गुरुवार, दिसंबर 26

वक्त चुराना होगा

नया वर्ष आने पर हम हर बार संकल्प लेते हैं, नियमित भ्रमण और व्यायाम करेंगे, नियमित योग और ध्यान करेंगे, नियमित अध्ययन और लेखन करेंगे, किन्तु कुछ दिनों बाद जब जीवन अपने पुराने क्रम में आ जाता है तो सबसे पहले यही शब्द निकलते हैं, क्या करें समय ही नहीं मिलता. मुझे लगता है आने वाले वर्ष में यदि हम जीवन में कुछ सकारात्मक बदलाव चाहते हैं तो हमें अपने लिए कुछ वक्त चुराना होगा।


वक्त चुराना होगा !

काल की तरनि बहती जाती 
तकता तट पर कोई प्यासा,
सावन झरता झर-झर नभ से 
मरुथल फिर भी रहे उदासा ! 

झुक कर अंजुलि भर अमृत का भोग लगाना होगा 
वक्त चुराना होगा !

समय गुजर ना जाए यूँ ही 
अंकुर अभी नहीं फूटा है,
सिंचित कर लें मन माटी को 
अंतर्मन में बीज पड़ा है !

कितने रैन-बसेरे छूटे यहाँ से जाना होगा 
वक्त चुराना होगा !

कोई हाथ बढ़ाता प्रतिपल 
जाने कहाँ भटकता है मन, 
मदहोशी में डुबा रहा है 
मृग मरीचिका का आकर्षण !

उस अनन्त में उड़ना है तो सांत भुलाना होगा 
वक्त चुराना होगा !

जग की नैया सदा डोलती 
हिचकोले भी कभी लुभाते, 
जिन रस्तों से तोबा की थी 
लौट-लौट कर उन पर आते !

नई राह चुनकर फिर उस पर कदम बढ़ाना होगा 
वक्त चुराना होगा !



बुधवार, दिसंबर 25

अंतरलोक



अंतरलोक

देश-काल से परे है जो
आधार है सृष्टि का 
उस जीवन से आँख मिलाकर ही 
कोई इस जीवन से हाथ मिला सकता है 
उस अदृश्य लोक से भरकर प्रकाश 
इस अंधकार में नन्हा सा ही सही 
एक दीपक जला सकता है 
बादल कहीं से तो भरते हैं खुद को 
बदल देते हैं मरुथलों को चारागाहों में 
सुवास लती हैं हवाएं उपवनों से गुजर 
अंतर शांति से भर लेता है जो मन 
निज आकाश को 
बना देता है मैत्री पल वही जगत में 
वैर से हल नहीं होते छोटे से मतभेद तक 
रक्त क्रांतियां छोड़ जाती हैं गहरे घाव 
इतिहास बनते हैं बुद्ध और महावीर की 
करुणा के फैलाव में 
जो आती है अंतर की गहराई से 
परे  है जो देश-काल से !

सोमवार, दिसंबर 23

मन इक बगिया सा खिल जाता

मन इक बगिया सा खिल जाता



निज के मुखड़े पर धूल लगी
दर्पण को दोष दिए जाते
हिंसा जब मन में बसती हो
अवसर भी उसके मिल जाते

स्वीकार किया जिस क्षण सच को
झर जाता हर संशय उर से
मन इक बगिया सा खिल जाता
मिटते बादल भय के डर के

अपने वैभव को जला दिया
जिस क्षण हिंसा का साथ दिया
कटुता जो सही नहीं जाती
खुद में थी जग को दोष दिया

कितने कलुषित वे क्षण होंगे
जिनमें विद्वेष पला करता
भुला अस्मिता गौरव निज का
मानव हर बार छला जाता

गुरुवार, दिसंबर 19

आदमी





आदमी

सुलगता इक सवाल बन गया है आदमी 
चेतना ज्यों सो गयी 
शरम-हया खो गयी 
गली गली दानव हैं 
मनुष्यता रो गयी 
जूझता  इक बवाल बन गया है  आदमी 
आधी रात तक जगे 
भोर नींद में कटे 
देवों का ध्यान नहीं 
नियम वरत सब मिटे
उलझता इक ख्याल बन गया है आदमी 
हवा धुऑं धुआँ हुई 
सूरज भी छुप गया  
अपने ही हाथों से
 जहर ज्यों घोल दिया 
'नादान' इक  मिसाल बन गया है आदमी 
अपने ही देश में 
तोड़-फोड़ कर रहा 
सभ्यता की दौड़ में 
अनवरत पिछड़ रहा 
वाकई  इक जमाल बन गया है आदमी

रविवार, दिसंबर 8

हम और वह


हम और वह


दिये सबूत हजारों खुद के होने के 
लाख उपायों से हम नकारे जाते हैं


हजारों नेमतें लुटा रहा वह कब से 
फटे दामन यहाँ हम दिखाए जाते हैं 


युगों से कर रहा इशारों पर इशारे 
 बने अनजान अम्बर निहारे जाते हैं 


संग लिए जाता है बाँह पकड़ कोई 
हाथ बच्चे की तरह  छुड़ाए जाते हैं 


हर एक पल है नजरे इनायत हम पर 
 पीठ हम बेखुदी में दिखाए जाते हैं 


माना कि मद्धिम है उसकी आहट बहुत 
 सवारी विचारों की निकाले जाते हैं 


है हुकूमत उसी की जर्रे जर्रे पर 
 ‘मैं’ का परचम यूँही उड़ाए  जाते हैं 


  बता सकता था उससे मिलने का सबब 
उस फकीर से  किस्मत पढ़ाये जाते हैं 


सुना है खुद के पार जाकर मिलता है 
खड़े तट पे सी हम बुलाये जाते हैं 


झीना पर्दा  था दरम्यां, गिरा  देते 
ऊँची दीवारें भी चुनाये जाते हैं 



शनिवार, दिसंबर 7

वही सदा मुक्त है


वही सदा मुक्त है

जो भी सुना है
जो भी अनसुना रह गया है
जो भी जाना है
जो भी अजाना रह गया है
जो भी कहा है
जो भी अनकहा रह गया है
जो भी लखा है
जो भी अदेखा रह गया है
वह इन सबसे जुदा है
वही खुदा है !

जो मंदिर में भी है
जो मंदिर में ही नहीं है
जो मस्जिद में भी है
जो मस्जिद में ही नहीं है
जो गिरजे में भी है
जो गिरजे में ही नहीं है
जो गुरुद्वार में  है
गुरुद्वार में ही नहीं है
वही तो सब तरफ है
वही परम है !

जो कल भी था
जो कल भी रहेगा
जो आज भी है
आज के बाद भी रहेगा
जो समय से पूर्व था
समय के बाद भी रहेगा
वह कालातीत है
वही प्रीत है !

जो अति सूक्ष्म है
जो अति विशाल है
जो निकटस्थ है
जो सबसे दूर है
जो अनंत है
वही परम् आनंद है !

जो आँखों से दिखाता है
नजर नहीं आता है
जो कानों से सुनाता है
सुना नहीं जाता है
जो मन से लुभाता है
नींदों में सुलाता है
जो नित्य जाग्रत है
वही सदा मुक्त है !

गुरुवार, दिसंबर 5

लहर उठी सागर में ऐसे


लहर उठी सागर में ऐसे



अभी-अभी इक लहर उठी है
अभी-अभी  इक महक जगी है,
अभी-अभी इक कुसुम खिला है
अभी-अभी इक बूँद झरी है !

लहर उठी सागर में ऐसे
दूर कहीं जाना हो जैसे,
तट से टकरा लौट ही गयी
आहत हुआ सजल तन कैसे !

सागर बाँह पसारे ही था
दिया आश्रय लहर को ज्यों ही,
गहन मिला विश्राम उसी पल
लौट गया ज्यों पंछी घर को !

मन भी दौड़ लगाना चाहे,
किंतु कहीं भी चैन न मिलता !
सागर जैसे उस अनंत को
पाकर ही मन मुकुर निखरता !

कभी कमल बन खिल जाता मन
किंतु महक भी साथ छोड़ती,
पल दो पल में कुम्हला जाता
चाहे वर्षा धार डुबोती !

सुख का स्रोत कहीं तो होगा
जो रूप, रस, गंध उड़ेंले,
अमिय अमित जो चाहे चखना
उस से जाकर  नाते जोड़े !



सोमवार, दिसंबर 2

मन से अमन तक

मन से अमन तक 



हर श्वास वर्तमान में घटती है 
हर वचन वर्तमान में बोला जाता है 
हर भाव वर्तमान में जगता है 
हर फूल वर्तमान में खिलता है 
हर भूख वर्तमान में लगती है 
हर गलती वर्तमान में ही हो रही होती है 
सब कुछ घटा है और घट रहा है वर्तमान में 
तो मन क्यों नहीं रहता वर्तमान में 
कभी बीते हुए कल को ले आता है 
कभी भविष्य को लेकर डरता है 
यूँही तिल का ताड़ बनाकर 
कल्पनाओं में घरौंदे बनाता-बिगाड़ता है 
मन जिसे कहते हैं 
वह भूत और भावी की परछाई है 
भूत जो कभी वर्तमान था 
भावी जो कभी वर्तमान बनेगा 
मन एक प्रतिबिम्ब है 
छाया मात्र.. 
और उसी से चलता है जीवन 
ऐसा जीवन भी एक भ्रम के अतिरिक्त भला क्या होगा 
मन सदा पुराने को ढोता है 
भविष्य को भी अतीत के चश्मे से देखता है 
वास्तविक जीवन इसी क्षण में है 
जब अस्तित्व मौजूद है पूर्ण रूप से 
जिसे ढाल सकते हैं नए-नए रूपों में 
वर्तमान सदा नया है 
हर पल अछूता, प्रेम पूर्ण  
हर पल असीम और अनंत !

शनिवार, नवंबर 30

छिपा अरूप रूप के पीछे

छिपा अरूप रूप के पीछे


इश्क में जो भी डूबा यारा
बहती भीतर अमृत धारा,
जब-जब उस से लगन लगाई
जल जाती हर झूठी कारा !


जब कण-कण में वही बसा है
नयनों से फिर कौन पुकारे,
स्मित उसका पट छूकर आयी
भाव पंख से जिसे सँवारे !


हल्का-हल्का सा स्पंदन है
किस अनदेखे का नर्तन है,
पलक झपकते निमिष मात्र में
महाकाल का शुभ वंदन है !


छिपा अरूप रूप के पीछे
उसे निहारा किन नयनों से,
सुख की गागर सदा लुटाये
व्यक्त हुआ ना वह बयनों से  !


रूप, रंग, रस स्वाद अनूठा
कौन सुनाये अपनी गाथा,
कोई नहीं अलावा उसके
खुला रहस्य उसने बांचा !

शुक्रवार, नवंबर 29

निशदिन बँटता जाता है वह



निशदिन बँटता जाता है वह



चाँद, सितारे, सूरज मांगे
वही बने हकदार ज्योति के,
काली रातें आँसू चाहे
कैसे  बिछें उजाले पथ में !

निशदिन बँटता जाता है वह
खुद ही तो जड़-चेतन होकर,
अनगिन बार मिला है सब कुछ
फिर-फिर द्वार खड़े सब खोकर !

कितनी बार ख़ुशी छलकी थी
अंतर प्रेम जगाया  सुंदर,
कितने मीत बनाए जग में
कितने गीत रचे थे मनहर !

जितना पाया वह क्या कम था
तुष्टि पुष्प खिला नहीं अब तक,
हो कृतज्ञ कहाँ छलके अश्रु
फिर भी देते जाता है रब !

जो भी जिसने माँगा जग में
अकसर वही वही पाया है,
जितना बड़ा किसीका दामन
उतना उसी में समाया है !


बुधवार, नवंबर 27

तू


तू 


जर्रे जर्रे में छिपा है तू ही
बोलता है हर जुबां से तू ही,
हरेक दिल, हर जिगर का बाशिंदा
हर सवाल का जवाब है तू ही !

हर चुनौती इक खेल है जहाँ में
चप्पे-चप्पे पर बिछा है तू ही,
हर दर्द तुझसे मिलने का सबब
हरेक तरंग, हर लहर है तू ही !

किसलिए डरें, तंज करें जग  पर
जब कि हर बात बनाता है तू ही,
तुझ से उपजा हर फलसफा जग का
तेरी रहमत जानता है तू ही !

हर फ़िक्र तुझसे दूर रखती है
हर निशां से झलकता है तू ही,
हर  रस्ता मंजिल की तरफ  जाता
इशारे दिए जाता है तू ही !

मंगलवार, नवंबर 26

मन


मन 

सोया है मन युगों-युगों से
सुख स्वप्नों में खोया भी है

कुछ झूठे अंदेशों पर फिर
रह-रह नादां रोया भी है

सुख-दुःख की लहरों पर चढ़कर
दामन व्यर्थ भिगोया भी है

माया के कंटक से बिंधकर
अश्रुहार पिरोया भी है

प्रेम पीर से आहत होकर
अंतर राग समोया भी है

सूखे पत्तों से भरा हुआ
उर का आंगन धोया भी है

पुनः-पुनः उसी राह पर जाये
सुनी सीख यह गोया भी है

सोमवार, नवंबर 25

कल आज और कल

कल आज और कल

फ़िक्र कल की क्यों सताए
आज जब है पास अपने,
कल लगाये  बीज ही तो
पेड़ बन के खड़े पथ में !

मौसमों की मार सहते
पल रहे थे, वे बढ़ेंगे,
गूँज उनकी दे सुनायी
गीत जो कल ने  गढ़े थे !

एक अनुभव एक स्पंदन
सुगबुगाया था मनस में,
एक चाहत लिए आयी
द्वंद्व के इस  बाग बन में !

कर्म को पूजा बनाया
एक गौरव पल रहा था,
ध्यान पूजा अर्चना में
जगत सारा जल रहा था !

चेतना कब मुक्त होगी
भेद सारा छिपा इसमें,
कब तलक चलते रहेंगे
बस एक अंधी दौड़ में !