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बुधवार, अप्रैल 24

नयन स्वयं को देखते न

नयन स्वयं को देखते न 


हम हमीं को ढूँढते हैं 

पूछते फिरते कहाँ हो ?

हम हमीं को ढूँढते हैं 

पूछता ‘मैं’ ‘तुम’ कहाँ हो ?


खेल कैसा है रचाया 

अश्रु हर क्योंकर बहाया, 

नयन स्वयं को देखते न 

रहे उनमें जग समाया !


अस्त होता कहाँ दिनकर 

डोलती है भू निरंतर, 

देह-मन को करे जगमग 

आत्मा सदा दीप बन कर !


प्रश्नवाचक जो बना है

पूछता जो प्रश्न सारे

भावना से दूर होगा 

दर्द जो अब भरे आहें !


जो नचाती, घेरती भी  

एक छाया ही मनस की, 

दूर ले जा निकट लाती 

लालसा जीवन-मरण की !


‘तू’ छिपा मुझी  के भीतर 

‘मैं’ मिले ‘तू’ झलक जाये 

एक पल में हो सवेरा 

भ्रम मिटाकर रात जाये !


मंगलवार, जनवरी 3

नया वर्ष - नए विकल्पों का घोष


नया वर्ष - नए विकल्पों का घोष 

जाते हुए वर्ष के अंतिम दिन और नए वर्ष के प्रथम दिन को प्रकृति के सान्निध्य में बिताने की परंपरा कब और कैसे आरम्भ हो गयी, यह तो याद नहीं पर पतिदेव की सेवा निवृत्ति से पूर्व की यह रीति कोरोना का एक वर्ष छोड़ दें तो पिछले तीन वर्षों से बखूबी चल रही है। इस वर्ष भी तीन महीने पहले ही पुत्र व पुत्रवधू ने ईको नेटिव विलेज नामक एक रिज़ॉर्ट में दो कमरे आरक्षित करवा दिए थे। अतः २०२२ का अंतिम दिवस और २०२३ का प्रथम दिवस पंछियों, वृक्षों और सूर्यास्त व सूर्योदय निहारते हुए बिताया। बंगलूरू की भीड़भाड़ से दूर गाँव के निकट खेतों-खलिहानों के मध्य दूर तक फैले खुले स्थान पर यह स्थान है। दूर से देखने तो पेड़ों से घिरा है, पर निकट जाकर देखने पर ज्ञात होता है कि अपनी उत्तम वास्तुकला के साथ ​​​​यह आवास शांत वातावरण में स्थित है और सुकून भरे कुछ पल बिताने के लिए एक सुरम्य गांव की पृष्ठभूमि पर बनाया गया है।घूमता हुआ चाक तो पहले कई बार देखा था पर पहली बार एक कुम्हार के सहयोग से चाक चलाने का अवसर मिला, हमने मिट्टी के दो छोटे पात्र बनाए। मिट्टी का कोमल स्पर्श अनोखा था, तेज़ी से घूमते हुए चाक पर अनगढ़ मिट्टी को भीतर व बाहर से सहेजते हुए आकार देना वाक़ई एक सुंदर अनुभव था। इसके बाद बचपन में खेले हुए अनेक खेलों की बारी थी, जिसमें शामिल थे, झूले, लट्टू घुमाना, लकड़ी की सहायता से टायर घुमाना, गुलेल से टंगी हुई टिन की बोतलों पर निशाना, पतंग उड़ाना, लगूरी, बास्केट बॉल, कैरम और भी कई खेल, जिन्हें बच्चे-बड़े मिल कर खेल रहे थे। जो काम वर्षों से नहीं किए होंगे, उन्हें  करके सहज आनंद मिल रहा था, वास्तव में आनंद तो भीतर है ही, उसे व्यक्त होने का अवसर मिल रहा था, वरना घर-बाहर के रोज़मर्रा के कामों में बड़े और पढ़ाई के बोझ तले दबे बच्चे अपने भीतर के उस आनंद से मिल ही नहीं पाते जो उन्हें इन सरल कृत्यों को कर के मिल रहा था। इस ख़ुशी का शायद एक कारण और भी हो सकता है, जीवन में नयापन उत्साह से भर देता है, तो ये सारे खेल जिन्हें आज की पीढ़ी भूल ही गयी है, उसी नवीनता का अनुभव करा रहे थे। जैसे परमात्मा नित नया सृजन करता ही जाता है, वह थकता ही नहीं। हमारे भीतर भी उसी का अंश आत्मा रूप में मौजूद है जो सदा नवीनता का अनुभव करना चाहता है। संभवतः इसीलिए दुनिया भर में लोग नया साल मनाते हैं। 

प्रकृति प्रेमियों के लिए इससे अच्छा क्या होगा कि वर्ष की अंतिम रात्रि को स्वच्छ आकाश में तारों की चमक और चंद्रमा की दमक निहारते हुए बिताया जाए। भोर में पंछियों कि कलरव से नींद खुले और उगते व अस्त होते सूर्यदेव को प्रणाम करने का अवसर मिले। नये  वर्ष का विशेष रात्रिभोज, संगीत, प्रकाश और साज-सज्जा तो सभी के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र बना ही हुआ था। यहाँ दो दर्जन से ज़्यादा कमरे हैं और सभी भरे हुए थे। बच्चे, युवा, अधेड़ और वृद्ध सभी आयुवर्ग के लोग आए हुए थे, जिनमें से अधिकतर आपस में शायद पहली और अंतिम बार मिले थे, पर एक आत्मीयता का सहज भाव जग जाना स्वाभाविक था क्योंकि सभी एक ही उद्देश्य के लिए आए थे, अपने जीवन की इस संध्या को यादगार बनाने !

शाम होते ही भोज की तैयारी शुरू हो गयी थी। प्रकाश की झालरें, संगीत और स्वादिष्ट भोजन की सुगंध सबको कार्यक्रम स्थल पर ली आयी। कुछ मेहमानों ने गीत गाए, कुछ बच्चों ने नृत्य किए और जैसे ही घड़ी ने बारह बजाए, प्रांगण पटाखों से गूंज उठा।

अगले दिन सुबह उठे तो विभिन्न पक्षियों की मधुर आवाज़ें सारे वातावरण में गूँज रही थीं। अभी हल्का अंधेरा था, पर रिज़ोर्ट से बाहर निकल कर बाँए कच्चे रास्ते पर चलना आरंभ किया तो धीरे-धीरे प्रकाश फैलने लगा था। आसपास के खेतों व पगडंडी पर श्वेत कोहरा छाया था, पथ के अंत तक हम चलते गए, रास्ते में कुछ फूलों के पेड़ थे। पगडंडी की समाप्ति पर किसी का घर था, या कोई गेस्ट हाउस। वापसी में बाँयी तरफ़ श्वेत कोहरे को भेदती हुई हल्की सी लाल आभा की झलक दिखी; और देखते-देखते नारंगी रंग का सूर्य का गोला श्वेत पृष्ठभूमि पर देदीप्यमान हो उठा। हमने कुछ तस्वीरें उतारीं और कुदरत को निहारते वापस लौट आए। प्रातःराश  के बाद वहाँ से लौटने से पूर्व अंतिम बार पूरे अहाते का एक चक्कर लगाया। कमल कुंड में कलियाँ खिलने लगी थीं। टमाटर, लौकी, फलियाँ, बैंगन, मिर्च, पपीते के पौधे और पेड़ देखे। यहाँ कुछ गाएँ और बत्तखें भी पाली हुई हैं। एक बैल गाड़ी भी खड़ी थी। एक तरह से गाँव का पूरा वातावरण बनाया गया है। 

शहर लौटकर अवतार २ देखने का कार्यक्रम भी पहले से ही तय था। इस फ़िल्म में समुंदर के नीचे की दुनिया का अद्भुत चित्रण किया गया है। पानी की लहरों के साथ नीचे उतरते -तैरते हुए काल्पनिक दुनिया के पात्र वहाँ के जीवों और वनस्पतियों से कैसा आत्मीय संबंध जोड़ लेते हैं, यह देखते ही बनता है। जीवन इतना अद्भुत हो सकता है, एक ओर इसकी कल्पना जहाँ चेतना को ध्यान की ओर ले जाती है, वहीं दूसरी ओर बन्दूकों और बारूद के विस्फोट से विनाश की लीला मानव की लिप्सा के प्रति सजग भी करती है। जेक सली के अनोखे परिवार और विशालकाय मछलियों के दृश्यों को मन में अंकित किए जब हम हॉल से बाहर आए तो सड़क पर ट्रैफ़िक कुछ ज़्यादा ही था। कुशलता से गाड़ी को भीड़ से निकाल कर घर तक पहुँच कर घड़ी देखी तो रात्रि के आठ बज चुके थे। बच्चों ने खाना पहले ही ऑर्डर कर दिया था, जो पहुँच चुका था। इस तरह नए वर्ष का पहला दिन अविस्मरणीय बन गया है और आने वाले पूरे वर्ष के लिए प्रेरणा का एक स्रोत भी; अर्थात अपने रोज़मर्रा के कामों में से कुछ समय निकाल कर  पाँच तत्वों के साथ कुछ समय बिताना, प्रकृति के साथ आत्मीय संबंध अनुभव करना और परमात्मा के द्वारा मिले परिवार के साथ सहज प्रेम के वरदान को कृतज्ञता के साथ ग्रहण करना !

शुक्रवार, सितंबर 11

रह जाता वह मुस्का कर

रह जाता वह मुस्का कर


स्मृतियों के अंबार तले यह 

दीवाना सा मन पिसता है, 

जन्मों-जन्मों जो बीज गिरे 

उन फसलों में अब घिरता है !


दिन भर जतन से साधा इसको 

स्वप्नों में सभी भूल गया, 

निद्रा देवी के अंचल में 

विश्राम मिला ना शूल गया !


दिवस रात्रि यह खेल चल रहा 

कोई देखे जाता भीतर, 

जिन भूलों पर झुँझलाता उर  

बस रह जाता वह मुस्का कर !


लक्ष्य बाहरी लगते धूमिल 

यही जागने की बेला है,

चौराहे पर बाट जोहती 

मृत्यु, शेष रही नहीं मंजिल !


अब तो द्वार खुले अनंत का 

मन में गूँजे बंसी की धुन, 

चाहों के जंगल अर्घट हों 

रस्ता दें झरनों को पाहन !



 

सोमवार, अक्टूबर 9

लीला एक अनोखी चलती



लीला एक अनोखी चलती 


सारा कच्चा माल पड़ा है वहाँ
अस्तित्त्व के गर्भ में....
जो जैसा चाहे निर्माण करे निज जीवन का !

महाभारत का युद्ध पहले ही लड़ा जा चुका है
अब हमारी बारी है...
वहाँ सब कुछ है !
थमा दिये जाते हैं जैसे खिलाडियों को
उपकरण खेल से पूर्व
अब अच्छा या बुरा खेलना निर्भर है उन पर !

वहाँ शब्द हैं अनंत
जिनसे रची जा सकती हैं कवितायें
या लड़े जा सकते हैं युद्ध,

वहाँ बीज हैं
रुप ले सकते हैं जो मोहक फूलों का
 बदल सकते हैं मीठे फलों में
परिणित किया जा सकता है जिन्हें उपवन में
या यूँ ही छोड़ दिया जा सकता है
सड़ने को !

उस महासागर में मोती पड़े हैं
जिन्हें पिरोया जा सकता है
मुक्त माल में
अनजाने में की गयी हमारी कामनाओं की
पूर्ति भी होती है वहाँ से
हम ही चुन लेते हैं कंटक....
जानता ही नहीं जो, उसे जाना कहाँ है
अस्तित्त्व कैसे ले जायेगा उसे और कहाँ ?
जो जानता ही नहीं खेल के नियम
वह खेल में शामिल नहीं हो पायेगा
लीला चल रही है दिन-रात
उसके और उसके अपनों के मध्य

हमारे तन पहले ही मारे जा चुके हैं
आत्माएं अमर हैं नये-नये कलेवर धर.... 

गुरुवार, मार्च 12

झर जाते फिर जैसे सपने

झर जाते फिर जैसे सपने



है अनोखा खेल उसका,  गूँज प्यारी पंछियों की
तिर रहे जो नील नभ में, कूक मनहर कोकिलों की !

सुन सकें तो हैं मधुरतम
कण-कण में जो बसे हुए,
दादुर, मोर, पपीहा के स्वर  
मेघ नीर भी सुर में बरसे !

टिप-टिप छन-छन बरसे बादल
पवन जरा हौले से बहती,
पीले पत्तों को शाखों से
लाकर भूमि पर धर देती !

छिप जाते पंछी डालों में
भीगे पंख झाड़ते अपने,
फूल सहा करते बूंदों को
झर जाते फिर जैसे सपने !

सृष्टि की लीला यह अनुपम
युगों-युगों से चली आ रही,
प्रेम भरे कातर नयनों को
उसी अलख की झलक दिखाती !


सोमवार, जुलाई 7

अब



अब

बहुत हुआ खेल, अब चलो
कुछ काम की बातें कर लें
उससे पहले कि पर्दा उठ जाये
उससे दोस्ती बना लें
कहीं ऐसा न हो, खो जाये
एक श्वास व्यर्थ ही
अनंत के इस गह्वर में
या फिर चूक जाये एक बार फिर
कोई गीत रचे जाने से एक क्षण पूर्व
खो जाये कोई उजास जलने से पूर्व ही
या कली की मौत हो फूल बनने से पहले
और उससे दोस्ती बनाने के बाद
जो हो सो हो
 जो होना है सो हो जाये ! 

गुरुवार, सितंबर 19

चलो, अब घर चलें


चलो, अब घर चलें


बहुत घूमे बहुत भटके
कहाँ-कहाँ नहीं अटके,
 बहुत रचाए खेल-तमाशे
बहुत कमाए तोले माशे !

अब तो यहाँ से टलें
चलो अब घर चलें !

आये थे चार दिन को
 यहीं धूनी रमाई,
 यहीं के हो रहे हैं
पास पूंजी गंवाई !

यादें अब उसकी खलें
चलो अब घर चलें !

कुछ नहीं पास तो क्या
 वहाँ भरपूर है आकर
पिता का प्यार माँ का नेह  
बुलाते प्रीत के आखर

आये तो थे अच्छे भले
चलो अब घर चलें !



शनिवार, मार्च 23

एक बूंद मानव का देय



एक बूंद मानव का देय


रंगों की बौछार हो रही
पल-पल इस सुंदर सृष्टि में,
लाखों-लाखों रंग छिपे हैं
नहीं समाते जो दृष्टि में !  

सजा मंच है इक अनंत का
प्रकृति नटी दिखाती खेल,
जैसे कोई बाजीगर हो
क्षण-क्षण घटे तत्व का मेल !

अनल दमकता, रक्तिम लपटें
स्वर्णिम आभा, हँसीं दिशाएँ,
सतरंगी उर्मियाँ रवि की
कण-कण वसुधा का रंग जाएँ !

धरा गंध का कोष लुटाती
बहे सुवासित पवन पुष्प छू,
ध्वनियाँ कैसी मधुरिम गूंजें
खग कूजित मुखरित नभ भू !

है अनंत, अनंत का सब कुछ
एक बूंद मानव का देय,
उतना ही रिसता जब उससे
मिल जाता जीवन में श्रेय !

बुधवार, जुलाई 4

अब राज छिपा कब तक रखे


अब राज छिपा कब तक रखे


कब अपना घूंघट खोलेगा
कब हमसे भी तू बोलेगा,
राधा का तू मीरा का भी
कब अपने सँग भी डोलेगा !

अब राज छिपा कब तक रखे
क्यों रस तेरा मन न चखे,
जब तू ही तू ही सभी जगह
इन नयनों को क्यों न दीखे !

अब और नहीं धीरज बंधता
मुँह मोड़ के क्यों है तू हँसता,
अब बहुत हुआ लुकना-छिपना  
तुझ बिन ना अब यह दिल रमता !

जो तू है, सो मैं हूँ, सच है
पर मुझको अपनी खबर कहाँ,
अब तू ही तू दिखता हर सूं
जाती है अपनी नजर जहाँ !

यह कैसा खेल चला आता
तू झलक दिखा छुप जाता है,
पलकों में बंद करूं कैसे
रह-रह कर बस छल जाता है !

शुक्रवार, जनवरी 13

लड़कियों की प्रार्थना


लड़कियों की प्रार्थना


अच्छा घर हो अच्छा वर हो
बड़ी नौकरी न कोई डर हो,
इतना तो सब माँगा करतीं
‘स्वयं’ कैसी हों नहीं सोचतीं !

बाहर सब हो कितना अच्छा
भीतर के बल पर ही टिकता,
भीतर को यदि नहीं संवारा
बाहर का भी शीघ्र बिखरता !

जो होना है वह हो जाये
सहज हुआ मन दीप जलाये,
फेरे, वेदी, मंगल वाणी
जीवन को आगे ले जाये !

लम्बा रस्ता, दूर है मंजिल
अपनी राह स्वयं गढनी है,
कैसा मधुर खेल चलता है
एक पहेली हल करनी है !

शनिवार, जुलाई 9

खोया खोया सा मन रहता

खोया खोया सा मन रहता

जब कोई हौले से आकर
कानों में वंशी धुन छेड़े,
माली दे ज्यों जल पादप को 
जब कोई अंतर को सींचे !

जब तारीफों के पुल बांधें  
नजरों में जिनकी न आये,
जब सफलता घर की चेरी
पांव जमीं पर न पड़ पाएँ !

जब सब कुछ बस में लगता हो
गाड़ी ज्यों पटरी पर आयी,
रब से कोई नहीं शिकायत
दिल में राहत बसने आयी !

फिर भी भीतर कसक बनी सी
अहम् को चोट लगा करती है,
खोया-खोया सा मन रहता
स्मित अधरों पे कहाँ टिकती है !

पीड़ा तन की या फिर मन की
उलझन ही कोई प्रियजन की,
रातों को न नींद आ रही
रौनक चली गयी आंगन की !

 मन सुख की लालसा करता
जग से लेन-देन चलता है,
लेकिन भेद न जाने कोई
असली खेल कहाँ चलता है !