गुरुवार, सितंबर 29

चलो घर चलते हैं


चलो घर चलते हैं

बहुत देख लिए दुनिया के रंग ढंग
छूट ही जाता है यहाँ हर संग
चलो घर चलते हैं...
बज रहे हैं जहां ढोल और मृदंग !
कभी शहनाई का स्वर गूंज उठता है
जहां रोशनियों का एक हुजूम उठता है
फिर से आएंगे पाकर नई दृष्टि
नजर आयेगी नई सी यह सृष्टि !
अभी तो सब जगह गोलमाल ही नजर आता है
साहब से ज्यादा चपरासी दमखम दिखाता है
चमचा नेता से ज्यादा उड़ाता है
अपनी ही सम्पत्ति को जलाते हैं नक्सलवादी
चाहते हैं गरीबी की गुलामी से आजादी
नई पीढ़ी कैसी है कुम्हलाई
दिन रात कृत्रिम प्रकाश में आज के बच्चे पलते हैं
चलो घर चलते हैं
थका हुआ आदमी और कर भी क्या सकता है
उतारता है क्रोध कभी सरकार पर कभी मौसम पर 
जले हैं दिये पर नजर को छलते हैं
चलो घर चलते हैं....
 

  

बुधवार, सितंबर 28

जग मुझमें या मैं हूँ जग में


जग मुझमें या मैं हूँ जग में

निस्सीम नीलगगन
सौंदर्य बिखरा है चहुँ ओर
कभी रंगीन कभी श्वेत बादलों से सजा कैनवास
घिरती हुई संध्या या उगती हुई भोर
निर्झर स्वर या प्रपात का रोर !
जरा नजर उठाओ तो झलक उठता है रूप
पूछता है मन
कोई तो होगा जिसने गढ़ा होगा यह अनुपम सौंदर्य
चित्रकार थकते नहीं, करते जिसकी नकल
शिल्पी गढते हैं मूर्तियों में जिसकी शकल  
सोचते सोचते तंद्रा में डूब गया मन
सुस्व्प्नों में खो गया कण-कण
एक देवदूत से हुई मुलाकात
मौन में ही हुई जिससे बात
दिखाया उसने भीतर एक साम्राज्य
मैं इतना सुंदर हूँ
चौंक कर जगा मन
स्वयं को बाहर भी देख
चकराया ...
मुझमें है जग या मैं हूँ जग में
उसे कुछ समझ न आया .. 

सोमवार, सितंबर 26

शहंशाहों की रीत निराली


शहंशाहों की रीत निराली

मंदिर और शिवाले छाने, कहाँ-कहाँ नहीं तुझे पुकारा
चढ़ी चढ़ाई, स्वेद बहाया, मिला न किन्तु कोई किनारा ! 

बना रहा तू दूर ही सदा, अलख, अगाध, अगम, अगोचर
भीतर का सूनापन बोझिल, ले जाता था कहीं डुबोकर ! 

कृत्य के बदले जो भी मिलता, तभी अचानक स्मृति आयी
कीमत उससे कम ही रखता, यह अनुपम दी सीख सुनाई !

जो मिल जाये अपने बल से, मूल्य कहाँ उसका कुछ होगा ?
कृत्य बड़ा होगा जिस रब से, पाकर उसको भी क्या होगा ? 

प्रेम से ही मिलता वह प्यारा, सदा बरसती निर्मल धारा,
चाहने वाला जब हट जाये, तत्क्षण बरसे प्रीत फुहारा ! 

वह तो हर पल आना चाहे, कोई मिले न जिसे सराहे,
आकाक्षाँ चहुँ ओर भरी है, किससे अपनी प्रीत निबाहे ! 

इच्छाओं से हों जब खाली, तभी समाएगा वनमाली,
स्वयं से स्वयं ही मिल सकता, शहंशाहों की रीत निराली !

शनिवार, सितंबर 24

चलो उगा दें चांद प्रीत का


चलो उगा दें चांद प्रीत का

चलो झटक दें हर उस दुःख को, जो तुमसे मिलने में बाधक
 चाहो तो तुम्हें अर्पण कर दें, बन जाएँ अर्जुन से साधक !

चलो उगा दें चाँद प्रीत का, तुमसे ही जो करे प्रतिस्पर्धा
चाहो तो अंजुरी भर-भर दें, भीतर उमग रही जो श्रद्धा !

चलो गिरा दें सभी आवरण, गोपी से हो जाएँ खाली
उर के भेद सब ही खोल दें, रास रचाएं संग वनमाली  !

फिर उपजेगा मौन अनोखा, जिससे कम की मांग व्यर्थ है
प्रश्न सभी खो जायेंगे तब, आत्म मिलन का यही अर्थ है !

क्रांति घटेगी उगेगा सूरज, भीतर सोया जब जागेगा,
परम खींचता हर पल सबको, आत्म क्षितिज तब रंग जायेगा !

गुरुवार, सितंबर 22

फिर से वह गंगा कहलाये


फिर से वह गंगा कहलाये


है सहज स्वीकार जहां सब
केवल वह उसका ही दर है,
विवश हुआ सा हामी भर दे
ऐसा यह बंदे का घर है !

कोई नहीं आग्रह उसका
बनें कुसुम या कांटे हम,
दुनिया अपने कहे चलेगी
यह विश्वास समेटे हम !

गिरते-पड़ते, उठते-बढ़ते
इक दिन उससे मिलना होगा,
स्वयं को जब तक खुदा मानते
तब तक निश-दिन जलना होगा !

फूलों, बादल, पंछी हाथों
पल-पल भेज रहा संदेशे,
शेयर के गर दाम न बढे
घबराए हम इस अंदेशे !

गंगा से जल पृथक हुआ जो
सड़ जाता है काम न आए
पुनः जा मिला जब धारा में
फिर से वह गंगा कहलाये !





बुधवार, सितंबर 21

जहां प्रीत की गागर ढुलके


जहां प्रीत की गागर ढुलके

खो जाते हैं प्रश्न जहां सब
एक प्रकाश ही दिपदिप करता,
समाधान हो जाता मन का
कोई सरस प्रेम है भरता !

सीमाएं मिट जातीं सारी
हम अनंत में दौड लगाते,
पल में सारे नक्षत्रों का
भ्रमण किये फिर वापस आते !

कण-कण जग का भेद खोलता
तन भी पिघल-पिघल ज्यों जाता,
मन का तो कुछ पता न चलता
एक ही तत्व नजर बस आता !

वह परम, वह अपना प्रियतम
बाट जोहता कब घर लौटें,
बार-बार भेजे संदेशे
कब अपना बिखराव समेटें !

जाने कौन से लोभ की खातिर
माया पंक में हम डूबे हैं,
अब तक तो कुछ चैन न पाया
बांधे कितने मंसूबे हैं !

भीतर ही वह देश अनोखा
जहां सरसता टपटप टपके,
जहां जले हैं दीप हजारों
जहां प्रीत की गागर ढुलके !

सोमवार, सितंबर 19

जीवन क्या है


जीवन क्या है

कौन जानता, जीवन क्या है
 श्वासों का आना-जाना है ?
जन्म से मृत्यु की घड़ियों में
स्वयं से प्रीत बढाना है ?

जग तो इक आईना ही है
जिसमें खुद की झलक मिल रही,
नए-नए रस्तों पर चल के
एक वही तस्वीर खिल रही !

तन साबुत रखने की खातिर
मन को मार रहा है कोई,
मन को उसका चैन दिलाने
खुद को हार रहा है कोई !

तन-मन से भी ऊब गया जो
भेद सृष्टि के पाना चाहे,
नींद, क्षुधा बिसरा के पल-पल
ज्ञान की जोत जलाना चाहे !

जीवन एक है तल अनेक हैं
सत्य सभी के जुदा यहाँ हैं,
महलों में कोई है उनींदा
फुटपाथों पर नींद जवां है !

अजब खेल है यह जीवन का
सभी यहाँ व्यस्त लगते हैं,
अंत में खाली जाते देखा
जाने क्या दिल में भरते हैं !  

रविवार, सितंबर 18

यही है जीवन


यही है जीवन

सुख मिल जाये...
बस थोडा सा सुख मिल जाये
इसी आस में मन मानव का डोला करता
इधर-उधर जा निज शक्ति को तोला करता
यह कर लूं तो मिलेगी तृप्ति
वह पा लूँ तो बस है मुक्ति
इसी फ़िक्र में जीवन भर वह दुःख को सहता
कुछ न कहता
आस बांधता फिर-फिर सुख की
यहाँ नहीं तो वहाँ मिलेगा
कभी तो दिल का फूल खिलेगा
क्या हुआ जो अभी नहीं है
क्या दुनिया में कहीं नहीं है
सिंगापूर भी घूम लिया है
यूरोप में जरूर मिलेगा !

सादे चावल में न हो लेकिन  
तर पुलाव में सुख तो होगा
अबकी बरस सितारे डूबे
अगला शुभ-लाभ लाएगा
सब कुछ बेहतर हो जायेगा
जब घर में दो टीवी होंगे
झक-झक खत्म रोज की होगी
बड़े मजे से पसरे-पसरे
अपना-अपना धारावाहिक
अलग-अलग कमरों में बैठे
 हम देखेंगे !

नई नौकरी में सुख होगा
नई - नई शादी में शायद
अभी तो जीने की तैयारी
अभी तो काम बहुत है भारी
अभी कहाँ है फुर्सत हमको
अभी तो आगे ही जाना है
रात-दिन को एक किये हैं
सुख का वृक्ष उगाना है
कल होगा सुख
 जब सेवानिवृत्ति होगी
हाथ में मोटी पेंशन होगी
बड़े मजे से तब रह लेंगे
अभी तो जो है
वही है जीवन....!