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बुधवार, नवंबर 27


जो आकाश है 

वही सूरज बन गया है 

जो सूरज है 

वही धरा बना 

जो धरा है वही चाँद 

और सभी निरंतर होना चाहते हैं 

वह, जो थे 

जाना चाहते हैं वहाँ 

जहाँ से आये थे !


आदमी में 

आकाश है परमात्मा 

सूरज - आत्मा 

चाँद - मन और 

धरा है देह 

मन, देह से और 

देह, आत्मा से जुड़ना चाहती है 

आत्मा की चाह है परमात्मा से जुड़ 

आकाश होना 

यही गति जीवन है 

अंततः सभी आकाश हैं 

विस्तीर्ण, अनंत, शून्य आकाश !


शनिवार, अगस्त 31

जागरण

जागरण 


रात ढलने को है 

झूम रहा हर सिंगार हौले-हौले 

बस कुछ ही पल में 

हर पुष्प डाली से झर जाएगा 

श्वेत कोमलता से 

धरा का आँचल भर जाएगा 

कुनमुनाने लगे हैं पंछी बसेरों में 

दूर से आ रही कूक 

सूने पथ पर कदम बढ़ा रहे  

मुँह अंधेरे उठ जाने वाले 

उषा मोहक है 

उसकी हर शै याद दिलाती  

उस जागरण की 

जब चिदाकाश पर उगने को है

आत्मा का सूरज 

कुछ डोलने लगा है भीतर 

और झर गई हैं अंतर्भावनाएँ 

उसके चरणों में 

 गूँजने लगा है कोई गीत

 सहला जाता है अनाम स्पर्श

विरह की अग्नि में तपे उर को 

 भोर की प्रतीक्षा में 

यह अहसास होने लगा है 

एक दिन ऐसी ही होगी 

अंतर भोर !



मंगलवार, मई 28

अंबर पर है सूरज का घर

अंबर पर है सूरज का घर 


उर अंतर लघु पात्र बना है 

सम्मुख विशाल अतीव सागर, 

रह जाता प्यासा का प्यासा 

ख़ाली रहती उर की गागर !


आशाएँ पलती हैं अनगिन 

लेकिन त्याग बहुत छोटा सा,  

अंबर पर है सूरज का घर 

आख़िर कैसे मिलन घटेगा !


 मौन छिपा इक भीतर सबके

बुद्ध विहरते जहाँ रात-दिन,  

हर सीमा मन की टूटेगी 

उगेंगे तुष्टि के नंदन वन !


ख़ुद ही ज्योति पुष्प बनना है

खिलेगा जो शांति सरवर में,

हर दुख बाधा मिट जाएगी 

बढ़ना होगा नयी डगर में !



गुरुवार, अक्टूबर 13

अभय



अभय 


सूरज की एक किरण 

सागर की एक बून्द 

सारी पृथ्वी की धूल का एक कण 

अनंत ध्वनियों में एक स्वर 

हम वही हैं 

पर जब जुड़े हैं स्रोत से 

तो कोई भय नहीं !


शनिवार, जुलाई 23

कहीं धूप खिली कहीं छाया

कहीं धूप खिली कहीं छाया  

 

यहाँ कुछ भी तजने योग्य नहीं 

यह जगत उसी की है माया,  

वह सूरज सा नभ में दमके 

कहीं धूप खिली कहीं छाया !


दोनों का कारण एक वही 

उसका कुछ कारण नहीं मिला, 

वह एक स्वयंभू शिव सम है 

उससे ही उर आनंद खिला !


नाता उससे क्षण भर न मिटे 

इक धारा उसकी ओर बहे, 

उससे ही पूरित हो अंतर 

वाणी नयनों से उसे गहे !


उसी मौन से प्रकटी हर ध्वनि

खग, कोकिल कूक पुकार बनी,

सागर में उठी लहर जैसे 

जल धारे ही पल-पल उठती !


जग नाटक है वह देख रहा 

मन भी उसका ही मीत बने, 

कुछ भी न इसे छू पायेगा 

निर्द्वन्द्व ध्यान से भरा  रहे !


मंगलवार, मार्च 15

कुदरत की होली

कुदरत की होली 


झांको कभी निज नयनों में 

और थोड़ा सा मुस्कुराओ,

रंग भरने हैं अंतर में मोहक यदि  

हाथ कुदरत से अपना मिलाओ !

नीले नभ पर पीला चाँद 

रूपहले सितारों में जगमगाये  

कभी स्याह बादलों में 

इंद्र धनुष भी कौंध अपनी दिखाए !

हरे रंग से रंगी वसुंधरा

जिस पर अनगिन फूल टंके हैं 

ज़रा संभल कर जाना पथ पर

तितलियों के झुंड उड़े हैं !

होली खेलती दिनरात यह कुदरत 

जगाना उल्लास ही इसकी फ़ितरत 

केवल आदमी लड़ाई के बहाने खोजता  

जहाँ रंगों के अंबार लगते

तुच्छ बातों को एक मसला बना लेता  !

रंग सजते बन उमंग जीवन में 

भर जाते तरंग तन और मन में 

अगर रंग भरने हैं सदा के लिए अंतर में 

सहज हर भोर में

संग सूरज के खिलखिलाओ 

हाथ कुदरत से अपना मिलाओ !


गुरुवार, दिसंबर 16

जीवन मिलता है पग-पग पर

जीवन मिलता है पग-पग पर 


एक शृंखला चलती आती 

अंतहीन युग बीत गए हैं, 

इच्छाओं को पूरा करते 

हम खुद से ही रीत गये हैं !


प्रतिबिंबों से आख़िर कब तक 

खुद को कोई बहला सकता, 

सूरज के सम्मुख ना आए 

मन पाखी मरने से डरता !


जीवन मिलता है पग-पग पर 

कब तक रहें गणित में उलझे, 

हर पूजा की क़ीमत चाहें 

दुविधा उर की क्योंकर सुलझे !


धूप, हवा, जल, अम्बर बनकर 

बँटता ही जाता है रहबर, 

आनंदित होते रहते हम 

छोटे से दामन में भरकर !


सोमवार, सितंबर 27

अस्तित्त्व और चेतना

अस्तित्त्व और चेतना 

ज्यों हंस के श्वेत पंखों में 

बसी है धवलता 

हरे-भरे जंगल में रची-बसी हरीतिमा 

जैसे चाँद से पृथक नहीं ज्योत्स्ना 

और सूरज से उसकी गरिमा 

वैसे ही अस्तित्त्व से पृथक नहीं है चेतना 

अग्नि में ताप और प्रकाश की नाईं

शक्ति शिव में समाई 

ज्यों दृष्टि नयनों में बसती है 

मनन मन में 

आकाश से नीलिमा को कैसे पृथक करेंगे 

हिरन से उसकी चपलता 

वैसे ही जगत में है उसकी सत्ता 

लहरें जल से  हैं बनती 

जल क्या नहीं उसकी कृति !


गुरुवार, अगस्त 26

दूर और पास

 दूर और पास 

दूर से सूरज की आभा में 

 नीला पर्वत लग रहा था मोहक 

और उसके नीचे फैला हरा

मैदान बुला रहा था 

पर तपती दोपहरी में 

चला नहीं जाता पर्वत पर 

और मैदान के कंटक पैरों में चुभते थे 

थोड़ी सी दूरी तो चाहिए न 

आकर्षण बनाये रखने के लिए 

नील नभ पर बादल भले लगते हैं 

पर फट कर आंगन में गिर जाएँ तो दुःख देते हैं 

बच्चा नहीं जानता वह माँ के निकट है 

अलिप्त है सो सुंदर है उनके मध्य बहता प्रेम 

ज्यादा निकटता

कुरूपता को जन्म दे सकती है 

मान लेना ही काफी है 

 ‘वह’ सदा हमारे साथ है 

शायद उससे दूरी ही 

उसके प्रति प्रेम को बनाये रखती है ! 


शुक्रवार, जून 18

प्रकृति के कुछ रंग

प्रकृति के कुछ रंग

अपने–अपने घरों में कैद

खुद से बतियाते

अपने इर्दगिर्द ब्रह्मांड रचने वाले लोग

क्या जानें कि नदी क्यों बहती है

दूर बीहड़ रास्तों से आ

ठंडे पानी को अपने अंक में समेटे

तटों को भिगोती, धरा को ठंडक

पहुंचाती चली जाती है

क्यों सूरज बालू को सतरंगी बनाता

नदी की गोद से उछल कर शाम ढले उसी में सो जाता है

आकाश झांकता निज प्रतिबिम्ब देखने

संवारते नदी के शीशे में वृक्ष भी अपना अक्स

सदियों से सर्द हुआ मन

धूप की गर्माहट पा पिघल कर

बहने लगता है नदी की धारा के साथ

बर्फ की चादर से ढका धरा का कोना

जैसे सुगबुगा कर खोल दे अपनी आँखें

नन्हे नन्हे पौधों की शक्ल में

मन की बंजर धरती पर भी गुनगुनी धूप

की गर्माहट पाकर गीतों के पौधों उग आते

हल्की सी सर्द हवा का झोंका घास को लहराता हुआ सा

जब निकल जाये

तो गीतों के पंछी मन के आंगन से उड़कर

नदी के साथ समुन्दर तक चले जाते

धूप की चादर उतार, शाम की ओढ़नी नदी ओढ़े जब

सिमट आयें अपने-अपने बिछौनों में

अगली सुबह का इंतजार करते कुछ स्वप्न !

 

सोमवार, फ़रवरी 1

ब्रह्म मुहूर्त का कोरा पल

ब्रह्म मुहूर्त का कोरा  पल 

सोये हैं अभी पात वृक्ष के 
स्थिर जैसे हों चित्रलिखित से 
किन्तु झर रही मदिर सुवास 
छन-छन आती है खिड़की से 

निकट ही कंचन मौन खड़ा है 
मद्धिम झींगुर गान गूँजता 
पूरब में हलचल सी होती 
नभ पर छायी अभी कालिमा 

एक शांत निस्तब्ध जगत है 
ब्रह्म मुहूर्त का कोरा  पल 
सुना, देवता भू पर आते 
विचरण कर बाँटते अमृत 

कोई हो सचेत पा लेता 
स्वर्गिक रस आनंद सरीखा 
जैसे ही सूरज उग आता 
पुनः झमेला जग का जगता 
 

रविवार, अक्टूबर 4

अस्तित्त्व और हम

 अस्तित्त्व और हम 

एक हवा का झोंका भी आकर 

उसकी खबर दे जाता है 

दूर गगन में उगता हुआ साँझ का तारा 

उसकी याद से भर जाता है 

बादलों में बना कोई आकार

छेड़ जाता है मन की झील को 

डाली पर एक फूल का खिलना 

कैसी मुस्कान अंतर में जगा जाता है 

तेरे मिलने के हजार ढंग हैं !

वर्षा की फुहार बनकर तू ही 

भिगोता है उर का आंगन 

कोयल की कूक में कोई नगमा सुना जाता है 

सूरज की पहली किरण 

छूती है चेहरे को 

लगता है तू ही चुपके से गुलाल लगा जाता है 

झरनों का संगीत या पंछियों का गीत 

ओस की छुवन या घास का परस

देता है तू ही हर रूप में 

हर रंग में हर शै में दरस 

तू ज्योति बनकर दीपक में जलता है 

जिसे देख अंतर में कोई स्वप्न पलता है  

मन भी ज्योति बनकर 

जले तेरी राह में 

कुछ भी न शेष रहे 

शून्य ही बरसे हर चाह में 

अस्तित्त्व के साथ एक हो जाना ही तो पूजा है 

उसके सिवा न साधन कोई दूजा है !


बुधवार, जुलाई 1

सूरज और चाँद

सूरज और चाँद 

‘वह’ सूरज है... 
भरी दोपहरी का 
 तपता  सूरज !
हमें चाँद की शीतल उजास ही सुहाती है  
 मुख फेर लेते हैं हम
उजाले से 
या हमारी आँखें मुंद जाती हैं !

तज प्रखर ज्योति  
 तज विस्तीर्ण गगन  
घूमता रहता मन अपनी ही गलियों में
मद्धिम ज्योत्स्ना 
ही मन को लुभाती है !

वहाँ कोई दूसरा नहीं 
यहाँ पूरा जगत है, 
वहाँ निस्तब्धता है 
यहाँ कोलाहल है !

कोई-कोई ही ‘उसका’
चाहने वाला 
मन का तो हर कोई रखवाला 
‘उसकी’ ही रौशनी प्रतिबिंबित करता  
फिर भी ‘उसके’ निकट जाने से डरता  
सूरज के उगते ही छिप जाता चाँद 
खो जाते  तारिकाओं के समूह 
वह एकक्षत्र स्वामी है नभ का 
नींद में छिप जाता है लेकिन 
 मन स्वप्न तो बुनता ही रहता  
‘उसका’ बल वहाँ नहीं चलता ! 



मंगलवार, जून 2

आह्वान

आह्वान 


चलो सँवारें गाँव देश को 
सूखे पत्ते जरा बुहारें
भूलों के जो बने खंडहर
उन्हें गिराकर
या भावी की आशंकाएँ 
जो घास-फूस सी उग आयी हैं 
उन्हें हटाकर 
सूरज को फिर दे आमन्त्रण 
वर्तमान के इस शुभ पल में  
फूल खिला दें 
ग्राम्य देवता धीरे से आ 
कर कमलों से उन्हें हिला दें 
सुखद स्मृति कोई पावन 
बहे यहाँ फिर शुभ यमुना बन 
तट पर जिसके बजे बाँसुरी
हँसे कन्हैया का वृंदावन 
चलो पुकारें, दे आमन्त्रण 
हर शुभता को 
उगे हुए झंखाड़ उखाड़ें 
आशंका की यदि बदलियां 
छायीं मन पर 
बह जाने दें झरते जल को 
भीग उठे श्यामल धरती का 
हर इक रज कण !