शुक्रवार, अक्तूबर 29

टेर लगाती इक विहंगिनी

टेर लगाती इक विहंगिनी


इन्द्रनील सा नभ नीरव है

लो अवसान हुआ दिनकर का,

इंगुर छाया पश्चिम में ज्यों  

हो श्रृंगार सांध्य बाला का !


उडुगण छुपे हुए जो दिन भर

राहों पर दिप-दिप दमकेंगे,

तप्त हुई वसुधा इतरायी

शीतलता चंद्रमा देंगे !


उन्मीलित से सरसिज सर में

सूर्यमुखी भी ढलका सा है,

करे उपराम भास्कर दिन का 

अमी गगन से छलका सा है !


कर-सम्पुट  में भरे पुष्पदल

संध्या वन्द करें बालाएं,

कन्दुक खेलें बाल टोलियाँ

लौट रहीं वन से चर गाएं !


तिमिर घना ज्यों कुंतल काले

संध्या सुंदरी के चहुँ ओर,

टेर लगाती इक विहंगिनी

केंका करते लौटें मोर !




मंगलवार, अक्तूबर 26

जाना है उस दूर डगर पर

जाना है उस दूर डगर पर

दिल में किसी शिखर को धरना
सरक-सरक कर बहुत जी लिए,
पंख लगें उर की सुगंध को
गरल बंध के बहुत पी लिए !

जाना है उस दूर डगर पर
जहाँ खिले हैं कमल हजारों,
पार खड़ा कोई लखता है
एक बार मन उसे पुकारो !

जहाँ गीत हैं वहीं छिपा वह
शब्द, नि:शब्द युग्म के भीतर,
भीतर रस सरिता न बहती
यदि छंद बद्ध न होता अंतर !

सागर सा वह मीन बनें हम
संग धार के बहते जाएँ,
झरने फूटें सुर के जिस पल
 झरे वही, लय में ले जाये !

रिक्त रहा है जो फूलों से
विटप नहीं वह बन कर रहना,
गंध सुलगती जो अंतर में
वह भी चाहे अविरत बहना !

निशदिन जो बंधन में व्याकुल
मुक्त उड़े वह नील गगन में,
प्रीत झरे जैसे झरते हैं
हरसिंगार प्रभात वृक्ष से  !

रविवार, अक्तूबर 24

जब उर अंधकार खलता है

जब उर अंधकार खलता है 


जगमग शिखि समान तब कोई 

सुहृद सहज आकर मिलता है 


 पूर्ण हुआ वह राह दिखाता

नहीं अधूरापन टिकता है 


अविरल बहे काव्य की धारा 

उर मरुथल बन क्यों रहता है 


थिर पाहन सा जब हो मानस 

निर्झर तब उससे बहता है 


प्रीत अगन उसको पिघला दे 

मन जो सघन विरह सहता है 


गुरुवार, अक्तूबर 21

शून्य का अर्थ

शून्य का अर्थ


घुटनों पर नोटबुक कलम हाथ में 

मानो कोरा काग़ज़ आमंत्रण दे 

दिल से होते 

कुछ बंध उतरे 

मन व हाथों में यह कैसा नाता है 

अंतर्जगत को जो पन्ने पर उकेर आता है 

अमूर्त को मूर्त किया 

शब्द का रूप दिया 

उपजे थे चेतना से 

कोई नहीं जिससे परे 

अंतत: शून्य को ही 

 कलम पन्ने पर उतारती 

लाख प्रयत्न करें पर 

जिसे हम पढ़ नहीं पाते 

क्या इसीलिए लोग कविता के 

अपने-अपने अर्थ लगाते !


मंगलवार, अक्तूबर 19

इतिहास बार-बार दोहराता है स्वयं को

इतिहास बार-बार दोहराता है स्वयं को 

मंदिर तोड़े जा रहे हैं 

खंडित हो रही हैं मूर्तियाँ 

धर्म के नाम पर अत्याचार और हैवानियत का 

एक बार फिर प्रदर्शन है 

जाने यह कैसा विचित्र दर्शन है 

जिसमें दूरियाँ पाटी नहीं जा सकीं 

शताब्दियों में भी 

एक अंधी मानसिकता पनप रही है 

जो असहिष्णु तो है ही 

मान लिया लिया है जिसने स्वयं को श्रेष्ठ 

जो धर्म आदमी में ख़ुदा नहीं देख पाता 

वह कैसे राह दिखाएगा 

अबोध भेड़ों की तरह जिधर चाहे कोई भी

 हांकता हुआ ले जाता है 

जियो और जीने दो का मंत्र नहीं आता जिसे

 देखें, वह कब तक स्वयं को बचा पाता है !


सोमवार, अक्तूबर 18

लेकिन सच है पार शब्द के


लेकिन सच है पार शब्द के


कुदरत अपने गहन मौन में

निशदिन उसकी खबर दे रही,

सूक्ष्म इशारे करे विपिन भी 

गुपचुप वन की डगर कह रही ! 


पल में नभ पर बादल छाते

गरज-गरज कर कुछ कह जाते

पानी की बौछारें भी तो

पाकर कितने मन खिल जाते !


जो भी कुछ जग दे सकता है

शब्दों में ही घटता है वह,

लेकिन सच है पार शब्द के

जो निशब्द में ही मिलता है !


‘सावधान’ का बोर्ड लगाये

हर कोई बैठा है घर में,

मिलना फिर कैसे सम्भव हो

लौट गया वह तो बाहर से !


या फिर चौकीदार है बुद्धि

मालिक से मिलने ना देती,

ऊसर-ऊसर ही रह जाता

अंतर को खिलने ना देती !


प्राणों का सहयोग चाहिए

भीतर सखा  प्रवेश पा सके,

सच को जो भी पाना चाहे

मुक्त गगन सा गीत गा सके !


शुक्रवार, अक्तूबर 15

विजयादशमी


विजयादशमी 


आज विजयादशमी है !

आज भी तो रावण के पुतले जलेंगे,

क्या वर्ष भर हम रावण से मुक्त रहेंगे ?

नहीं,...तब तक नहीं

जब तक, दस इन्द्रियों वाले मानव का

विवेक निर्वासित किया जाता रहेगा,

और अहंकार

बुद्धि हर ले जाता रहेगा,

अब सीता राम का मिलन होता ही नहीं

यदि होता तो राष्ट्र आतंक के साये में न जीते

 विकास के नाम पर रसायन युक्त अन्न 

और हवा के नाम पर जहर न पीते

न होती विषमताएं समाज में

आखिर कब घटेगा दशहरा हमारे भीतर?

कब ?

तभी न, जब

विवेक का साथ देगा

वैराग्य 

दोनों प्राण के जरिये

बुद्धि  को मुक्त करेंगे

तब होगा रामराज्य

जर्जर हो यह तन, बुझ जाये मन

उसके पहले

जला डालें अपने हाथों

अहंकार के रावण, मोह के  कुम्भकर्ण

लोभ के मेघनाथ भी

उसी दिन होगी सच्ची विजयादशमी !

बुधवार, अक्तूबर 13

अहंकार छाया है

अहंकार छाया है


इच्छा जब सिमट गयी  

 खुद का भान हुआ,  

 करने की फ़ांस मिटी 

दीप जल ध्यान का !


वहीं समाधान मिला 

जीवन सवाल का, 

स्वयं की ही खोज थी 

बेबूझ बात का !


अधरों पर स्मित जागा 

अंतर  चैन बहा, 

किस भ्रम में खोया मन 

क्यों यह खेल सहा !


मन ही तो माया है 

राज यह खुल गया, 

अहंकार छाया है 

भय का सबब मिटा !


सोमवार, अक्तूबर 11

भू से लेकर अंतरिक्ष तक


भू से लेकर अंतरिक्ष तक

कोई अपनों से भी अपना 
निशदिन रहता संग हमारे,
मन जिसको भुला-भुला देता 
जीवन की आपाधापी में !

कोमल परस, पुकार मधुर सी 
अंतर पर अधिकार जताता,
नजर फेर लें घिरे मोह में 
प्रीत सिंधु सनेह बरसाता !

साया बनकर साथ सदा है 
नेह सँदेसे भेजे प्रतिपल,
विरहन प्यास जगाये उर में 
बजती जैसे मधुरिम कलकल  ! 

अखिल विश्व का स्वामी खुद ही 
रुनझुन स्वर से प्रकट हो रहा,
भू से लेकर अंतरिक्ष तक
कैसा अद्भुत नाद गूँजता ! 

कान लगाओ, सुनो जागकर 
वसुधा में अंकुर गाते हैं,
सागर की उत्ताल तरंगे 
नदियों के भंवर भाते हैं !

जागें नैना मन भी जागे
चेतनता कण-कण से फूटे,
मेधा जागे, स्वर प्रज्ञा के 
हर प्रमाद अंतर से हर ले ! 

शुक्रवार, अक्तूबर 8

काली माँ, कपालिनी अम्बा

काली माँ, कपालिनी अम्बा


कल्याणी, निर्गुणा, भवानी

अखिल विश्व आश्रयीदात्री,

वसुंधरा, भूदेवी, जननी

धी, श्री, कांति, क्षमा, सुमात्री !


श्रद्धा, मेधा, धृति तुम माता 

अम्बा गौरी, दुःख निवारिणी

जया, विजया, धात्री, लज्जा

कीर्ति, स्पृहा, हो दया कारिणी !


चिन्मयी दिव्य पराम्बा तुम

उमा, पार्वती, सती, भवानी,

ब्रह्मचारिणी, ब्रह्मस्वरूप 

सावित्री, शाकम्बर देवी !


काली माँ, कपालिनी अम्बा

स्वाहा तुम्हीं स्वधा कहलाती,

विश्वेश्वर, आनन्ददायिनी

क्षेमंकरी, पर्वत वासिनी  I


त्रिगुणमयी, करुणामय, कमला

चण्डी, शाम्भवी, हो सुभद्रा,

हे भुवनेश्वरी, मात गिरिजा

मंगल दायी, हे जगदम्बा !  


सिंह वाहिनी, कात्यायनी

चंद्रघंटा, कुष्मांडा भी, 

अष्टभुजा, स्वर्णमयी माता 

त्रिनेत्री तुम सिद्धि दात्री I


बुधवार, अक्तूबर 6

देवी का आगमन सुशोभन


देवी का आगमन  सुशोभन 


देवी दुर्गा जय महेश्वरी 

 राजेश्वरी, मात जगदम्बा,  

आश्विन शुक्ल नवरात्रि शारद

अद्भुत उत्सव कालरात्रि का ! 


देवी का आगमन  सुशोभन 

उतना ही है भव्य प्रतिगमन,

जगह-जगह पंडाल सजे हैं

करते बाल, युवा सब नर्तन !


गूंजे घंटनाद व निनाद

सजे मार्ग, मंदिर कंगूरे,

शक्ति बिन शिव हों नहीं पूरे 

सृष्टि कार्य सब रहें अधूरे ! 


इच्छा, क्रिया, ज्ञान शक्ति तुम्हीं 

अन्नपूर्णा, विशालाक्षी,

कोटिसूर्य सम काँति धारिणी

शांतिस्वरूप, आद्याशक्ति !


विनाश किये मुंड और चंड,

ज्योतिर्मयी, जगतव्यापिनी,

कुंडलिनी शक्ति स्वरूपा माँ 

महिषा असुरमर्दिनी प्रचंड  !




सोमवार, अक्तूबर 4

अनंत के दर्पण में

अनंत के दर्पण में 


अंतर के तनाव को 

आत्मा के अभाव को 

भावों का रूप बनाकर  

कविता रचती है !

मानो पंक में कमल उगाती  

जीवन में कुछ अर्थ भरती है !

इस अंतहीन दुनिया में 

अरबों मस्तिष्कों के 

 साथ, एक नाता बांधती  

ज्यों अधर में ठहरती है !

अनंत के दर्पण में 

अनायास ही संवरती

बार-बार सच का सामना कराती  

जो अवाक कर दे 

वही बात सुनाती है !

अनावृत हो आत्मा 

गिर जाएँ सारे आवरण 

तभी वह उतरती  

डोलते हुए भंवर में 

टिकने को थल देती है !