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शुक्रवार, नवंबर 22

प्रेम

प्रेम 


याद 

हवा की तरह आती है 

और छू कर चली जाती है 

किसी झील की शांत सतह पर 

उड़ते हुए पंछी के पंखों में 

क्योंकि अंततः सब एक है 

प्रेम बरसता है छंद बनकर 

किसी कवि की कविता से 

या चाँदनी बनकर सुनहरे चाँद से 

नहीं होता उस पर किसी का एकाधिकार 

वह तो सबके लिए है 

नदियों, सागरों, मरुथलों 

और बियाबानों तक के लिए 

जिनसे मिलने जाते हैं 

युगों से यात्री 

सितारों के बताये रास्तों से गुजर 

ऐसा प्रेम 

जिसका कोई नाम नहीं है 

वही बच रहता है 

संगीत बनकर 

हर दिल की धड़कन में ! 






बुधवार, फ़रवरी 7

जीवन एक हवा का झोंका

जीवन एक हवा का झोंका 


मधु से मधु भर लें अंतर में 

कुछ रंग चुरा लें कुसुमों से, 

अंबर से नीलापन निर्मल 

गह लें विस्तार दिशाओं से !


मन हो जाये गतिमय नद सा

हरियाली दुनिया में भर दे,  

जीवन एक हवा का झोंका 

बन कर जिसे सुवासित कर दे !


कदमों में विश्वास भरा हो 

हाथों में हो बागडोर भी, 

पलकों में नव स्वप्न भरे हों 

पूर्ण सत्य की इक ज्वाला भी !


अपने पथ पर हो निशंक फिर 

राही कदम बढ़ाता जाये, 

कोई साथ सदा है उसके 

मनहर गीत सुनाता जाये !


उर की गहराई से निकलें 

सच के मोती बिखरें जग में, 

नहीं थमे विकास की धारा 

नहीं दम-खम प्रमाद का चले !


मंगलवार, जुलाई 25

पुरनम सी यह हवा


पुरनम सी यह हवा


तेरा पता मिला है औरों से क्या मिलें

पहुँचेंगे तेरे दर अरमान ये खिलें


तुझे छू के आ रही पुरनम सी यह हवा

सब को मेरी दुआ से मिलने लगी शफा


जब से यह बाँधा बंधन थम सा कुछ गया 

माटी का तन तपाया कंचन ह्रदय हुआ 


 दुनिया का सच आखिर आ गया है सम्मुख

फानी है सब जहाँ सुख या कि कोई दुःख


दिल यह मिला है ख़ुद से जब से मिले नयन

पहले पहल थी चिनगी भभकी हुई सघन


जलते हुए जगत में शीतल किया है मन

कैसी अनोखी ज्वाला बुझने लगी तपन


रविवार, जून 18

गर्मियों की शाम सुंदर


गर्मियों की शाम सुंदर


छू रही धरा को शीतल ग्रीष्म की महकी पवन

छा गए गगन पे देखो झूमते से श्याम घन !


दिवस की अंतिम किरण भी दूर सोने जा रही

सुरमई संध्या सुहानी कहीं कोकिल गा रही !


कुछ पलों पहले हरे थे वृक्ष काले अब लगें

बादलों के झुण्ड जाने क्या कथा खुद से कहें !


छू रही बालों को आके करती अठखेलियाँ

जाने किसे छू के आयी लिये रंगरेलियाँ !


चैन देता है परस प्यास अंतर में जगाता

दूर बैठा चितेरा कूंची नभ पर चलाता !


झूमते पादप हँसें कलियाँ हवा के संग तन

नाचते पीपल के पात खिलखिला गुड़हल मगन !


गर्मियों की शाम सुंदर प्रीत के सुर से सजी

घास कोमल हरी मानो रेशमी चादर बिछी !


है अँधेरा छा गया अब रात की आहट सुनो

दूर हो दिन की थकन अब नींद में सपने बुनो !


गुरुवार, फ़रवरी 2

मौसम का वर्तुल


मौसम का वर्तुल 

आते और जाते हैं मौसम 
जंगल पुनः पुनः बदलते हैं रूप
हवा कभी बर्फीली बन चुभती है
कभी तपाती..आग बरसाती सी..
शुष्क है धरा... फिर
भीग-भीग जाती   
निरंतर प्रवाह से जल धार के
मन के भी मौसम होते हैं और तन के भी
जैसे बचपन भी एक मौसम है
और एक ऋतु तरुणाई की
जब फूटने लगती हैं कोंपलें 
मन के आंगन में
और यौवन में झरते हैं हरसिंगार
फिर मौसम बदलता है
कुम्हला जाता है तन
थिर हो जाता मन
कैसा पावन नहीं हो जाता 
एक प्रौढ़ मन
गंगा के विशाल पाट जैसा चौड़ा
समेट लेता है
छोटी-बड़ी सब नौकाओं को अपने वक्ष पर
सिकुड़ जाता है तन वृद्धावस्था में
पर फ़ैल जाता है मन का कैनवास
सारा जीवन एक क्षण में उतर आता है
मृत्यु के मौसम में..

गुरुवार, जनवरी 19

कुछ छुपाने को न कुछ बताने को


कुछ छुपाने को न कुछ बताने को 


खुली किताब सा जब बन जाता है 

साथ कुदरत का उसे मिल जाता है 

कुछ छुपाने को न कुछ बताने को 

राहे इश्क़ पर दिल निकल जाता है 


दिल के घावों को हवा लगने दो 

धूप में ज़िंदगी की उन्हें तपने दो 

ढाँक रखने से न हल होंगे कभी 

खुल के जियो औरों को जीने दो 


हवा बहती है फूल खिलते हैं 

कुछ ऐसे ही यहाँ लोग मिलते हैं 

दिल भरा हो प्रेम से लबालब 

ठाँव अपनों के कहाँ हिलते हैं 


खुद को देखोगे तो सराहोगे 

दूर दिल से नहीं जा पाओगे 

जहाँ बसता है कोई जादूगर 

सारी दुनिया को वहीं पाओगे 


अपनी नज़रों में खुद को खुद देखो 

यह हक़ीक़त है आज या कल देखो 

खुद को चाहता नहीं जब तक कोई 

इश्क के घर से उसे दूर ही देखो 


 खिला फूल सुबह शाम झर जाता है 

चंद श्वासों का ज़िंदगी से नाता है 

दो घड़ी साथ मिले जिस किसी का यहाँ 

शुक्रिया हर बात पर निकल आता है 




शुक्रवार, दिसंबर 9

चिड़िया और आदमी


चिड़िया और आदमी


चिड़िया भोर में जगती है 

उड़ती है, दाना खोजती है 

दिन भर फुदकती है 

शाम हुए नीड़ में आकर सो जाती है 

दूसरे दिन फिर वही क्रम 

नीले आसमान का उसे भान नहीं 

हरे पेड़ों का उसे भान नहीं 

हवाओं,सूरज, धूप का उसे भान नहीं 

परमात्मा का उसे भान नहीं 

पर वह मस्त है अपने में ही मग्न 

और उधर आदमी 

उठता है चिंता करता है 

चिंता में काम करता है 

चिंता में भोजन खाता है 

चिंता में ही सो जाता है 

उसे भी नीला आकाश दिखायी नहीं देता 

हज़ार नेमतें दिखाई नहीं देतीं 

परिजन व आसपास के लोग दिखाई नहीं देते 

बस स्वार्थ सिद्धि में लगा रहता है 

तब आदमी चिड़िया से भी छोटा लगता है 


शनिवार, जुलाई 9

फलसफा मन का

फलसफा मन का


कह रहा है कोई कब से 

सुनो सरगोशियाँ उसकी 

बेहद महीन सी आवाज़ 

पुकारे है जिसकी 

शोर ख़्वाहिशों का दिल में 

थम जाए जिस घड़ी 

 इक पुर सुकून पवन 

आहिस्ता से छू जाती  

कोई कशिश, तलाश कोई 

अनजान राहों पर लिए जाती  

वह जो अपना सा लगे 

 याद जिसकी बरबस सताती  

चैन उसकी पनाह में है 

यह राज अब राज नहीं 

 भुलाना नहीं मुमकिन 

क्या दिल को यह अंदाज नहीं 

उसकी फ़िक्रों  में नींद रातों की गंवायी 

जिक्र उसका हर नज्म में जो भी गायी 

रहे  उस गली में वही

समाते जहाँ दो नहीं 

हवा है, धूप या 

पानी का कतरा 

सबब जीवन का 

या फलसफा मन का !




बुधवार, जून 1

पल पल इसको वही निखारे

पल पल इसको वही निखारे

दी उसने ही पीर प्रेम की 

दिलों में भर देता विश्वास, 

उड़ने को दो पंख दिए हैं

दिया अपार  अनंत आकाश !


वही बढ़ाये इन कदमों को 

नित रचता नूतन राहों को, 

लघुता झरी ज्यों बासी फूल 

सदा जगाया शुभ चाहों को !


कूके जो कोकिल कंठों से 

महक रहा सुंदर फूलों में, 

उससे ही यह विश्व सजा है 

सीख छिपी शायद शूलों में !


कोई भूला उसे न जाने 

दुःख अपने ही हाथों बोता, 

केवल निज सत्ता पहचाने 

नित दामन अश्रु से भिगोता !


स्वामी है जो सकल जहाँ का 

उसकी जय में खुद की जय है,

नाम सदा उसका ही लेना

उस संग हर कोई अजय है !


वही गगन, जल, अगन बना है वही हवा, धरती बन धारे, उसने ही यह खेल रचाया पल पल इसको वही निखारे !


हम उसके बनकर जब रहते 

सहज पुलक  में भीगा करते, 

उसकी मस्ती की गागर से  

छक-छक कर मृदु हाला पीते !


बुधवार, मई 25

अमी प्रेम का

 अमी प्रेम का 

जब बन जाता है मन 

कोरे कागज सा 

तब उकेर देता है अस्तित्त्व 

उस पर एक ऐसी इबारत 

जो पढ़ी नहीं जाती 

महसूस होती है 

हवा की तरह नामालूम सी 

सर्दियों के सूरज की मानिंद 

नर्म और गर्म 

परों सा हल्का होकर 

उड़ने लगता है 

मन का पंछी 

न ही अतीत का गट्ठर 

न भावी का डर 

अनंत की सुवास भरे 

खिलने लगता है 

 स्मृति इक जंजीर है 

 विकल्प इक आवरण 

रिक्त हुआ जब घट बासी जल से 

तब भर देता है अस्तित्व 

अमी प्रेम का सुमधुर 

एक घूँट पर्याप्त है 

उस रस स्रोत में डूबने के लिए 

कोई जाने या न जाने 

उस के भीतर भी यही 

तलाश है 

चखने की चाह जिसे 

वह जीवन प्रकाश है !


सोमवार, अप्रैल 18

चाँद बनकर

 चाँद बनकर 

मैंने चाँद बनकर धरा को देखा 

लहू से सराबोर 

लोगों को झूमते गाते देखा 

संग बहते हुए हवाओं के 

इक बूँद श्वास के लिए तरसते देखा 

अनंत रिक्तता में छा गया था वजूद मेरा 

चंद चीजों के लिए बिलखते देखा 

वह जो उड़ सकता था पल में  

जमीं से फलक तक 

धीमे-धीमे से उसे सरकते देखा 

मैं ही मालिक था चाँद तारों का 

चंद सिक्कों के लिए झगड़ते देखा 

जला सूरज सा कोई दिन-रात सदा 

भय से अंधेरों में किसी को सिसकते देखा !


रविवार, मई 2

मन निर्मल इक दर्पण हो

मन निर्मल इक दर्पण हो


लंबी गहरी श्वास भरें 

वायरस का विनाश करें, 

प्राणायाम, योग अपना 

अंतर में विश्वास धरें !


उष्ण नीर का सेवन हो 

उच्च सदा ही चिंतन हो, 

परम सत्य तक पहुँच सके  

मन निर्मल इक दर्पण हो !


खिड़की घर की रहे खुली

अधरों पर स्मित हटे नहीं, 

विषाणु से कहीं बड़ा है

साहस भीतर डटें वहीं !


नियमित हो जगना-सोना

स्वच्छ रहे घर, हर कोना, 

स्वादिष्ट, सुपाच्य आहार    

मुक्त हवा आना-जाना !


नयनों में पले विश्वास 

मन को भी न करें उदास, 

पवन, धूप, आकाश, नीर  

परम शक्ति का ही निवास !


मुक्ति का अहसास मन में 

चाहे हो पीड़ा तन में,

याद रहे पहले कितने  

फूल खिले इस जीवन में !