शुक्रवार, जनवरी 27

उन सभी के लिए जिनके विवाह की इस वर्ष पचीसवीं सालगिरह है


विवाह की पचीसवीं सालगिरह पर 


स्वयं को केंद्र मानकर
दूसरे को चाहना पहली मंजिल है
जो वर्षों पहले आप दोनों ने पा ली थी

दूसरे को केंद्र मानकर
स्वयं को समर्पित कर देना दूसरी
जिसकी तलाश पूरी होने को है

न स्वयं, न दूसरे को 
अस्तित्त्व को केंद्र मानकर
मुक्त हो जाना अंतिम सोपान है

जिसकी दुआ हम देते हैं
खुद से पार चला जाये जब कोई
तब सिद्ध होता है अभिप्राय
आप के जीवन में
जल्दी ही ऐसा दिन आए ! 

मंगलवार, जनवरी 24

लौट आना है उसे घर



लौट आना है उसे घर

घूम कर सारा जहाँ
लौट आना है उसे घर,
गंगोत्री से उमगी धारा
जा पहुँची जो गंगा सागर  !

हुई वाष्पित उडी गगन में
बरसी जा पहुँची शिखरों पर,
पिघली, बही पुनः लौटी
यही चक्र चलता है अविरत !

कुछ बूंदें रह गयीं जमीं ही
कुछ ने सागर को घर माना,
वंचित हैं बहने के सुख से
नीलगगन का सुख न जाना !

एक यात्रा अनजानी सी
शेष सभी तय करती हैं,
काट पत्थरों, चट्टानों को
गहन गुफाओं में बहती हैं !

तपकर सोख ऊष्मा रवि की
मीलों चलकर मिलतीं घन से,
सृष्टि चक्र अनोखा कितना
चले अहर्निश युगों-युगों से !

शनिवार, जनवरी 21

जल रहा है किन्तु जीवन

जल रहा है  किन्तु जीवन

मीठे पानी का इक दरिया 
निकट ही बस बह रहा है 
 एक कदम ही और चलो 
 मरुस्थल यह कह रहा है 
अनसुनी कर बात उसकी 
फुसफुसाहट थी जरा सी 
रहे जलते और बिंधते 
भनक भी न पायी जल की...
दूर से  लहरों की हलचल 
मंद  झोंका कोई शीतल
स्वप्न में ही थी दी सुनायी
निर्झरों की मधुर कलकल 
जल रहा है  किन्तु जीवन
सूख प्यासा हृदय उपवन 
बिन बात ही कंप जाती है 
 संग श्वास यह दिल की धड़कन 
ज्यों पहेली एक उलझी  
मिला हुआ भी खोया लगता 
नींद जिसकी गुम हुई है 
जागते सोया ही रहता 






शुक्रवार, जनवरी 20

तब



तब 

जब मन ही मन है भीतर 
  एक पहेली सा
भरमाता है जीवन
खो जाता है जब मन
आत्मा के सान्निध्य में  
 बन जाता है  क्रीड़ांगण
आत्मा भी जब चकित हुई सी 
तकती है अस्तित्व को 
परमात्मा जग जाता है 
 खिल उठता है वृन्दावन 
 परमात्मा भी निहार जिसे  
 जब मुग्ध हुआ हो 
तब ?

मंगलवार, जनवरी 10

सर्दियों की धूप


सर्दियों की धूप 

धूप कहाँ है 
चलो उसे ढूँढ़ते हैं
भिनसार में आती है सोने वाले कमरे की खिड़की  से 
और दीवार पर एक चमकता हुआ रौशनी का टीका भर लगाती है 
जब पिछले बरामदे से है झाँकता है बाल सूर्य 
कुछ देर बाद धरा घूम जाती है जब 
पूजा के कमरे की खिड़की से छन छन कर आती है
नीला कारपेट चमकने लगता है धूप में
वह चाहती है पल भर धूप में बैठना 
पर सुबह का वक्त होता है भाग-दौड़ का 
दोपहर को धूप कुछ देर ही आती है पीछे वाली खिड़की से 
फर्श पर बन जाता है आायताकार
उसमें बैठना हो तो बैठे कोई सिकोड़ कर बदन 
शाम होने से पहले ही सूरज बढ़ गया होता है आगे 
घर की किसी खिड़की दरवाजे तक उसकी पहुँच नहीं
तब बाहर निकल आती है वह 
जहाँ पूरे लॉन में बिछी है धूप नर्म चादर की तरह 
चाहो तो सो जाओ  
या ओढ़ लो  नर्म दुलाई की तरह !

शनिवार, जनवरी 7

कोई सुन रहा है


कोई सुन रहा है 
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सुन सके न गर जमाना कोई सुन रहा है 
बिखरे हुए लफ्जों को वही चुन रहा है 

दीवाना दिल सजीले जो ख्वाब बुन रहा है 
पर्दानशीं वही तो दिनरात गुन रहा है 

बिसरी हुई यादों को यदि कोई धुन रहा है
अनजान दरम्यां वह दीवार चुन रहा है

चाहत नहीं है उसकी न कोई पुन रहा है
हसरत में मन वही तो दिनरात भुन रहा है


गुरुवार, जनवरी 5

घर का पता


घर का पता 


भूल गये हैं अपने घर का पता 
और पूछना भी नहीं चाहते
ऐसा नहीं कि शर्माते हैं 
कोई अपना घर भी है  
यह भी नहीं जानते 
 भटकते इधर-उधर
पड़ावों में रातें बिताते
 याद ही नहीं आती  घर की
खानाबदोश की तरह 
कंधों पर उठाये रहते हैं तम्बू 
और रातों को तारे गिनते
नींद में कुनमुनाते !






बुधवार, जनवरी 4

नींद और जागरण

नींद और जागरण 


खुद का पता भी अक्सर गैरों से पूछते हैं
जाहिर सी बात है कि अब तक भटक रहे  हैं 

ऊँगली जरा दिखायी मुरझाया दिल कमल 
खिल जाये कैसे फिर से तरकीब पूछते हैं 

सपने सजाये रहते दिल की पनाहगाह में 
सच दूसरे करेंगे भ्रम ऐसे पालते हैं 

अपनी खबर नहीं है जग का हिसाब रखते
इक नींद ले रहे हैं लगता है जागते हैं 

मंगलवार, जनवरी 3

कौन बहाए नदिया निर्झर


कौन बहाए नदिया निर्झर

कुह कुह कलरव भ्रमरों के स्वर 
मर्मर राग भरे हैं भीतर, 
कौन सजाए  कोमल झुरमुट 
कौन बहाए नदिया निर्झर !

पुलक चकित शावक के दृग में 
गतिमय  मृगदल अति सुरम्य,
रूप-रंग विचित्र सृजे हैं 
एक अनोखा लोक अरण्य !

गहन शांति में सोयी हो ज्यों 
नीरव तट पर मौन धरे,
बही ज्योत्स्ना पूर्ण चन्द्र से 
तपती भू का ताप हरे !

एक योजना से चलती है 
गुपचुप-गुपचुप सारी क्रीड़ा,
पटाक्षेप उसी दिन होगा 
काल हरेगा सारी पीड़ा !



सोमवार, जनवरी 2

रंग भर रहा कोई पल-पल

 रंग भर रहा कोई पल-पल 


कोकिल कहाँ सोचती होगी किस सुर में गाना है 
  पंचम सुर में सहज कंठ से बहता मधुर तराना है 

नदिया कब किस ओर बहेगी नक्शे कहाँ बनाये 
जाने किसने खन्दक खाई पथ अनुकूल दिखाए 

मर-मर न करे प्रतीक्षा भू में बीज सहज ही सोया 
ऋतू आने पर आंखें खोले जाने कब था  बोया  

कोरा कागज सा जीवन है रंग भर रहा कोई पल-पल 
प्रश्न उतरते आहिस्ता से जाने कौन किये जाता हल 

जीवन जब अविरत बढ़ता है नदिया की धारा सा 
 छुपी हुई निधियां उर में जो बन सुगंध  बिखरा जाता