रविवार, नवंबर 29

कोई एक

 कोई एक 

युगों-युगों से बह रही है 

मानवता की अनवरत धारा 

उत्थान -पतन, युध्द और शांति के तटों पर 

रुकती, बढ़ती 

शक्तिशाली और भीरु 

समर्थ और वंचित को ले  

आह्लाद और भय का सृजन करती 

विशालकाय और सूक्ष्मतम 

दोनों को आश्रय देती सदा 

कोई एक इस धार से छिटक 

तट पर आ खड़ा होता है 

विचार की शैवाल से पृथक कर खुद 

मान्यताओं और पूर्वाग्रहों के 

भँवर से निकल 

मोतियों का मोह त्यागे 

नितांत एकाकी सूने तट पर 

देखता है बड़ी मछलियों से भयभीत हैं छोटी 

देखता है वही दोहराते हुए 

जगत पुनःपुनः निर्मित होते औ' नष्ट होते 

आवागमन के इस चक्र से वह बाहर है !


गुरुवार, नवंबर 26

आहट

आहट

अनजाने रस्तों से

कोई आहट आती है

बुलाती है सहलाती सी लगती

कौतूहल से भर जाती है

जाने किस लोक से

भर जाती आलोक से

मुदित बन जाती है

सुधियाँ जगाती

कौन जाने है किसकी

आँख पर रहे ठिठकी

शायद कुछ राज खुले

स्वयं न बताती

फिजाओं में घुल जाती है

सुनी सी पर अजानी भी

भेद क्यों न खोलती

जाने क्या कहती वह

 क्या गीत गुनगुनाती है 

बुधवार, नवंबर 25

जीवन क्या है ?

 जीवन क्या है ?

स्थूल से सूक्ष्म तक जाने की यात्रा

अथवा ज्ञात से अज्ञात को 

दृश्य से अदृश्य को पकड़ने की चाह

रूप के पीछे अरूप

ध्वनि के पीछे मौन को जानने का प्रयास !

या पीड़ा के पीछे आनंद

 सुख के पीछे दुख

 संयोग के पीछे वियोग

 शिखर के साथ खाई  

 गगन के साथ सागर की अतल गहराई में उठना और गिरना ?

अथवा

अधर में लटकते ग्रह-नक्षत्र और पृथ्वी को देख

जानना यह सत्य

कहाँ गहराई कौन सी ऊँचाई

कौन आगे कौन पीछे 

सब कुछ वृत्ताकार है जहाँ

न आदि न अंत 

घड़ी भर पहले जो सुख था अब दुःख है 

एक में दूसरा छिपा है साथ-साथ 

सब कुछ मात्र है 

जाने कब से और  रहेगा जाने कब तक

सम्भवतः यही जीवन है ! 


मंगलवार, नवंबर 24

स्वामी-दास

स्वामी-दास

 

कोई स्वामी है कोई दास

 है अपनी-अपनी फितरत की बात

किसका ? यह है वक्त का तकाजा  

स्वामी माया का चैन की नींद सोता

 क्षीर सागर में भी

सर्पों की शैया पर !

 गुलाम वातानुकूलित कक्ष में

 करवटें बदलता है

मखमली गद्दों पर !

मन का मालिक शीत, घाम

सहज ही बिताता है

गुलाम हड्डियाँ कंपाता,

कभी पसीने से अकुलाता है

स्वामी है जो स्वाद का

 दाल-रोटी खाकर भी

 गीत गुनगुनाता है

भोजन का दास

 पाचक खाकर ही निगल पाता है

हर पल उत्सव मनाए स्वामी

दास बेबात मुँह फुलाता है

हजार उपाय करता

गम भुलाने के वह

फिर एक न एक दिन

शरण में स्वामी की आ ही जाता है !

 


सोमवार, नवंबर 23

आदमी

आदमी



 कली क्या करती है फूल बनने के लिए

विशालकाय हाथी ने क्या किया

निज आकार हेतु

व्हेल तैरती है जल में टनों भार लिए

वृक्ष छूने लगते हैं गगन अनायास

आदमी क्यों बौना हुआ है

शांति का झण्डा उठाए

युद्ध की रणभेरी बजाता है

न्याय पर आसीन हुआ

अन्याय को पोषित करता है

अन्न से भरे हैं भंडार चूहों के लिए

भूखों को मरने देता है

पूरब पश्चिम और पश्चिम पूरब की तरफ भागता है

शब्दों का मरहम बन सकता था

 उन्हें हथियार बनाता है

एक मन को अपने ही

 दूसरे मन से लड़वाता है

लहूलुहान होता फिर भी देख नहीं पाता है

यह अनंत साम्राज्य जिसका है

वह बिना कुछ किए ही कैसे विराट हुआ जाता है !

शनिवार, नवंबर 21

देखे वह अव्यक्त छिपा जो


देखे वह अव्यक्त छिपा जो

कंकर-कंकर में है शंकर 

अणु-अणु में बसते महाविष्णु, 

ब्रह्म व्याप्त ब्राह्मी सृष्टि में 

क्यों भयभीत कर रहा विषाणु !


वास यहाँ जर्रे-जर्रे में 

अलख निरंजन वासुदेव का, 

इस धरती पर जटा बिखेरे 

गंगा धारी महादेव का !


मन में हो विश्वास घना जब 

देखे वह अव्यक्त छिपा जो, 

अपरा-परा शक्तियां उसकी 

 कहा स्पष्ट कान्हा ने जिसको !


जिसने रचा खेल यह सारा 

कैसे वह अनभिज्ञ रहेगा,

उसके ही हम बनें खिलाड़ी 

जग यह सारा खेल लगेगा ! 

 

शुक्रवार, नवंबर 20

प्रेम से कोई उर न खाली

 


प्रेम से कोई उर न खाली
 

एक बूंद ही प्रेम अमी की

जीवन को रसमय कर देती,

एक दृष्टि  आत्मीयता की

अंतस को सुख से भर देती !

 

प्रेम जीतता आया तबसे

जगती नजर नहीं आती थी,

एक तत्व ही था निजता में

किन्तु शून्यता ना भाती थी !

 

 स्वयं शिव से ही प्रकटी  शक्ति 

प्रीति बही थी दोनों ओर,

वह दिन और आज का दिन है

बाँधे कण-कण प्रेम की डोर !

 

हुए एक से दो थे जो तब

 एक पुन: वे  होना चाहते, 

दूरी नहीं सुहाती पल भर

प्रिय से कौन न मिलन मांगते !

 

खग, थलचर या कीट, पुष्प हों

प्रेम से कोई उर न खाली,

मानव के अंतर ने जाने

कितनी प्रेम सुधा पी डाली !

 

करूणा प्रेम स्नेह वात्सल्य

ढाई आखर सभी पढ़ रहे,  

अहंकार की क्या हस्ती फिर

प्रेमिल दरिया जहाँ बह रहे !   

गुरुवार, नवंबर 19

ढाई आखर प्रेम के

ढाई आखर प्रेम के


‘प’ से परस स्नेह भरा

आश्वस्त करता हुआ

भीतर की सारी शुभता को

प्रियतम में भरता हुआ

परख ले जो अंतर की अकुलाहट

पनपा दे अनायास ही मुस्कुराहट !

 

‘र’ से रमा हो कण-कण में अस्तित्व के

रमणीय हो उसके अपनेपन की आभा !

 

‘ए’ से एक की ही याद दिलाता

सारा द्वैत इक पल में मिट जाता !

 

‘म’ से माँ की तरह समेट ले विशाल हृदय में

मधुर बन पूर्ण करे हर अभाव प्रियस्पद का !

 

ऐसा निश्चछल प्रेम ही हर मन की आस है

जिसकी स्मृति ही भर देती जीवन में उजास है !

 

‘प’ से जब पाना ही होता है लक्ष्य

‘र’ बन जाता है रौरव

एषणायें जगाता

ममता की बेड़ियों में जकड़ा

प्रेम मुक्त नहीं करता

पीड़ा के फूल ही अंचल में भरता ! 

मंगलवार, नवंबर 17

खत

खत 

किसी सूनी शाम को 

हथेलियों पर ठोड़ी टिकाये 

लिखने वाली मेज पर बैठे 

कोई बात फड़फड़ायी होगी तुम्हारे मन में 

लिखो फिर काट दो 

तकते रहो  निरुद्देश्य दीवार को 

अपनी आवाज को 

सुनने का प्रयत्न करते 

आँखों से दो कतरे शबनम के ढुलक कर 

बैठ गए होंगे कापी पर

कैसा सम्बोधन  ! अनोखा भीगा सम्बोधन 

अभिवादन के लिए सारा शब्दकोश 

ढूंढ आया होगा तुम्हारा मस्तिष्क 

कि बाहर से अकेले पक्षी की 

हूक सिमट आयी होगी कमरे में 

.. उस कागज में 

और एक लिफाफा तैयार !  

 

सोमवार, नवंबर 16

परिचित जो अंतर पनघट से

परिचित जो अंतर पनघट से

जग जैसा है बस वैसा है

हर नजर बताती कैसा है

 

कोई इक बाजार समझता

कोई खालिस प्यार समझता

विकट किसी को सागर जैसा

कोई धारे गागर जैसा

 

जग तो अपनी राह चल रहा

नादां मन स्वयं को छल रहा

 

कोई फूलों को चुन लेता

दूजा काँटों को बुन लेता

ताज बनाकर सिर पर पहने

आँसू बहा तुष्टि भर लेता

 

जग में दानव रहते आए

देव बहिष्कृत होते आए

 

देवों को इक सबल बनाता

दूजा रह विरक्त छुप जाता

जगत किसी को बंधन जैसा 

कोई निशदिन गीत सुनाता

 

वही पार उतरा इस तट से

परिचित जो अंतर पनघट से

 

जग की चिंता कौन करे अब

जगपति की वह शरण गहे जब

न बदला है न बदलेगा यह

बुद्ध, कबीर, नानक कहें सब   

गुरुवार, नवंबर 12

लो फिर आयी विमल दीवाली

 लो फिर आयी विमल दीवाली 

जगमग दीप जले पंक्ति में 

बन्दनवार लगे हर द्वारे 

सजी दिवाली महके जन पथ 

तोरण सजे गली चौबारे 

उठी सुगन्ध गुजिया, मोदक की 

वस्त्र नए देहों पर सरसर

लगी झालरें जली बत्तियां 

थाल सजे पूजा के मनहर 

सजे विनयाक, धान्य लक्ष्मी 

राग जगाती सुख बरसाती 

लो फिर आयी विमल दीवाली 

स्वच्छ हुए सबके घर आंगन 

भर उमंग से चहके सब मन 

कोमल भाव भरे अंतर में 

निकले बाल, युवा, सजधज कर 

नहीं अभाव सताता कोई 

देने का संकल्प जगा है 

दूर हुआ अँधियारा सारा 

रससिक्त हर भाव पगा है 

सुख की लहर उठी सागर में 

पावन पवन देवता बहते

दिग-दिगन्त में करुणा बसती

सूर्यदेव भी सुखमय लगते 

ऋतु मोहक माह शरद कार्तिक 

हरा रोग आरोग्य सफल है 

भारत भू का पर्व अनोखा 

ज्योतिपर्व यह अति मंगल है !


बुधवार, नवंबर 11

कुछ ख्याल


कुछ ख्याल 


 हजार राहे हैं जिनसे गुजर के तू मिलता है 
किसी बाग में कमल कभी गुलाब बना खिलता है 

हरेक मुट्ठी में कैद है एक आसमां अपना 
जब जो ख्वाहिश करेगा चाँद उस पल निकलता है 

एक रस्ता पकड़ ले और चलता चले उसी पर 
क्यों निगाहों को बिखेरे दिलेदर्द पिघलता है 

हजार नदियां गुजर कर जहाँ भी पहुँचें
समंदर एक ही हरेक को मिलता है 

क्यों कशमकश में दिनों तक लम्हे गुजरते हैं 
वक्त के पार ही वह जांनिसार मिलता है 

थम जाये मन की दौड़ जिस पल किसी की कहीं
खुले वह द्वार जो उसके दर पे निकलता है 

गौर से देखा है कभी मन को समझा भी 
इन्हीं के पानियों में उसका कमल खिलता है 

मंगलवार, नवंबर 10

निकट समंदर बहता जाता

निकट समंदर बहता जाता


जाग-जाग कर फिर सो जाता

नींदों में मन स्वप्न दिखाता,

रंग-रूप-रस-गंध खान में 

निज आनंद छुपा रह जाता !

 

घूँट- घूँट भर तृप्त हो रहा

निकट समंदर बहता जाता,

मुक्त गगन की याद न आए

पिंजरे में ही दौड़ लगाता !

 

कैसा भूला भ्रम में खुद को

वंचित हुआ स्वर्ग के सुख से,

इंद्रधनुष को सत्य मानकर

चला उसे है धारण करने !

 

ज्यों सीप में चांदी का भ्रम

मृग मरीचिका मरुथल में है,

पानी मथने में नहीं सार

कहाँ कूप में गंगाजल है !

 

अनजाने दुख धूम्र उठाते

ज्योति ज्ञान की बुझ-बुझ जाती,

एक ही माँ के जाए दोनों

देख-देख कोई मुस्काता !