शुक्रवार, जुलाई 19

गुरु ने कहा


गुरु ने कहा


तुम्हारी मंजिल 

यदि श्मशान घाट ही है

चाहे वह आज हो या 

कुछ वर्षों बाद 

तो क्या हासिल किया 

एक रहस्य 

जो अनाम है 

 स्वयं को प्रकटाये

तुम्हारे माध्यम से

तभी जीवन को 

वास्तव में जिया !

वह जो सदा ही निकट है 

 प्रकृति के कण-कण में छुपा 

वह जो कृष्ण की मुस्कान की तरह 

अधरों पर टिकना 

और बुद्ध की करुणा की तरह 

आँखों से बहना चाहता है  

प्रियतम बनकर 

गीतों में गूँजना चाहता है 

संगीत बनकर आलम में 

बिखरना चाहता है 

वही कला, शिल्प, नृत्य है 

  पूजा, प्रज्ञा, मेधा है वही 

उर की गहराई में

 बसने वाली समाधि भी वही

उसे दिल में थोड़ी सी जगह दो

घेर ले वह अपने आप ही शेष

इतनी तो वजह दो ! 


बुधवार, जुलाई 17

पीड़ा


पीड़ा 

पीड़ा अभिशाप नहीं

वरदान बन जाती है 

जब सह लेता है कोई 

धैर्य और दृढ़ता से

अपरिहार्य है पीड़ा

यदि देह को सताती है 

अधिक से अधिक मन तक

हो सकती है उसकी पहुँच

पर 'स्वयं' अछूता रह जाता है 

पीछे खड़ा 

वही असीम शक्ति देता है 

वह स्रोत है 

वही लक्ष्य भी 

हर संदेह से परे 

जहाँ मिलेगा परम आश्रय 

मिलता आया है जीवन भर 

शांति व आनंद के क्षणों में 

सुख-दुख के प्रसंगों में 

वह संबल भरता है भीतर 

पीड़ा तप है 

व्यर्थ नहीं है यह 

इसका प्रयोजन है

शायद यह आत्मशोधन है !

सोमवार, जुलाई 15

मानवता का धर्म

मानवता का धर्म


दिल में एक हूक सी उठती है 

जब सड़कों पर आगज़नी 

देखने को मिलती है 

फूँक दिये जाते हैं लाखों के वाहन 

भारत की यह पावन भूमि 

 निर्दोषों के खून से रंग जाती है !


काँप उठता है दिल जब 

टीवी पर दिखाए जाते हैं 

बाढ़ में फँसे निरीह जन 

जिनके घरों में घुस गया है पानी 

बेबस हैं छतों पर लेने को शरण !


आक्रोश से भर उठता है दिल 

जब आतंकवादी निशाना बना देते हैं 

जवानों को आये दिन 

चंद पैसों की ख़ातिर 

सत्ता की ताक़त में मदहोश सरकारें 

वोट की ख़ातिर बर्दाश्त करती हैं 

हिंसा और अन्याय 

अपने ही नागरिकों पर !


दिल खून के आंसू रोता है 

देखकर आदर्शों की हार 

और धन की जीत चुनावों में 

जब रेवड़ी बाँटने वाले नेताओं की 

होती है चाँदी 

स्वच्छ भारत के नाम पर 

सड़कों के किनारे बढ़ते हुए कूड़े के ढेर !


हर तरफ़ मची है कैसी अफ़रातफ़री 

जैसे फिर से दिशाहीन हो गया है 

देश का युवा 

क्यों छाये हैं निराशा के बादल 

क्याँ गमगीन है आज दिल इतना !


चलें ! हम निकलें सड़कों पर 

छोड़कर घर की सुरक्षा और आराम 

जगायें सोये हुए लोगों का ज़मीर 

फैलायें मानवता के धर्म का पैग़ाम 

जो सनातन है, सत्य है और शाश्वत है 

जो ढक जाये भले ऊपर-ऊपर 

भीतर पूर्णत: जागृत है !


शुक्रवार, जुलाई 12

चाह

चाह 



वह तैरना चाहती है नीले स्वच्छ जल में 

मीन की भाँति 

(पर जल अब विमल शेष ही कहाँ है ?)


वह दौड़ाना चाहती है सर्राटे से 

कार भीड़ भरी सड़कों से निकालते हुए 

या खुले वाहन विहीन मार्गों पर 

(पर ऐसे रास्ते बचे कहाँ है और प्रदूषण बढ़ाने का उसे क्या हक़ है ? )


वह लिखना चाहती है कई बेस्ट सेलर पुस्तकें 

प्रसिद्ध लेखकों की तरह 

( ज्ञान तो पहले से ही बहुत है, उस पर चलना भर  शेष है, फिर 

अहंकार को मोरपंख लगाने से तो मार्ग और लंबा हो जाएगा )


वह बोलना चाहती है फ़र्राटे से कन्नड़, अंग्रेज़ी और कई भाषाएँ 

( पर मौन और मुस्कान की भाषा लोग भूल गये हैं )


वह चित्र बनाना चाहती है 

चटख, चमकीले रंगों से 

( पर आकाश और धरती रंगे जा रहा है कोई अदृश्य कलाकार प्रतिपल) 


वह जो है, जहां है, जैसी है 

वैसी ही जीना चाहती है 

अपने आप में तृप्त 

(आत्मा का साम्राज्य वहाँ है !)


सोमवार, जुलाई 8

जीवन सा हो मरण भी सुंदर

जीवन सा हो मरण भी सुंदर

भरे न उर ऊँची उड़ान जब  

बरबस बहे न प्रेमिल सरिता, 

 पाँवों में थिरकन न समाये  

जीवन वन सूना सा रहता !


एक मोड़ आये जब ऐसा 

रुखसत पूर्ण ह्रदय से ले लें, 

जीवन को भरपूर जी लिया 

अब स्वयं ही मृत्यु पथ चुन लें !


गहन दुर्दम निद्रा है मृत्यु 

 जीवन सा हो मरण भी सुंदर,

अंतर  का अवसाद मिटाने  

मिला सभी को रहने का घर !


जान लिया हर लक्ष्य जगत का 

जो पाना था पाया हमने, 

पढ़ ही डाले जितने भी थे 

ख़ुशियों और गमों के किस्से !


बने कृतज्ञ इस अस्तित्त्व के 

धीमे से हम आँख मूँद लें, 

जीवन ने कितना कुछ सौंपा 

अब अंतिम ऊँचाई पा लें !


मृत्यु सभी भेदों  से ऊपर 

राजा-रंक सभी मरते हैं, 

खेल ख़त्म हो जाते इसमें 

व्यर्थ मनुज इससे डरते हैं !


जीने की जो कला सीख ले 

सहज मरण के पार हो गया, 

देह और मन के ऊपर जा 

ख़ुद का जब दीदार हो गया !


शुक्रवार, जुलाई 5

जीवन का यह कलश रीतता

जीवन का यह कलश  रीतता


कितना रस्ता चल कर आया 

फिर भी कहीं नहीं पहुँचा है, 

जाने कब यह राज खुलेगा 

मंज़िल पर ही सदा खड़ा है !


एक सुकून उतरता भीतर 

मधुर परस जब उसका मिलता,

जिसका पता खोजते ही तो 

जीवन का यह कलश रीतता ! 


नेति-नेति के पथ पर चल कर 

उसके द्वारे जाना होगा, 

 तज कर सभी प्रवेश मिलेगा 

सहर्ष सभी लुटाना होगा !


हल्का होकर तभी उड़ेगा 

जैसे कोई  श्वेत पंख हो,

या तुषार  की पावन बूँदें 

फूलों की भीनी सुगंध हो !


होकर अगर न होना आये 

यही राज उसने सिखलाया, 

जैसे विमल  भोर का तारा 

अगले  ही पल नज़र न आया !


बुधवार, जुलाई 3

वृद्धता

वृद्धता

वृद्ध का सम्मान करता है जो 

 भाग्यशाली है वह समाज 

क्योंकि अनुभवी है वृद्ध 

उसने जिये हैं अच्छे और बुरे दोनों काल 

उम्र के साथ पायी है परिपक्वता 

उसने जाना है एक न एक दिन

हर सौंदर्य पड़ जाता है फीका

 चूक जाता है बल देह का 

 जाना लिया है कि 

हर इच्छा अंततः निराश ही करती  

सुख का आश्वासन दे दे भले 

पर जिसका वादा किया था 

वह सुख नहीं देती 

उसने जान लिया है 

हर रिश्ता दुख में ले जाता है 

वह साक्षी बन गया है 

अपने ही स्वर्ग और नरक का 

जो जिये थे उसने 

अब वह उस जगह है जहां 

कोई भी बात प्रभावित नहीं करती 

एक तृप्ति छा गई है 

मन-मस्तिष्क में 

वह जानता है 

मौसम बदलेगा 

अंत, अंत नहीं एक नयी शुरुआत है 

एक सुखद नींद है 

जिसका जागरण 

नये तन में होगा 

क्योंकि शाश्वत है अस्तित्त्व

वृद्धता सुंदर है और शांत भी 

आनंद और संतोष की ख़ुशबू से भरी  

 वह मित्र है 

इसे भी उत्सव बनाना है 

जीवन की हर अवस्था को 

ज्ञान के रंगों से सजाना है ! 


सोमवार, जुलाई 1

गंध झरे जिससे कोमल

गंध झरे जिससे कोमल

जीवन के झुलसाते पथ पर 

मनोहारी शीतल इक छाँव है, 

सूने कँटीले इस मार्ग पर 

सुंदर सलोना सा ठाँव है !


सागर की चंचल लहरों में 

नौका को भी थामे रखता, 

हर इक बार भटकता राही  

पा ही जाता एक गाँव है !


कोई कभी अनाथ हुआ कब 

वह पग-पग साथ निभाता है,  

कैसे जीना इस जीवन में 

ख़ुद आकर सदा सिखाता है !


 कदमों में गति वही भरे है

श्वासों में बनकर प्राण रहा,

नहीं कभी कोई भय व्यापे 

अंतर में दृढ़ विश्वास भरा !  


तेरे होने से ही हम हैं 

तेरे कदमों में आये हैं,  

  गंध झरे जिससे कोमल

वे मौन गीत ही गाये हैं ! 





शनिवार, जून 29

एक खुला आसमान

एक खुला आसमान


 पहुँचे नहीं कहीं मगर, हल्के हुए ज़रूर 

मनों ने हमारे, कई बोझे उतारे हैं 


 बाँध कर रखा जिन्हें  था, खोने के त्रास से 

मुक्त किया जिस घड़ी, आसपास ही बने हैं 


प्रेम की कहानियाँ अब, रास नहीं आ रहीं  

अहं को ही प्रेम का, नाम जब से धरे हैं 


अहं की वेदी पर, शहीद हुआ प्रेम सदा 

प्रेम की कहानियों के, हश्र यही हुए हैं 


एक खुला आसमान, एक खुला अंतर मन 

हर तलाश पूर्ण हुई, होकर गगन जिये हैं 


जहाँ  से चले थे बुद्ध, वहीं लौट आये हैं 

पाया नहीं कुछ नवीन, व्यर्थ त्याग दिये हैं 


जीवन का देवता, भेंट यही माँगता है 

उतार दे हर बोझ जो, संग सदा चले है