सोमवार, दिसंबर 31

नए वर्ष की दास्तान


नए वर्ष की दास्तान

कैसे कहें शुभ हो नव वर्ष
जब की बिछी है सामने
जाते हुए वर्ष की खून से लथपथ देह
पिछले वर्ष भी तो यही कहा था
पर नहीं थमा आतंक
रुका नहीं मौत का तूफान...
लील गया
कभी निर्दोष स्कूली बच्चों को
लुटती रही अस्मत मासूमों की
कभी राजधानी की सड़कों पर
इतना बेरहम हो गया इंसान !
 आज कौन किसकी सुनता है ?
दी, ली, जाती हैं शुभकामनाएँ
पहले से कहीं ज्यादा पर  
कौन किसको सुनता है ?
बादल गरज कर चले गए, मोर नहीं नाचे
कौन रुकता है कूक कोकिल की सुनने 
सड़क पर खून से सने व्यक्ति की
सुनी नहीं पुकार जब किसी ने
कान नहीं दिए पड़ोसी ने
जब मचता रहा हाहाकार...
नहीं सुनती जनता भी जब सच की आवाज
तो नहीं ही सुनते नेता बैठकर
होता जब अत्याचार...
बदल जायेगा कैलेंडर आधी रात को
पर क्या बदल पायेगा नसीब हम मानवों का
जो बने हैं दुश्मन अपनी ही जान के
तो कैसे कहें शुभ हो नव वर्ष...

सोमवार, दिसंबर 24

आया हूँ मैं प्रेम लहर बन



आया हूँ मैं प्रेम लहर बन

अंधकार में जो बैठे थे
ज्योति उन्हें जगाने आई,
मृत्यु की छाया थी जिन पर
जीवन सरिता थी लहराई !

कहा था उसने, जागो अब तो
अपने भीतर स्वर्ग को पा लो
आया हूँ मैं प्रेम लहर बन
अंतर-बाहर सभी भिगा लो !

झील किनारे जब गलील की
इक दिन यीशू टहल रहे थे,
जाल डालते देख कहा यह  
आओ, मेरे पीछे पीछे !

 पतरस, अन्दियास के जैसे  
याकूब और यूहन्ना भी,
साथ हो लिए थे यीशू के
पीड़ा हरते तन की मन की !

सभागृहों में घूमा करते
देश सीरिया में मिलकर नित,
स्वस्थ किया रोगों से जन को
यश फैला था उनका अद्भुत !

सुना है तुमने, दंड मिलेगा
जो हिंसा का कृत्य करेगा,
लेकिन वह भी दोषी होगा
जो भाई पर क्रोध करेगा !

चाहे जितनी बार कही हो
मधुर प्रार्थना बारम्बार,
मन में यदि द्वेष भरा हो
पूजा न होती स्वीकार !

स्वर्ग पिता का सिहांसन है
ध्यान रहे यह सत्य हो वाणी,
धरती है पांव की चौकी
पड़े किसी को शपथ न खानी !

बाहर भीतर एक हुआ जो
वही प्रभु का प्यारा बनता,
शत्रु नहीं जगत में जिसका
नहीं दिखावा जिसको भाता !

धर्म व्यवस्था दृढ़ करने ही
यीशू इस जग में था आया,
उसकी प्रीत में झूमें मिल कर
क्रिसमस यही सिखाने आया ! 

शुक्रवार, दिसंबर 21

जहाँ नारी का अपमान होता है....



जहाँ नारी का होता है अपमान

जैसे क्रूस पर चढ़ा हो कोई मसीहा
औरों के लिए..
माथे पर काँटों का मुकुट धारे
जिससे टपकती हो रक्त की धारा
हाथों-पैरों में चुभोये गए नश्तर...

व्यर्थ नहीं जायेगा उसका बलिदान भी
जूझ रही जो अस्पताल के कमरे में
बचायेगी हजारों मासूमों को
 उसकी यह पीड़ा
बहरों के कानों के लिए बनी बम
सोते हुओं को जगाने के लिए
काली की चीत्कार...
मांगती है इंसाफ
उसके लहू की हर बूंद
न सिर्फ खुद पर हुए जो अनाचार  
वरन हर वह पुकार  
जो घुट कर रह गयी होगी
दरिंदों के सामने..

बस अब और नहीं..
वह बनी है मिसाल
सहकर जख्म जिस्मोरूह पर..
चढ़ी है सूली पर
 ताकि चैन से जी सकें
भारत की नारियां...
वरना कहता ही रहेगा 
हर नारी का आत्म सम्मान
नहीं आना उस देश में
जहाँ नारी का होता है अपमान...






बुधवार, दिसंबर 19

अब जब




अब जब

अब जब कुछ करने को नहीं है
तो समय की अनंत राशि बिखरी हुई है
चारों ओर...

अब जब कहीं जाना नहीं है
दूर तक सीधी सुकोमल राह बिछी है
फूलों भरी...

अब जब सुनने को कुछ शेष नहीं रह गया
उपवन गुंजाता है भीतर अहर्निश कोई रागिनी
गूंजते हैं मद्धिम मद्धिम पायल के स्वर...

अब जब देखने की चाह नहीं है  
नित नए रंगों में रूप दीखता है
लुभाती है इठलाती हुई प्रकृति....

अब जब कि कुछ पाना नहीं है
सारा अस्तित्व ही पनाह लेता दीखता है भीतर
आँख मूंदते ही...

अब जब कि कुछ जानना नहीं है
वह आतुर है अपने रहस्य खोलने को....

रविवार, नवंबर 25

दिल के तो पास है


प्रिय ब्लॉगर साथियों,  मैं बनारस व बैंगलोर की यात्रा पर जा रही हूँ, अब दिसंबर के तीसरे सप्ताह में मुलाकात होगी. आने वाले वर्ष के लिए तथा क्रिसमस के लिए अग्रिम शुभकामनायें...


दिल के तो पास है 

अंबर की झील में 
चंदा की नाव है 
तारों की मीन सुंदर 
रंगो का गांव है  !

जाने किस लोक में 
परियों के गांव हैं 
फूल जहाँ बातें करते 
रोशन सी छाँव है !

मोती का नूर है 
ज्योति की हूर है,
दिल के तो पास है 
हाथों से दूर है ! 

गुरुवार, नवंबर 22

प्रेम की सीढ़ी मन चढ़ता है



प्रेम की सीढ़ी मन चढ़ता है


रेशमी ख्वाब बुनने हैं, रोशनी के गीत गुनने हैं
चांदनी चादर बिछा दो, फूल कुछ खास चुनने हैं


पांखुरी पांखुरी बोल रही है
कली ने सुगबुग ऑंखें खोलीं,
सज गयी बारात सुरभि ले
फूलों की ही सजी है डोली !

कमल नयन हैं जिसके सुंदर
कमल उसे भाते हैं मनहर,
मंदिर मंदिर कमल सजे हैं
कमल खिले हैं मन के भीतर !

गीत गूंजते मधुर निरंतर
नूर, नाद, अमृत भी बरसे,
हीरे, मोती, माणिक चमके
पल-पल द्युति अनुपम इक बरसे !

भीतर जब सूरज उगता है
प्रेम की सीढ़ी मन चढ़ता है,
झिलमिल ज्योत जिस दीये की
दिल के मंदिर में जलता है ! 




सोमवार, नवंबर 19

पारिजात क्यों झर जाते हैं






फूलों, रंगों, झरनों वाले, क्यों भाते हैं गीत
तू बसता है इनमें स्वयं ही, तू जो सबका मीत !


कुहू कुहू कूजन वूजन
सब तुझसे ही घटती है,
एक लोक है इससे सुंदर
सदा वहीं से आती है !

यह हल्की सी छुवन है तेरी
पत्तों की सरसर भी तुझसे,
शरद काल का नीला अम्बर
कहता तेरी गाथा मुझसे !

हरी कोंपलों पर किरणों की
 चमक रूप नए धरती है,
स्वर्णिम तेरा रूप अनोखा
छवि कैसी पुलक भरती है !

केसरिया, श्वेत तन वाले
पारिजात क्यों झर जाते हैं,
तेरे सुरभि कोष से लेकर
कतरे चंद बिखर जाते हैं !

धूप-छाँव का खेल अनोखा
दिवस-रात्रि का मेला अद्भुत,
तूने सहज रचा है प्रियतम
तू ही बदली तू ही विद्युत !  

शुक्रवार, नवंबर 16

कवयित्री डॉ माधुरी लता पाण्डेय का काव्य-संसार - खामोश ख़ामोशी और हम में


खामोश खामोशी और हम की अगली कवयित्री हैं, वाराणसी में जन्मी व पढीं डा. माधुरी लता पाण्डेय. सम्प्रति माधुरी जी अध्यापनरत हैं. इनका इ-मेल पता है- mip.7.n.63@gmail.com तथा ब्लॉग का पता है- http:/kavyanjali-madhuri.blog.spot.com, लिखना-पढ़ना, भारतीय संगीत सुनना एवं गुनगुनाना, घूमना और प्रकृति को निहारना उन्हें भाता है. इन्होंने अपना काव्यात्मक परिचय कुछ ऐसे दिया है-

मुझ से मत पूछो मेरा गांव
सृष्टि विद्या का अंग बनी हूँ
पवन सरीखा बहता जीवन
इक तरुवर पारा पाया ठांव
है आदि अंत, अनभिज्ञ अनंत
सुदृढ़ तटबंधों वाली सरिता सा
पड़ता नहीं किनारे पांव

इस पुस्तक में इनकी छह कवितायें हैं. विभिन्न विषयों पर लिखी ये कवितायें गहरे भावों तथा सुंदर, सहज भाषा के कारण पठनीय हैं. इनमें प्रकृति का भी मनहर चित्रण हुआ है. पहली कविता है-  

मैं नदी हूँ
लहर के प्रतिघात को
थामे हुए तटबंध वाली
मैं नदी हूँ
बह रही हूँ

...
उल्लसित सी
गान करती
..
संताप हरती
सजल विस्तार हूँ
मैं नदी हूँ
बह रही हूँ

उफनती जब गांव में
तो सिमट आते
तप्त आदम
जर्जरित से शाख-तरु
..
हृदय में धार लेती
सिमट आती पुनः अपनी ही
छाती में-
बड़ी आधार हूँ !
मैं नदी हूँ
बह रही हूँ

चटकती धरती गुजरते
मेघ का परिहार करती
आम्र, वट, पीपल सरीखे
गर्भ का संभार वरती
..
मैं नदी हूँ
बह रही हूँ

बोलो अब क्या राग सुनाऊं एक बंजारन की कथा-व्यथा है जो अपनी टोली से दूर है और दूर है अगले पड़ाव से भी-

मैं बंजारन ठाठ लिए पथराई बैठी
बोलो अब क्या गीत सुनाऊं?
मस्ती भूली, टोली बिखरी
ढपली पर क्या थाप लगाऊँ?

...
रात घिर रही बियाबान है
..
कितनी दूरी पर सराय है
अब यह कैसे पता लगाऊँ?

बस्ती पर्वत नाप लिए हैं
रस्सी पर चलकर देखा है
दो तली दो सिक्के बांधे
मन में किसका ठौर लगाऊँ?

...
धौल धूम, धुप्पल के आगे
बोलो अब क्या राग सुनाऊं

पृष्ठ का श्रृंगार एक साक्षी भाव में लिखी गयी एक सुंदर कविता है, जिसमें कवयित्री पंक्ति दर पंक्ति कोरे पन्ने को शब्दों से सजते हुए देखती है जब कोई कवि या लेखक अपने भावों व विचारों को उस पर अंकित करता है-

हाशिए पर खड़ी रहकर
देखती हूँ-
पृष्ठ की सजती हुई हर पंक्ति !
...
कहीं बेबाक सी हैं पंक्तियाँ
कहीं है भाव विह्वल
थके-हारे दिखलाई पड़े
विश्राम स्थल.
..
प्रश्न-उत्तर के
क्रमों की डोर थामे
हाशिए पर खड़ी रहकर
मौन होकर देखती हूँ
..
काफिये और हाशिए के बीच का संवाद
फिर रचेगा व्यूह उपसंहार का
पृष्ठ का श्रृंगार यूँ ही
बन पडेगा
जब फिर रचेगा व्यूह उपसंहार का

इनकी अगली कविता है, अम्बर के साये में बैठा एक परिंदा जिसमें पंछी के बहाने जीवन के परिवर्तन और हर पल घटती हुई एक प्रतीक्षा, एक भय का बखूबी चित्रण हुआ है-

अम्बर के साये में बैठा एक परिंदा
ऋतुओं के सैलानीपन को भाँप रहा है
सड़क-सड़क से पगडंडी से पगडंडी तक
आने-जाने वाला रास्ता नाप रहा है

...
दाने-दाने, तिनके-तिनके
इनके-उनके, उनके-इनके
लिए चोंच में प्राण-पखेरू
जन-मन, तन-धन आंक रहा है
...
आखेटक हैं जल बिछाए
...
अंदर रखे सुनहले पिंजरे
को वह भोला तक रहा है

आने-जाने वाला रास्ता नाप रहा है
अम्बर के साये में बैठा एक परिंदा

स्वप्न और जीवन एक दूसरे में गुंथे है, स्वप्न देखना और उन्हें कभी पूर्ण होते हुए तो कभी टूटते हुए देखना मानव की नियति है, स्वप्न निर्झर से बहे हैं में इन्हीं स्वप्नों की करुण कहानी है-

स्वप्न निर्झर से बहे हैं
स्रोत है दीखता नहीं है
कहीं छुपते, कहीं रुकते
गिरे गहरे अतल में
कितने दुःख सहे हैं !
स्वप्न निर्झर से बहे हैं


..
..
पारदर्शी रूप ले
अभिसार कर
मोहिनी सुधि ले
हर पल चले हैं !
स्वप्न निर्झर से बहे हैं !
..
अंधकारों में उलझते
ज्योत्स्नाओं से सुलगते
हर सुबह कुछ सर्द
बूंदों में ढले हैं !
स्वप्न निर्झर से बहे हैं

माधुरी जी की अंतिम कविता रहस्यवादी है, सखि की सजनी, सजनी की सखि में उस अनजाने सजन की प्रतीक्षा में रत सखि के माध्यम से गहन जीवन दर्शन व्यक्त हुआ है-

सुंदर बन्दनवार सजाये
खुले द्वार पर आँख टिकाये
किसको देखा करती पगली ?
जो तेरे होकर न आए ?

सपनों में झिलमिल तारे भर
...
चल उठ उनकी अगवानी कर
..
आहा ! निशा के वलय क्रोड में
किसकी गरमाई सांसे हैं ?
कौन सुहागन सिसकी भरती
किसकी शरमाई सांसे हैं ?
..
द्वंद्व जगत का ताना-बाना
यहाँ सदा ही आना-जाना
..
बांच रही है पाती किसकी
जग है जिसका तू है जिसकी ?
यहीं ठहर जा, समझ गयी तू
सखि की सजनी, सजनी की सखि.

कवयित्री माधुरी की कविताएँ प्रकृति के सहज उल्लास, भावनाओं की मधुरता और सामान्य जीवन में छुपे सौंदर्य की ओर पाठक का ध्यान सहज ही ले जाती हैं, आशा है सुधी पाठकों को भी ये भाएँगी.