राजा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
राजा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, मई 22

राजा

राजा 


अनंत ब्रह्मांड में छोड़ दिये गये हैं 

जिसके द्वारा हम 

दिशाहीन से, उसके लिये 

हित अपना साधना है 

जहाँ लगता है 

पूरी आज़ादी है 

लेकिन एक सीमा में 

ऐसे में वही एक आश्रय है 

किसी एक को तो आगे आना होगा 

एक सम्राट की तरह 

रास्ता दिखाना होगा 

गउएँ भी हों तो 

चरवाहे की ज़रूरत है 

एक नेता जो दिशा दे 

ट्रैफ़िक चलाता सिपाही जैसे 

 कक्षा चलाता है जैसे एक शिक्षक

देश चला सकता वही

 बन सके जो रक्षक  

उसे आशीर्वचन और शुभकामनाएँ दें 

सबल हों, बल उसका बनें 

 काम हर देशवासी करे 

उसकी शक्ति बने 

तो सभी हैं सुरक्षित 

जैसे सभी अंग हों स्वस्थ 

तो बनता है व्यक्ति सबल

जो राष्ट्र को चलाता है 

आगे ले जाता है 

नई राह दिखाता है 

   दिशा देता है

जीवन ऊर्जा को

वह नायक है

उसका स्वार्थ यही है कि 

वह हमारे स्वार्थों की पूर्ति में 

सहायक है ! 


शनिवार, मई 30

जन्मदिन की कविता

जन्मदिन की कविता 


हे अनाम ! तुझे प्रणाम 
जाने किस युग में आरम्भ हुई होगी यह यात्रा 
या अनादि है यह भी तेरी तरह 
कभी पत्थर, पौधा, जलचर, नभचर या थलचर बनते-बनते 
 मिला होगा अन्ततः यह मानव तन 
फिर इस तन की यात्रा में भी 
कभी राजा, कभी रंक 
कभी स्त्री कभी पुरुष 
कभी अशिक्षित कभी विद्वान् 
अनेक धर्मों, आश्रमों, वर्णों 
में लिए होंगे जन्म 
गढ़ते-गढ़ते इतने काल से 
इतने दीर्घ कालखण्ड में 
आज जो बन गया है मन  
वह जानता है कि
अब मंजिल निकट है 
देख लिए सारे खेल 
देख ली तेरी माया 
यकीनन इसने बहुत लुभाया 
नाजुक रिश्तों के मजबूत बन्धनों में बाँधा 
सुख-दुःख के हाथों से बहुत राँधा
अहंकार की भट्टी में तपाया 
कल्पनाओं के झूले में झुलाया 
पर अब जाकर तेरा मर्म कुछ-कुछ समझ में आने लगा है 
अब खत्म हुई यह दौड़ 
अब घर याद आने लगा है 
जन्म-मृत्यु के इस चक्र से जब कोई छूट जाता है 
फिर जब मौज होगी तो फिर आता है 
पर तब कैदी नहीं होता प्रारब्ध का 
तेरी तरह बस
 मुस्कानें बिखेरता और गीत गाता है !

मंगलवार, फ़रवरी 28

कब आँखें उस ओर मुड़ेगीं


कब आँखें उस ओर मुड़ेगीं

पानी मथता है संसार
बाहर ढूँढ रहा है प्यार,
फूल ढूँढने निकला खुशबू
मानव ढूँढे जग में सार !

राजा भी यहाँ लगे भिखारी
नेता भी पीछे ही चलता,
सबने गाड़े अपने खेमे
बंदर बाँट का खेल है चलता !

सही गलत का भेद खो रहा
लक्ष्मण रेखा मिटी कभी की.
मूल्यों की कोई बात न करता
गहरी नींद न टूटे जग की !

जरा जाग कर देखे कोई  
कंकर जोड़े, हीरे त्यागे,
व्यर्थ दौड़ में बही ऊर्जा
पहुँचे कहीं न वर्षों भागे !

सत्य चहुँ ओर बिखरा है
आँखें मूंदे उससे रहता,
भिक्षु मन कभी तृप्त न होता
अहंकार किस बूते करता !

हर क्षण लेकिन भीतर कोई
बैठा ही है पलक बिछाये,
कब आँखें उस ओर मुड़ेगीं
जाने कब वह शुभ दिन आये !


शुक्रवार, अप्रैल 22

कैसा यह गोरख धंधा है


कैसा यह गोरख धंधा है

शासन में गोरख धंधा है
हर कोई मांगे चंदा है,
"ए राजा’ को महल दिया
रोटी को तरसे बंदा है I

यहाँ पैसे वाले एक हुए
धन के बल पर नेक हुए,
मिलजुल कर सब मौज उड़ाते
शर्म बेच कर फेक हुए I

हड़प लिये करोड़ों गप से
जरा डकार नहीं लेते,  
अरबों तक जा पहुंची बोली
बस बेचे देश को देते I  

है जनता भोली विश्वासी  
थोड़े में ही संतोष करे
सौंप दी किस्मत जिन हाथों में
वे सारे अपनी जेब भरें I

सदा यही होता है आया
कुछ खट-खट कर श्रम करते
कुछ शातिर बन जाते शासक
बस पैसों में खेला करते I

जागें अब भी कुछ तो सोचें
अपनी किस्मत खुद ही बदलें
जेल ही जिनका असली घर है
ऐसे राजाओं से बच निकलें I

अनिता निहालानी
२२ अप्रैल २०११