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बुधवार, मार्च 6

अपना-अपना स्वप्न देखते

अपना-अपना स्वप्न देखते 


एक चक्र सम सारा जीवन 

जन्म-मरण पर जो अवलंबित,

एक ऊर्जा अवनरत  स्पंदित 

अविचल, निर्मल सदा अखंडित ! 


एक बिंदु से शुरू हुआ था 

वहीं लौट कर फिर जाता है, 

किन्तु पुनः पाकर नव जीवन

नए कलेवर में आता है ! 


पंछी, मौसम, जीव सभी तो 

इसी चक्र से बँधे हुए हैं , 

अपना-अपना स्वप्न देखते 

नयन सभी के मुँदे  हुए हैं !


हुई शाम तो लगीं अजानें  

घंटनाद कहीं जलता धूप  ,

कहीं आरती, वन्दन, अर्चन 

कहीं सजा महा सुंदर रूप !


एक दिवस अब खो जायेगा 

समा काल के भीषण मुख में, 

कभी लौट कर न आयेगा 

बीता चाहे सुख में दुःख में ! 


एक रात्रि होगी अन्तिम भी 

तन का दीपक बुझा जा रहा, 

यही गगन तब भी तो होगा 

पल-पल करते समय जा रहा !


सोमवार, मार्च 4

पराधीनता

पराधीनता 


उस दिन वह बहुत रोयी थी, आँगन में बैठकर ज़ोर से आवाज़ निकालते हुए, जैसे कोई उसका दिल चीर कर ले जा रहा हो। शायद उसकी चीख में उन तमाम औरतों की आवाज़ भी मिली हुई थी जिन्हें सदियों से दबाया जाता रहा था। उनकी माएँ, दादियाँ, परदादियाँ और जानी-अनजानी दूर देशों की वे औरतें, जिन्हें अपने सपनों को जीने का हक़ नहीं दिया जाता है। उसने जिस पर इतना भरोसा किया था, जिसे अपना सर्वस्व माना था, जिसे ख़ुद को भुलाकर, टूटकर प्यार किया था। उसकी एक बात उसे किस कदर चुभ गई थी। जब उसने कहा था, यदि उसने उसकी इच्छा के विरुद्ध घर से बाहर कदम रखा तो वह उसे छोड़ कर चला जाएगा, इतना सुनते ही जैसे उसके सोचने समझने की शक्ति ही जाती रही थी। उसने यह भी नहीं सोचा, उसकी नौकरी है, घर है, बच्चा है, वह कैसे जा सकता है ? ये शब्द उसके मुख से निकले ही कैसे, बस यही बात उसे तीर की तरह चुभ रही थी।वह उसे चुप कराने भी आया, पर दर्द इतना बड़ा था कि समय ही उसका मलहम बन सकता था। कुछ देर बाद ही वह अपने आप ही शांत हो गई थी, उसके मन ने एक निर्णय ले लिया था, जैसे वह उसे छोड़ने की बात सोच सकता था, तो उसे भी अपना आश्रय कहीं और खोजना होगा, ईश्वर के अतिरिक्त कोई उसका आश्रय नहीं बन सकता था। शाम तक मन शांत हो गया और अगके दिन तक वह सामान्य भी हो गई थी, पर भीतर बहुत कुछ बदल चुका था। वह जो आँख बंद करके उसके पीछे चली जा रही थी, नियति ने उसे जैसे चौंका दिया था। उस दिन के बाद वह अपने भीतर देखने लगी, जहॉं मोह के जाल बहुत घने थे, जिन्हें उसे काटना था। उसने मन ही मन कहा, आज से मैंने भी तुम्हें मुक्त किया।पहले वह उसकी एक क्षण की चुप्पी से घबरा जाती थी, जैसे उसकी जान उसमें अटकी थी। अब उसे अपने पैरों पर खड़ा होना था, ये पैर बाहर नहीं थे, मन में थे।मन जो पहले उसका इतना आश्रित बन चुका था, उसे स्वयं पर निर्भर करना था। कोई भी संबंध तभी दुख का कारण बनता है जब दो में से कोई एक हद से ज़्यादा दूसरे पर आश्रित हो। वह जैसे उसकी आँख़ों से जगत को देखती आयी थी। उसकी अपनी कोई पहचान ही नहीं थी। उसका एकमात्र काम था, उसके इशारों पर चलना, और यह भूमिका उसने ख़ुद चुनी थी, अपने पूरे होश-हवास में, वह इसे प्रेम की पराकाष्ठा समझती थी। पर अब सब कुछ बदल रहा था, आज सोचती है तो उसे लगता है, उस दिन का वह रुदन उसके नये जीवन का हास्य बनाकर आया था। अब वह उसके बिना भी मुस्कुराना सीखने लगी थी। उनके मध्य कोई कटुता नहीं थी, शायद संबंध परिपक्व हो रहे थे। शायद वे बड़े हो रहे थे। अपनी ख़ुशी के लिए किसी और पर निर्भर रहना उसकी पराधीनता स्वीकारना ही तो है। इसे प्रेम का नाम देना कितनी बड़ी ग़लतफ़हमी है। उसने यह बात सीख ली थी और अब अपने लिए छोटे-छोटे ही सही कुछ निर्णय ख़ुद लेना सीख रही थी।   


बुधवार, सितंबर 13

दूर और पास

दूर और पास 


वे साथ रह सकते थे 

पर रहते नहीं थे 

क्योंकि उनके दिल साथ थे 

हो सकता है 

साथ रहने पर दूर हो जाते दिल से 

वे दू….र थे इसलिए.. निकट थे 

यदि आ जाते निकट 

तो शायद…..

क्योंकि यदि दिन के बाद 

रात कभी न भी आये 

तो भी हर रात के बाद 

दिन अवश्य आता है 

धरा से दूर है चंदा 

इसलिए उसके चक्कर लगाता है ! 


सोमवार, सितंबर 11

धारा इक विश्वास की बहे

धारा इक विश्वास की बहे

बुना हुआ है दो धागों से  

ताना-बाना इस जीवन का, 

इक आनंद-प्रेम का वाहक 

दूजा, जंगल है यादों का !


दोनों हैं दिन-रात की तरह 

 पुष्प गुच्छ हों गुँथे हुए ज्यों, 

किसके हो लें, किससे पोषित 

यह चुनाव करना है दिल को !


तज दे सारे दुख, भय, विभ्रम 

मुक्त गगन में विहरे खग सा, 

मन को यह निर्णय करना है 

जंजीरों से बंधा रहे या ! 


जहाँ न कोई दूजा, केवल 

धारा इक विश्वास की बहे,

सुरति निरंतर वहीं हृदय की 

कल-कल स्वर में सहज ही कहे !


वही ज्ञेय है, लक्ष्य भी वही 

जहाँ हो रहा नित्य ही मिलन,

प्रीति-सुख से मिले प्रज्ञा जब 

शिव-गिरिजा का होता नर्तन !


बुधवार, अगस्त 23

चन्द्रयान तीन

चन्द्रयान तीन 

चन्द्रयान ने जोड़ दिया है 

भारत को फिर एक बार 

मंदिर-मंदिर और घर घर 

चढ़ा रहे हैं लोग भगवान को माला-हार 

इस बार विक्रम को सफलता मिले 

इसकी माँग रहे हैं मन्नतें 

वैज्ञानिकों ने वर्षों तक बहाया है स्वेद 

और खोयी है रातों की नींद 

उसका उन्हें फल मिले 

यह यान भारत के मस्तक पर चाँद सा टीका है 

दुनिया में उसे मिलेगा सम्मान 

उससे भी बढ़कर दुनिया को लाभ मिले 

यह उसका एक तरीक़ा है

सुबह से टीवी पर एंकर समझा रहे हैं 

सॉफ्ट मून लैंडिग के ग्राफ़ दिखा रहे हैं 

हरेक का मन उत्सुकता से भरा है 

कब आएगा वह पल 

जिसके लिए सदियों से 

मानव ने इंतज़ार किया है 

एक दिन चाँद पर बनेगी मानव बस्ती 

उसकी बुनियाद शायद आज ही रखी जाये 

पानी है या नहीं वहाँ 

इसकी पड़ताल की जाये 

विक्रम भारत का है 

भारत सबका है 

क्योंकि 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का मंत्र 

यहीं से गाया गया है 

चंद्रमा को शिव के मस्तक पर 

यहीं तो बैठाया गया है ! 




शुक्रवार, अगस्त 18

वर्तमान भविष्य के हाथों में

वर्तमान भविष्य के हाथों में

नवजात शिशु की पकड़ भी 

कितनी मज़बूत है 

मुट्ठी में अंगुली थमाकर देखती है माँ   

 जकड़ लेता है 

दृढ़ता से

मुस्कान थिर है 

नींद में भी उसकी

माँ को लगता है 

जैसे वर्तमान ने 

भविष्य के हाथों में 

स्वयं को सौंप दिया हो ! 


शनिवार, अप्रैल 16

पुष्प बिखेरे सुरभि सुवासित


पुष्प बिखेरे सुरभि सुवासित

ओस की मोती जैसी बूंदें
सजा गयी हैं कोमल तन को,
सद्यस्नात पुष्प अति मनहर
भा जाता हर निर्मल मन को !

खिलकर कृत-कृत्य हो जाता
तप करता है वह मिटकर,
चढ़ जाता है उन चरणों पर
हो जाता अर्पित वह हंसकर !

अंतर हरा-भरा हो जाता
खुशियों की फसल लहराए,
पुष्प बिखेरे सुरभि सुवासित
जग को अपना आप चढ़ाए !

चलता-फिरता देवालय है  
अति पावन एक शिवालय है,
बहती प्रेम की गंगा जिससे
यह ऐसा एक हिमालय है !

अनिता निहालानी
१६ अप्रैल २०११

शुक्रवार, फ़रवरी 4

आया वसंत





आया वसंत

नव वसंत की नई भोर का
तन-मन में जागी हिलोर का
उल्लसित हो करें स्वागत !

नयी प्रीत हो नयी रीत हो
नव ऊर्जा से रचा गीत हो,
नया जोश हो नव उमंग हो
हर दिल में छायी तरंग हो !

मधुमास के नए प्रातः का
नए तराने नयी बात का
हर्षित हो करें स्वागत !

नए इरादे नए कायदे
इस वसंत में नए वायदे,
नए रास्ते नयी मंजिलें
नव ऋतु में नए सिलसिले !

नव बहार की नई सुबह का
नई मित्रता नई सुलह का
प्रफ्फुलित हो करें स्वागत !

अनिता निहालानी
४ फरवरी २०११
 


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सोमवार, दिसंबर 13

ज्योति बरसती पावन घन की

ज्योति बरसती पावन घन की

क्यों पीड़ा के बीज बो रहे,

मन की इस उर्वर माटी में,

खुद सीमा में कैद हो रहे

जीवन की गहरी घाटी में !


अंकुर फूटा जिस पल दुख का,

क्यों विनष्ट किया न, हो सचेत ?

झूठे अहंकार के कारण

क्यों जला दिया न, रहे अचेत ?


पनप रहा अब वृक्ष विषैला,

सुख-दुःख फलों  से भरा हुआ,

क्यों छलना से ग्रसित रहा मन

कैसे न कटा जब समय रहा I


केवल एक अटूट जागरण

दूर करेगा पीड़ा मन की,

दरिया से गहरे अंतर में

ज्योति बरसती पावन घन की !


ख़ुद के भीतर गहन गुफाएँ

छिपा हुआ जल स्रोत है जहाँ,

प्यास बुझाता जो अनंत की

ऐसा पावन मधु स्रोत वहाँ !




अनिता निहालानी
१३ दिसंबर २०१०

गुरुवार, दिसंबर 9

रिश्ता इन दोनों में क्या है

 
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रिश्ता इन दोनों में क्या है

सुंदर यह जग, है अति सुंदर
कुदरत का हर रूप मनोहर,
सुंदरतम पर एक चितेरा
प्रीत सुरभि का पुंज घनेरा !

थम मत जायें बाहर-बाहर
एक बार तो झाँकें भीतर,
कब टूटेगा जीवन का क्रम
साथ-साथ मिटे मृत्यु का भ्रम !

आना-जाना,हँसना-रोना
मरना-जीना, पाना-खोना,
कैसा अद्भुत महाजाल है
मनमोहनी उसकी चाल है !

भीतर राज गुह्यतम बसते
एक वृक्ष पर दोनों रहते,
तोड़ आवरण जानें क्या है
रिश्ता इन दोनों में क्या है ?

अनिता निहालानी
०९ दिसंबर २०१०

सोमवार, नवंबर 22

वह आता है

वह आता है

जब सब कुछ
दे डालो उसको !

मन का नेह
प्रीत अंतर की,
प्यार हृदय का!

बिना चाह के,
तब वह धीरे से
आता है!

दे जाता है
प्रेम निधि,
अमोल रिधि,
सहज विधि!

बिना कहे कुछ  

श्वास श्वास में
तन में, मन में
कण-कण, पोर-पोर
जीवन में !

नयनों में
मीठे बैनों में
अतल आत्मा के
गह्वर में !

जल में, थल में
वसुधा तल में !

एक वही तो
डोल रहा है
पट भीतर के
खोल रहा है !

अनिता निहालानी
२२ नवम्बर २०१०





शनिवार, नवंबर 6

उत्सव के बाद

उत्सव के बाद


रह-रह कर मस्ती की गागर

जाने किसने भीतर फोड़ी,

अनजानी सी कुछ अनछूई

खुशियों की चादर है ओढ़ी !


नेह पगा मन टपकाए जो

रस की मधुरिम धार नशीली,

बिन कारण अधरों पर अंकित

कोमल सी मुस्कान रसीली !


स्मृतियाँ नहीं स्वप्न ही कोई

भीतर एक खाली आकाश,

उसी शून्य से झर झर झरता

मदमाता शुभ स्नेहिल प्रकाश !


कदमों में थिरकन भर जाता

हाथों में क्षमता वह अभिनव,

नयनों में जल प्रीत है भरा

मन अंतर में उल्लास प्रणव !


गुनगुन करता कोई विचरे

चिर चिन्मय का गान गूंजता,

तार जुड़ें जब हों अदृश्य से

ध्यान बिना साधे है लगता  !


उत्सव के उजास में डूबा

जाने कौन पाहुना आया,

मन जब अपने घर को लौटा

चैन जहाँ भर का फिर पाया !


अनिता निहालानी
६ नवम्बर २०१०