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मंगलवार, अक्टूबर 25

दिवाली की अगली भोर

दिवाली की अगली भोर 


सूर्य ग्रहण लगने वाला है 

किंतु अभी है शेष  उजाला 

उन दीयों का 

जो बाले थे बीती रात 

जगमग हुईं थी राहें सारी 

गली-गली, हर कोना भू का 

चमक उठा था जिनकी प्रभा से 

ज्योति प्रेम की झलक रही थी 

आशा व विश्वास जगाती 

नयी भोर का 

भर लें मन में नीर कृपा का 

देवी माँ का उजला मुखड़ा

उठा वरद हस्त गणपति का 

कान्हा की मोहक मुस्कान 

हर आँगन में देव उतरते

सँग मानव के क्रीड़ा करते 

विमल प्रेम, उल्लास धरा पर 

युग-युग से लाते 

वे ही चमक हैं भारत माँ की 

देवों के सँग बातें दिल की 

गुरू ज्ञान भी 

अंधकार हर रहे मिटाता 

एक वर्ष फिर करें प्रतीक्षा 

युग-युग से यह पर्व अनोखा 

भर उमंग नव राह दिखाता !




शुक्रवार, नवंबर 5

रहें सदा दिल मिले हमारे

रहें सदा दिल मिले हमारे

ज्योति जले ज्यों हर घर-बाहर 

गलियाँ , सड़कें, छत, चौबारे, 

मन में प्रज्ज्वलित स्नेह प्रकाश 

रहें सदा दिल मिले हमारे !

 

घर-आँगन ज्यों स्वच्छ दमकते 

कोना-कोना हुआ उजागर, 

रिश्तों की यह मधुरिम डाली 

निर्मल भावों से हो भासित !

 

सुस्वादु पकवानों की जहाँ 

मीठी-मीठी गंध लुभाती, 

आत्मीयता, अपनेपन की 

धारा अविरल बहे सुहाती !

 

दीवाली का पर्व अनोखा 

दीप, मिठाई, फुलझड़ियों का, 

ले आता है पीछे-पीछे 

सुखद उत्सव भाई दूज का !

 

तिलक भाल पर हँसी अधर पर 

यह भंगिमा बहन को भाए, 

दुआ सदा यह दिल से निकले

सुख-समृद्धि, स्वास्थ्य सदा पाएँ !


बुधवार, नवंबर 3

जब अंतरदीप नहीं बाले




जब अंतरदीप नहीं बाले

पूर्ण हुआ वनवास राम का, 
सँग सीता के लौट रहे हैं
 हुआ अचंभा देख लखन को , 
द्वार अवध के नहीं खुले हैं !

अब क्योंकर उत्सव यह होगा, 
दीपमालिका नृत्य करेगी,
रात अमावस की जब दमके, 
मंगल बन्दनवार सजेगी  ! 

हमने भी तो द्वार दिलों के, 
कर दिये बंद ताले डाले
राम हमारे निर्वासित हैं,
जब अंतरदीप नहीं बाले !

राम विवेक, प्रीत सीता है, 
दोनों का कोई मोल नहीं
शोर, धुआँ ही नहीं दिवाली, 
जब सच का कोई बोल नहीं !

धूम-धड़ाका, जुआ, तमाशा, 
देव संस्कृति का हो अपमान,
पीड़ित, दूषित वातावरण है 
उत्सव का न किया सम्मान !

जलें दीप जगमग हर मग हो, 
अव्यक्त ईश का भान रहे,
मधुर भोज, पकवान परोसें
 मन अंतर में रसधार बहे !

सोमवार, नवंबर 1

आयी जगमग दीवाली



पूर्ण हुआ वनवास राम का
सँग सीता के लौट रहे हैं,
अचरज हुआ लक्ष्मण को लख
द्वार अवध के नहीं खुले हैं !

अब क्योंकर उत्सव यह हो
दीपमालिका नृत्य करे,
रात अमावस की दमके  
मंगल, बन्दनवार सजे !

हमने भी तो द्वार दिलों के
कर दिये बंद ताले डाले
राम हमारे निर्वासित हैं
पर अंतरदीप नहीं बाले !

राम विवेक, प्रीत सीता है
दोनों का तो मोल नहीं,
शोर, धुआँ ही नहीं दीवाली
उल्लास का कोई बोल नहीं !

धूम-धड़ाका, जुआ, तमाशा
उत्सव का नहीं करें सम्मान  
पीड़ित, दूषित वातावरण है
 देव संस्कृति का अपमान !

जलें दीप जगमग हर मग हो
अव्यक्त ईश का भान रहे
मधुर भोज, पकवान परोसें
मनअंतर में रसधार बहे !