कविता
भला किससे है
कविता की महक और मिठास
शब्दों के सुमधुर जाल से
या भावों के सुर और ताल से
कभी ढूँढे नहीं मिलते शब्द पर
भीतर घन बन उमड़ती हैं भावनाएँ
या सागर में उठे ज्वार सी
कभी फुर्सत है शब्द गढ़ने की, तो
सूने सपाट आकाश सा तकता है मन
फिर कैसे कोई गुनगुनाए
इस मरुथल में शब्द पुष्प उगाए
कभी-कभी ही होता है मेल
सोने में सुहागे सा
जब भाव और शब्द दोनों समीप हों
काव्य की सरिता सहज बहती जाए
निज सुवास और रस से
सुहृदों को छूती जाए
जैसे अंतर को तृप्त करें
किसी के नेह भरे बोल
वैसे रख देती है दिल के द्वार खोल
कभी सुख की बरखा बन बरस जाती
कभी नयनों में सावन-भादों भर जाती
कविता जीवन का फूल है
उसकी हर अदा क़ुबूल है !