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मंगलवार, अगस्त 20

रक्षा बंधन के उत्सव पर हार्दिक शुभकामनायें

राखी


कोमल सा यह जो धागा है
कितने-कितने भावों का
समुन्दर छुपाये है
जिसकी पहुंच उन गहराइयों तक जाती है
जहाँ शब्द नहीं जाते
शब्द असमर्थ हैं
जिसे कहने में
कह देता है राखी का रेशमी सूत्र
सम्प्रेषित हो जाती हैं भावनाएं
बचपन में साथ-साथ बिताये
दिनों की स्मृतियों की
गर्माहट होती है जिनमें
वे शरारतें, झगड़े वे, वे दिन जब एक आंगन में
एक छत के नीचे एक वृक्ष से जुड़े थे
एक ही स्रोत से पाते थे सम्बल
 एक ही ऊर्जा बहती थी तन और मन में
वे दिन बीत गये हों भले
पर नहीं चुकती वह ऊर्जा प्रेम की
 वह प्रीत विश्वास की
खेल-खिलौने विदा हो गये हों
पर नहीं मरती उनकी यादें
उनकी छुअन  
रक्षा बंधन एक त्योहार नहीं
स्मृतियों का खजाना है
हरेक को अपने बचपन से
बार-बार मिलाने का बहाना है
और जो निकट हैं आज भी
उनकी यादों की अलबम में
एक नया पन्ना जोड़ जाना है   

मंगलवार, मार्च 26

होलिका दहन से होली मिलन तक


होलिका दहन से होली मिलन तक



बासंती मौसम बौराया
मन मदमस्त हुआ मुस्काया,
पवन फागुनी बही है जबसे
अंतर में उल्लास समाया !

रंगों ने फिर दिया निमंत्रण
मुक्त हो रहो तोड़ो बंधन,
जल जाएँ सब क्लेश हृदय के
अगन होलिका की है पावन !

जली होलिका जैसे उस दिन
जलें सभी संशय हर उर के,
शेष रहे प्रहलाद खुशी का
मिलन घटे सबसे जी भर के !

उड़े गुलाल, अबीर फिजां में
जैसे हल्का मन उड़ जाये,
रंगों के बहाने जाकर
प्रियतम का संदेशा लाए !

सीमित हैं मानव के रंग
पर अनंत मधुमास का यौवन,
थक कर थम जाता है उत्सव
चलता रहता उसका नर्तन !

शनिवार, मार्च 9

महाशिवरात्रि के अवसर पर शुभकामनाओं सहित



शम्भो शंकर हे महादेव


शूलपाणि, हे गंगाधर, हे महादेव, औघड़ दाता
हे त्रिपुरारी, शंकर शम्भो, हे जगनायक, जग के त्राता !

हे शिव, भोले, मृत्युंजय हे, तुम नीलकंठ, जटाधारी
हो आशुतोष, अनंत, अनादि, हे अडोल, नागधारी !

 हे अंशुमान, त्रिनेत्रधारी, अभयंकर, हे महाकाल
विश्वेश्वर, हे जगतपिता, हे सुंदर आनन, उच्च भाल !

कैलाशपति, हे गौरीनाथ, हे शक्तिमान, डमरू धारी
हे महारूद्र, काल भैरव, तुम भूतनाथ, गरल धारी !  

हे शार्दूल, हो तेजपुंज, हे सर्वेश्वर, नन्दीश्वर हे
त्रयम्बक, पशुपतिनाथ, हे आदिदेव हर हर हर हे !

हे विरूपाक्ष, निराकार, हे महेश, चन्द्रशेखर
सदाशिवं, हे चिदानंद, विशम्भर, हे शैलेश्वर !

भस्म विभूषित, करुणाकर, प्रलयंकर, सुंदराक्ष
हे विश्वात्मा, तुम जगतबीज, ताण्डवकर्ता, हे नटराज !  

महेश्वरा, त्रिभुवन पालक, काशीनाथ हे जगदीश्वर
नमोः नमः हे शम्भुनाथ, नमोः नमः हे सोमेश्वर !

तुम बहाते ज्ञान गंगा, मौनधारी तत्व हो तुम
हे अडोल पर्वत जैसे, कैलाश पति अमृत हो तुम !

विमल तुम्हारा मन भी, ज्यों शुभ्र श्वेत धवल हिम
अंतर्ज्योति से जलते भीतर, आकार है ब्रह्मांड सम !

बुधवार, जनवरी 16

मुक्त गगन सा गीत गा सके



मुक्त गगन सा गीत गा सके

‘सावधान’ का बोर्ड लगाये
हर कोई बैठा है घर में,
मिलना फिर कैसे सम्भव हो
लौट गया वह तो बाहर से !

या फिर चौकीदार है बुद्धि
साहब से मिलने न देती,
ऊसर ऊसर ही रह जाता
अंतर को खिलने न देती !

प्राणों का सहयोग चाहिए
भीतर वह प्रवेश पा सके,
सत्य को जो भी पाना चाहे
मुक्त गगन सा गीत गा सके !

प्रकृति अपने गहन मौन में
निशदिन उसकी खबर दे रही,
सूक्ष्म इशारे करे विपिन भी 
गुपचुप वन की डगर कह रही ! 

पल में नभ पर बादल छाते
गरज-गरज कर कुछ कह जाते
पानी का बौछारें भी तो
पाकर कितने मन खिल जाते !

जो भी कुछ जग दे सकता है
शब्दों में ही घटता है वह,
लेकिन सच है पार शब्द के
जो निशब्द में ही मिलता है !

  

मंगलवार, अक्टूबर 4

दुलियाजान में दुर्गापूजा



माँ तेरे रूप अनेक

जगज्जननी ! हे मूल प्रकृति !
ज्योतिस्वरूपा सनातनी,
जगदम्बा, माँ सरस्वती
लक्ष्मी, गंगा, पार्वती !

दुर्गा देवी सदा सहाय
जीवन में बाधा जब आए,
भद्र काली करे कल्याण
माँ अम्बिका स्नेह लुटाए !

अन्नपूर्णा भरे भंडारे
सर्वमंगला मंगल लाए,  
चण्डिका परम शक्ति
भैरवी भय हरले जाय ! 

आनंद दायिनी ललिता देवी
जीवन दात्री है भवानी,
मुकाम्बिका माँ त्रिपुर सुन्दरी
कुमुदा, कुंडलिनी, रुद्राणी !

बुधवार, जून 1

मन का क्यों द्वार उढ़का है



मन का क्यों द्वार उढ़का है


खुला आसमां कैद नहीं है
बेपर्दा नदिया बहती है,
खुलेआम करे छेड़ाखानी
हवा किसी से न डरती है !

बंद खिड़कियों पर पर्दे हैं
सूरज सरेआम उगता है,
दीवारें क्यों चिन डाली हैं
मन का क्यों द्वार उढ़का है !

बाहर ही से दस्तक देता
कैसे वह प्रियतम घर आये,
फिर कोई क्यों करे शिकायत
क्यों न बंधन उसे सताए !

जब चाहे वह आ सकता हो
खुला-खुला सा आमन्त्रण हो,
उसको पूरी आजादी हो
कुछ ऐसा उसे निमंत्रण हो !

नृत्य उपजता ऐसे मन में
लहर-लहर में तरंगें उठतीं,
कोई जिसको नहीं दूसरा
सारी सृष्टि वहीं उतरती !

मन-मयूर कर ताताथैया
अनजाने से सुख में डोले,
पंखों में भर नेह ऊर्जा
गोपी उर की भाषा बोले !

वेदनायें शर्मा जाएँगी
मन का वह उछाह देख के,
ज्यों अशोक वन में हो सीता
हर्षित राम मुद्रिका लख के !
अनिता निहालानी
१ जून २०११

  

शुक्रवार, मई 27

ब्लॉग जगत के सभी कवियों को समर्पित


कवि से

स्वप्न शील, हे रचनाकार !
उर में कोटि राज छिपाए,
गीत गा रहे युगों-युगों से
अंतर कोष भरा रह जाये !

सृजन शील, हे कलाकार !
नित नूतन तुम शब्द ढालते
नेह मदिरा भर-भर अविरत
प्यासे अधरों पर वारते !

सत्यशील, तुम हो द्रष्टा !
दिव्य दृष्टि पाकर हो हर्षे,
अनावृत तत्व हो जाता
उदघाटित सत्य जब बरसे !

हृदय तुम्हारा कोमल कलि सा
किन्तु शिला सा धैर्य धरे,
सुख में भीगा, कंपा हर दुःख में
निष्कंटक करते पथ चलते !

नहीं ध्येय जग माने तुमको
यही काम्य हर अश्रु लूँ हर,
नहीं हेय जगत में कोई
देखूँ जड़ को भी चेतन कर !

अनिता निहालानी
२७ मई २०११


बुधवार, मई 25

संध्या राग


संध्या राग

मसूर की दाल के से
गुलाबी बार्डर वाले
 सुरमई बादल
मानो संध्या ने पहनी हो नई साड़ी
 कुहू-कुहू की तान गुंजाती ध्वनि  
और यह मंद पवन
जाने किस-किस बगिया के
फूलों की गंध लिये
आती है,
ऐसे में लिखी गयी यह पाती
किसके नाम है
क्या तुम नहीं जानते ?
तुम जो भर जाते हो अन्जानी सी पुलक
शिराओं में सिहरन और उर में एक कसक
विरह और मिलन एक साथ घटित होते हैं जैसे
आकाश में एक ओर ढलता है सूरज
तो दूसरी ओर उगता है चाँद !
हरीतिमा में झांकता है तुम्हारा ही अक्स
हे ईश्वर !या तो तुम हो.. या तुम्हारी याद.....

अनिता निहालानी
२५ मई २०११



शनिवार, मई 21

आज एक पुरानी कविता


याद तुम्हारी

हरी दूब, पंछी के पर सी
छूती मन को आहिस्ता से
कुछ गुनगुन कानों में करती
श्वासों के सँग गिरती-उठती
नीले आसमान सी निर्मल
याद तुम्हारी !

याद तुम्हारी फैली जल में
बिखरी फूल-फूल के दल में
प्रातः पवन में, सांध्य स्वप्न में
छत के हर सूने कोने में
सीढ़ी के खालीपन में भी
पुस्तक के इक इक पन्ने में
याद तुम्हारी !

चिडियों की चीं चीं में मिलती
मिट्टी की खुशबू में खिलती
दूर दूर तक नजर मिलाती
कभी निकट आकर सहलाती
अधरों के स्मित हास में गुपचुप
नयनों की मुस्कान में चुपचुप
मेरे पेन में, बुक शेल्फ में
लिखने वाली मेज पे सोयी
याद तुम्हारी !

अनिता निहालानी
२१ मई २००१
  

मंगलवार, मई 10

सफर अब भी वह जारी है


सफर अब भी वह जारी है

अगर दिल में मुहब्बत हो जहाँ जन्नत की क्यारी है
सुकूं तारी सदा रहता यह ऐसी बेकरारी है I

तेरी नजरों से जब देखा यह दुनिया भा गयी मुझको
तेरे पीछे चले थे हम सफर अब भी वह जारी है I

मेरे दिल का हर इक कोना भरा है तेरी यादों से
जहाँ न साथ तेरा हो ऐसा इक पल भी भारी है I

जमाने की निगाहों से सदा जिसने बचाया है
गमों की धूप में वह नीम सी छाँव प्यारी है I

हजारों ढंग सिखलाये तेरी चाहत ने जीने के
सलीका जिंदगी का देख हमसे मौत हारी है I

अनिता निहालानी
१० मई २०११  

शनिवार, अप्रैल 23

बादल बरसा बरसा बादल

आज यहाँ फिर बारिश हो रही है... जोरदार बारिश...


दिल तो बादल है  



दिल है बादल, बादल दिल है
दोनों की इक ही मंजिल है,
खुद से दूर बसे जा दोनों
पीड़ा विरही की हासिल है !

सूरज सुलग रहा ज्यों नभ में
दिल में भी तो लगी आग थी,
नीर उड़ा ले गयी हवाएं
श्वासें नमी ले गयीं दिल की !

उमड़-घुमड़ नयनों से बरसी
वही अमल जलधार बनी है,  
भीतर छाया था तनाव सा  
नभ में ज्यों कैनात तनी है !  

नन्हा सा दिल बिछड़ा खुद से
सँग संसार के उड़ता-फिरता,
पुनः सताती विरह की पीड़ा
रह-रह कर कई बार बरसता !

गरज-गरज कर बरसे बादल
जैसे कोई दिल हो पागल,
प्रथम कालिमा छायी उदासी
धूमिल सी ज्यों प्यास रुआंसी !

फिर अश्रु से आँख भर आयी
अंतहीन तब फूटी रुलाई,
रुकने का क्यों नाम न लेती
ताल-तलैया सब भर देती !

सुबक-सुबक ज्यों रोता बच्चा
बादल भर जाता चहबच्चा
कभी डराता, कभी लुभाता
ओले, वृष्टि सब बरसाता !

बरस रहा अनवरत आज है
जाने इसमें क्या राज है,
सँग बूंदों का बजे साज है
घन बादल का बजे बाज है !

बिछड़ा था जो जल सागर से
बरस-बरस घर आया नभ से,
बादल सागर का था अपना
दूर हुआ ज्यों कोई सपना !


अनिता निहालानी
२३ अप्रैल २०११


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