जो हृदय छू लें
पल में उर पीर कहें
ले चलें अपने परों  
उस लोक से पुकारें हैं !


सोमवार, अप्रैल 22

जैसे कोई गीत सुरीला


जैसे कोई गीत सुरीला


शशि, दिनकर नक्षत्र गगन के, धरा, वृक्ष, झोंके पवन के
बादल, बरखा, बूंद, फुहारें, पंछी, पुष्प, भ्रमर गुंजारें

लाखों सीप अनखिले रहते, किसी एक में उगता मोती
लाखों जीवन आते जाते, किसी एक में रब की ज्योति

उस ज्योति को आज निहारें, परम सखा सा जो अनंत है
जीने की जो कला सिखाता, यश बिखराता दिग दिगन्त है

जैसे कोई गीत सुरीला, मस्ती का है जाम नशीला
तेज सूर्य का भरे ह्रदय में, शिव का ज्यों निवास बर्फीला

कोमल जैसे माँ का दिल, दृढ जैसे पत्थर की सिल
सागर सा विस्तीर्ण है जो, नौका वही, वही साहिल

नृत्य समाया अंग-अंग में, चिन्मयता झलके उमंग में
दृष्टि बेध जाती अंतर मन, जाने रहता किस तरंग में

लगे सदा वह मीत पुराना, जन्मों का जाना-पहचाना
खो जाता मन सम्मुख आके, चाहे कौन किसे फिर पाना

खो जाते हैं प्रश्न जहाँ पर, चलो चलें उस गुरुद्वार पर
चलती फिरती चिंगारी बन, मिट जाएँ उसकी पुकार पर

जैसे शीतल सी अमराई, भीतर जिसने प्यास जगाई
एक तलाश यात्रा भी वह, मंजिल जिसकी है सुखदाई

नन्हे बालक सा वह खेले, पल में सारी पीड़ा लेले
अमृत छलके मृदु बोलों से, हर पल उर से प्रीत उड़ेंले

वह है इंद्रधनुष सा मोहक, वंशी की तान सम्मोहक
है सुंदर ज्यों ओस सुबह की, अग्नि सा उर उसका पावक

मुस्काए ज्यों खिला कमल हो, लहराए ज्यों बहा अनिल हो
चले नहीं ज्यों उड़े गगन में, हल्का-हल्का शुभ्र अनल हो

मधुमय जीवन की सुवास है, अनछुई अंतर की प्यास है
पोर-पोर में भरी पुलक वह, नयनों का मोहक उजास है

प्रिय जैसे मोहन हो अपना, मधुर-मधुर प्रातः का सपना
स्मृति मात्र से उर भीगे है, साधे कौन नाम का जपना

धन्य हुई वसुंधरा तुमसे, धन्य-धन्य है भारत भूमि
हे पुरुषोत्तम! हे अविनाशी! प्रज्वलित तुमसे ज्ञान की उर्मि

रविवार, अप्रैल 14

कोई है


कोई है

कोई है
सुनो ! कोई है
जो प्रतिपल तुम्हारे साथ है
तुम्हें दुलराता हुआ
सहलाता हुआ
आश्वस्त करता हुआ !

कोई है
जो छा जाना चाहता है
तुम्हारी पलकों में प्यार बनकर
तुम्हारे अधरों पर मुस्कान बनकर
तुम्हारे अंतर में
सुगंध बनकर फूटना चाहता है !

कोई है
थमो, दो पल तो रुको
उसे अपना मीत बनाओ
खिलखिलाते झरनों की हँसी बनकर
जो घुमड़ रहा है तुम्हारे भीतर
उजागर होने दो उसे !

कोई है
जो थामता है तुम्हारा हाथ
हर क्षण
वह अपने आप से भी नितांत अपना
बचाता है अंधेरों से ज्योति बन के
समाया है तुम्हारे भीतर
उसे पहचानो
सुनो, कोई है !

सोमवार, जनवरी 28

नन्ही नव्या के लिए


परिवार में नए मेहमान का आना सदा ही हर्ष का कारण होता है, फिर मेहमान जब चौथी पीढ़ी की प्रथम कन्या हो तो खुशियाँ और भी बढ़ जाती हैं, माँ होतीं तो कुछ ऐसे ही आशीर्वाद अपनी बड़ी पुत्री(यानि मेरी दीदी)की पहली पोती नव्या को देतीं, जिसने अपने देश से दूर नार्वे में छब्बीस जनवरी को जन्म लिया है. यह कविता माँ को भी समर्पित है, उनकी वंश बेलि ही तो फल-फूल रही है.


नन्ही नव्या के लिए

नन्हा तन तुम्हारा नव्या
अधखुली पलक, रंगत गोरी,
तुम हुई साक्षी जिस पल से
बिन देखे बंधी प्रीत डोरी !

रोने के स्वर में छुपा ओम
मुस्काती हो जैसे योगी,
काले कुंतल, काली आँखें
ऐसी तुम ऐसी ही होगी !

नाता प्रेम का तुमसे जोड़ा
पाकर परिजन विमुग्ध हुए,
जीवन के सुंदर उत्सव में
इक नया रंग लख मुग्ध हुए !

हो गार्गी, तुम कल्याणी
शुभ आत्मा नव तन धारे
आनंदी, पावन गायत्री सी
देख तुझे गए सब मन वारे !

तन कोमल सा लघु अंग तेरे
मुस्कान कल्पना से बढकर,
लक्ष्मी ! तू वरदान स्वरूपा
आयी रूप बालिका धरकर !

चन्द्र कला सी बढती जा
जीवन शोभित हो तुझसे,
माँ की गोद में फूल सी महके
पिता दुआएं दिल दे से !

सोमवार, जनवरी 21

कवि रजनीश तिवारी का काव्य संसार- खामोश,ख़ामोशी और हम में


खामोश, ख़ामोशी और हम के अगले कवि हैं, शिक्षा और पेशे से इलेक्ट्रिकल इंजीनियर श्री रजनीश तिवारी, तिवारी जी को लेखन के साथ फोटोग्राफी भी भाती है, इस संकलन में इनकी छह कवितायें हैं.
सभी जीवन के विविध रंगों को उजागर करती हैं.
पहली कविता एक बूंद में कवि सुबह सवेरे ओस की एक बूंद को देखकर हुई अनुभूति को व्यक्त करता है, जीवन का एक रहस्य जैसे वह बूंद परत दर परत खोलती जाती है.
एक बूंद

ओस की इक बूंद
जमकर घास पर
सुबह सुबह
मोती हो गयी
...
..
फिर वो बूंद
सूरज की किरणों
पर बैठ उड़ गयी
..
कुछ पलों का जीवन
और दिल पर ताजगी भरी
नमकीन अमिट छाप
एक बूंद छोड़ गयी
..
एक बूंद में होता है सागर
..
भरा होता है एक बूंद में
दर्द जमाने भर का
..
प्यार की एक बूंद का नशा उतरता नहीं
..
एक बूंद जिंदगी बना देती है
बूंद-बूंद चखो जाम जिंदगी का
बूंद बूंद जियो जिंदगी
जीवन में लोग अक्सर धोखा खाते हैं, क्योंकि मानव जो है वह उसे स्वीकार नहीं जो होना चाहता है, वही दिखाने का प्रयास उसे छल करने पर विवश कर देता है, इसी कटु सच्चाई को बयान करती है दूसरी कविता छलावा   
छलावा

तुम्हें जो खारा लगता है
वो सादा पानी होता है
... ..
मेरे आंसू क्या सस्ते हैं
जो गैरों के दर्द पर रोयें
दिल नहीं दिखावा है
वही भीतर से रोता है
...
परेशान खुद से ही हूँ मैं
तुम्हारी सुध मैं कैसे लूँ
मुझे फुर्सत कहाँ, तुम्हारी
तकलीफों पर मैं रोऊँ

होता वो नहीं हरदम
नजरों से जो दिखता है
..
खुद को दोष क्या दूँ मैं
शिकायत क्या करूं तेरी
मुझे हर कोई मुझ जैसा
खुद में खोया लगता है

सपने देखना किसे नहीं भाता, कुछ तो सारा जीवन सपनों को देखने में ही बिता देते हैं..कवि ने सपनों का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दिया है सपनों का हिसाब-किताब नामक कविता में-

सपनों का हिसाब-किताब

कल रात बैठा लेकर
सपनों का हिसाब-किताब
अरमान, तमन्नाएँ, सपने
और हासिल का कच्चा चिट्ठा लिए
सोचता रहा कहाँ खर्च किया
पल दर पल खुद को
....
न जाने कितने पन्ने भरे मिले
सपने में ही जीने की दास्ताँ लिए
...
कई मौसम चले गए
टूटे बिखरे सपनों को समेटने में
.. ..
कई बार आंधी-तूफान और बारिश में
सपनों की पोटली सम्हालने
और बचाने में वक्त लगा
...
न जाने कितनी बार बाढ़ में
सपनों को दबाए हुए बगल में
मीलों और बरसों बहता रहा हूँ
... ...
कई बार ऊब भी हुई है सपनों से
तब गठरी छोड़ कर बस की खिडकी से
नीले अनंत आसमान में देखने का दिल किया
...
तैयारी या इंतजार में रहे अक्सर
और हर बार कुछ पल ही जिए
सपनों को सच होता देखते
हाँ, सपनों का खाता खत्म न हुआ

स्मृतियों को बार बार जीना मानव का स्वभाव है, सजीव या निर्जीव जिनसे उसका नाता रहा हो उसकी यादों में वह जिन्दा रहता है, कुछ ऐसा ही अनुभव कवि करता है दिल का रिश्ता में
दिल का रिश्ता

आज छूकर देखा
कुछ पुरानी दीवारों को
..
आज एक पुराने फर्श पर
फैली धूल पर चला
उस परत के नीचे
अब भी मौजूद थे
मेरे चलने के निशान
...
किये साफ कुछ वीरानगी के दाग
बिखरे हिस्सों को समेटा
...
जी उठी दीवार
साँस लेने लगी जमीन
..
खट्टी-मीठी यादों की गंध
फ़ैल गयी हर कोने
दिल का रिश्ता
सिर्फ दिल से ही नहीं
दीवारों से भी होता है

जीवन विरोधी मूल्यों से बना है, काले की पृष्ठ भूमि पर ही सफेद उभर कर आता है, कवि का होना इन्हीं विरोधी भावों पर आधारित है, अपना परिचय देते समय वह एक साथ शांति का सागर और ज्वालामुखी दोनों होना स्वीकारता है
परिचय

पर्वत मैं हूँ स्वाभिमान का
मैं प्रेम का महासमुद्र हूँ
मैं जंगल हूँ भावनाओं का
एकाकी मरुथल हूँ मैं,
... ...
हूँ घाट एक रहस्यों का
संबंधों का महानगर हूँ मैं

झील हूँ मैं एक शांति की
मैं उद्वेगों का ज्वालामुख हूँ
.. ..

हूँ गुफा एक वासनाओं की
भयाक्रांत वनचर हूँ मैं

दावानल हूँ विनाशकारी
मैं शीतल मंद बयार हूँ
..

हूँ इस प्रकृति का एक अंश
सूक्ष्म, तुच्छ मनुष्य हूँ मैं,

कशमकश में कवि अपने लिखने की विभिन्न मुद्राओं को अंकित करता जाता है, हर रचनाकार की तरह वह समझ नहीं पाता कभी चाहने पर भी पंक्ति उतरने से इंकार करती है और कभी सहज ही लेखन घटता है
कशमकश

कभी विचार करते हैं क्रन्दन
और फिर मैं लिखता हूँ
... ..
कभी लिखता हूँ तो कुछ उतरता नहीं ख्यालों में
..
मैं कभी महसूस करता हूँ
किसी क्षण का कंपन
...
कभी चलती है कलम बिना किसी झंकार के
..
कभी लिखते हुए महसूस होता है स्याही का नृत्य
..
कभी जो सोच में घटता है, अहसास में नहीं होता
कभी अहसास का चेहरा ही नहीं पढ़ा जाता
... ...
कभी सोच, सिर्फ सोच रह जाती है संवेदना शून्य
...
कभी सोचता हूँ कुछ, लिख जाता हूँ कुछ और
...
कभी लाइनें ही टकरा जाती हैं आपस में
लड़ बैठती हैं और शब्द भाग जाते हैं

इसी कशमकश में रोज
किसी कविता का करता हूँ नामकरण
या फिर उसे देता हूँ मुखाग्नि  


कवि रजनीश तिवारी जी की कविताएँ काव्य का सुखद अनुभव तो कराती ही हैं, जीवन की सच्चाइयों से भी रूबरू कराती हैं, जीवन सूत्रों को प्रस्तुत करती हैं. आशा है आप सभी सुधी पाठक गण भी इनका रसास्वादन कर आनन्दित होंगे. इनके ब्लॉग का नाम है रजनीश का ब्लॉग- http://rajneesh-tiwari.blogspot.com
इनका इमेल पता है- rajneeshtiwari@live.in