शुक्रवार, अप्रैल 29

निज विलास में खोयी थी जो

निज विलास में खोयी थी जो

जग जब मुझमें ही बसता है 

क्या पाना क्या खोना इसका,

 युग बीतें जब इक पल में ही

मिलना और बिछड़ना किसका !


 पल-पल में घटता है दर्शन

पट पर दृश्य बदलता जाता, 

द्रष्टा छुपा हुआ दर्शन में 

एक तत्व ही बस रह जाता !


अबदल अचल अगोचर कोई 

मायामय नूतन रूप धरे, 

नित निरभ्र अनंत अंबर सा 

बदली बन उर जिसमें विचरे !


छाने लगी सघन नीरवता 

गहन गुफा में सोयी थी जो, 

आना-जाना मिटा गयी है 

निज विलास में खोयी थी जो !


महक भरी जर्रे-जर्रे में 

उसी एक चेतन प्रज्ञा की, 

कब पत्ता भी हिला उस बिना 

आधार वही हर संज्ञा की !





बुधवार, अप्रैल 27

फ़लसफ़ा ज़िंदगी का



फ़लसफ़ा ज़िंदगी का


कभी सुकून कभी बेताबी बन कर छा गया 

वह क्या था जो अक्सर इस दिल को भरमा गया 


पहरों बैठ कर सुलझाये थे सवाल जिसके 

वह दिलेफूल तो इक पल में ही मुरझा गया 


सही था ग़लत मान बैठे थे जिसको कब से 

फ़लसफ़ा ज़िंदगी का इक बच्चा समझा गया 


कभी तन्हा तो कभी सजी महफ़िलें संग-संग 

इस उड़नखटोले पर भला कौन बैठा गया 


अंधेरे बढ़ गए दुनिया में यकीं जब हुआ 

कौन चुपचाप आके दिल को फिर सहला गया 


हारा सच जीत झूठ की हुई होगी जग में 

सच का बिरवा ख़ुदा फिर से मन में लगा गया 


सोमवार, अप्रैल 25

तीन विचार


तीन विचार

अब 

मंदिर तोड़े गए 

पुस्तकालय जलाए गए 

अधिकारों से वंचित किया गया 

मारा गया 

कठोरता की सीमाएँ लांघी गयीं 

ग़ुलाम बनाया गया, बेचा गया 

अब बहुत हुआ, अब और नहीं 

अब परिवर्तन अवश्यंभावी है !


मन 

शिकायतों का पुलिंदा बना अगर मन 

अपनी बस अपनी ही चलाए जाता, 

चीजें जैसी हैं वैसी कहाँ देखे 

महज ज़िद का मुलम्मा चढ़ाए जाता !


छिपा इश्क का समुंदर गहराई में

न भीगे खुद उसमें न जग को डुबाए, 

बना महरूम अपने ही ख़ज़ानों से 

अपने ही हाथों से खुद को सताए  !


परिवार 


दो में होता है प्यार 

पर तीन से बनता है परिवार 

दो बिंदु जुड़ते हैं

तो एक पंक्ति का जन्म होता है 

पर तीसरा बिंदु बना सकता है वृत्त 

जिसमें भ्रमण करती है  ऊर्जा 

माता-पिता और संतान के प्रेम की  

पिता देता है असीम प्रेम माँ को

संतान माँ के वात्सल्य से सिंचित होती है 

और देती है सारा निर्दोष प्रेम पिता को 

और इस तरह एक वलय में घूमता है स्नेह 

प्रीत का जो वृक्ष लगाया था युगों पूर्व 

शिव और पार्वती ने 

उसकी शाखाएँ आज भी पल्लवित हो रही हैं  ! 


गुरुवार, अप्रैल 21

कविता

 कविता 

भला किससे है 

कविता की महक और मिठास 

शब्दों के सुमधुर जाल से 

या भावों के सुर और ताल से 

कभी ढूँढे नहीं मिलते शब्द पर 

भीतर घन बन उमड़ती हैं भावनाएँ 

या सागर में उठे ज्वार सी 

कभी फुर्सत है शब्द गढ़ने की, तो 

सूने सपाट आकाश सा तकता है मन 

फिर कैसे कोई गुनगुनाए 

इस मरुथल में शब्द पुष्प उगाए 

कभी-कभी ही होता है मेल 

सोने में सुहागे सा 

जब भाव और शब्द दोनों समीप हों 

काव्य की सरिता सहज बहती जाए 

निज सुवास और रस से 

सुहृदों को छूती जाए 

जैसे अंतर को तृप्त करें 

किसी के नेह भरे बोल 

वैसे रख देती है दिल के द्वार खोल 

कभी सुख की बरखा बन बरस जाती 

कभी नयनों में सावन-भादों  भर जाती 

कविता जीवन का फूल है 

उसकी हर अदा क़ुबूल है ! 


सोमवार, अप्रैल 18

चाँद बनकर

 चाँद बनकर 

मैंने चाँद बनकर धरा को देखा 

लहू से सराबोर 

लोगों को झूमते गाते देखा 

संग बहते हुए हवाओं के 

इक बूँद श्वास के लिए तरसते देखा 

अनंत रिक्तता में छा गया था वजूद मेरा 

चंद चीजों के लिए बिलखते देखा 

वह जो उड़ सकता था पल में  

जमीं से फलक तक 

धीमे-धीमे से उसे सरकते देखा 

मैं ही मालिक था चाँद तारों का 

चंद सिक्कों के लिए झगड़ते देखा 

जला सूरज सा कोई दिन-रात सदा 

भय से अंधेरों में किसी को सिसकते देखा !


रविवार, अप्रैल 17

धरती अंबर मिल लुटा रहे



धरती अंबर मिल लुटा रहे
​​
जो कुछ भी हमने बाँटा है 
वह द्विगुणित होकर हमें मिला, 
यदि प्रेम किया अणु मात्र यहाँ 
अस्तित्त्व ने सहज भिगो दिया !
 
शुभता को भेजें जब जग में 
वह घेर हमें भी लेती है, 
धारा शिखरों से उतर चली 
पुनः बदली बन छा जाती है !
 
देते रहना ही पाना  है 
ख़ाली दामन ही  भरता है, 
धरती अंबर मिल लुटा रहे 
‘वह’ परिग्रही पर  हँसता है !
 
जब बदल रहे पल-पल किस्से 
कोई न सच कभी जान सका, 
हर बांध टूट ही  जाता है 
कब तक धाराएँ थाम सका !

शुक्रवार, अप्रैल 15

निरभ्र गगन खुलता जाता

निरभ्र गगन खुलता जाता 

नील वितान धरा को थामे 

मन मेघ देख क्यों कँप जाता, 

पल भर में छँट जाते बादल 

नीरव अंबर खुलता जाता !

 

काले धूसर घनघोर मेघ 

कहाँ कभी ढक पाये नभ को 

बना वही है आश्रय स्थल फिर

 अकुलाहट क्यों हो अंतर को !

 

ज़रा खोल दें खिड़की मन की 

या गवाक्ष की ओट गिरा दें,

खुला-खुला सा नभ दिख जाए 

नज़र उठा भर उधर देख लें !

 

चाहे मीलों दौड़ लगाए 

या पंछी सा तिरता जाए, 

वही विस्तीर्ण अनंत प्रदेश 

हर सीमा से मुक्त कराए !


बुधवार, अप्रैल 13

वह

वह

 

कभी भोर होकर भी 

भोर नहीं होती 

घटटोप बादलों से 

आवृत हो जाता है नील  नभ 

अंशुमान मेघों की अनेक परतों के पीछे 

पंछी देर तक दुबके रहते हैं कोटरों में 

रात भर बरस कर भी 

बदलियाँ थकी नहीं होतीं 

टप टप झरती हैं 

पेड़ों की डालियों से बूँदे रह रह कर 

मंदिरों के द्वार खुल जाते हैं 

पर भक्त गण नहीं आते 

ऐसे में यदि कोई 

परमात्मा को घर बैठे आवाज़ लगाए 

तो क्या उससे दूर रह पाएगा वह 

पल भर में पानी से भरे सारे रास्तों को पार करके 

प्रकट हो जाएगा न 

सम्मुख उसके  

पूछा मुन्नी ने दादी से !


सोमवार, अप्रैल 11

राजे-दिल



राजे-दिल

माना  दुःख-दर्द ढेरों हैं जमाने में 

इश्क़ महके है अब भी हर फ़साने में 

 

लोग तैयार हैं अदावतों की खातिर 

लुत्फ़ आता है पर हँसने-हँसाने में 

 

हर किसी से न कहना राजे-दिल अपना 

सब माहिर यहाँ दूजों को सुनाने में 

 

चंद लम्हों की फुर्सत निकालते रहना 

वक्त लगता नहीं दिलों को भुलाने में 

 


गुरुवार, अप्रैल 7

उर तोड़े हर बंधन

उर तोड़े हर बंधन

जीवन में छंद बहे 

मन में मकरंद गहें, 

रस धार झरे अविरत 

कान्हा यदुनंद कहें !

 

श्वासों में सुमिरन हो 

नयनों से हो वंदन, 

स्पंदित हों प्राण सदा 

उर तोड़े हर बंधन !

 

जो दिखता इक भ्रम है 

मिथ्या में क्या श्रम है, 

दुर्गम है सच का पथ 

मर कर मिटता क्रम है !

 

मरता भी कौन भला 

पहले ही जो मृत है, 

मिटकर भी शेष रहे 

निजता ही शाश्वत है !


सोमवार, अप्रैल 4

जो शून्य बना छाया जग में



जो शून्य बना छाया जग में 


जग जैसा है बस वैसा है 

निज मन को क्यों हम मलिन करें, 

जो पल-पल रूप बदलता हो 

उसे माया समझ नमन करें !

 

मन सौंप दिया जब प्रियतम को 

उन चरणों में ही झुका रहे,

फ़ुरसत है किसके पास यहाँ 

निज महिमा का ही हाथ गहें !

 

जो शून्य बना छाया जग में 

कण-कण में जिसकी आभा है, 

वह राम बना है कृष्ण वही 

उसका दामन ही थामा है !

 

जो जाग गया मन के भीतर 

वह  सिक्त सदा सुख सरिता में,

जग अपनी राह चला जाता 

वह ठहर गया इस ही पल में !