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मंगलवार, अगस्त 13

पीड़ा

पीड़ा 

ऐसी ही तो होती है पीड़ा

जैसे जम गया हो भीतर 

उदासी का एक पर्वत  

अवरोधित हो गयी हो

अविरल धारा 

जो बहा करती थी निर्द्वंद्व !

तरस रहा हो प्रेम का पंछी 

भरने को उड़ान 

क़ैद है शिशु ज्यों 

माँ के गर्भ में

समय से ज़्यादा 

पा रहा है पोषण 

पर तृप्त नहीं  

जन्मना चाहता है 

हवाओं में सांस लेना 

खुली धूप में चलना 

दौड़ना चाहता है 

पाना चाहता है तुष्टि 

प्रकृति के सान्निध्य में ! 


बुधवार, जुलाई 17

पीड़ा


पीड़ा 

पीड़ा अभिशाप नहीं

वरदान बन जाती है 

जब सह लेता है कोई 

धैर्य और दृढ़ता से

अपरिहार्य है पीड़ा

यदि देह को सताती है 

अधिक से अधिक मन तक

हो सकती है उसकी पहुँच

पर 'स्वयं' अछूता रह जाता है 

पीछे खड़ा 

वही असीम शक्ति देता है 

वह स्रोत है 

वही लक्ष्य भी 

हर संदेह से परे 

जहाँ मिलेगा परम आश्रय 

मिलता आया है जीवन भर 

शांति व आनंद के क्षणों में 

सुख-दुख के प्रसंगों में 

वह संबल भरता है भीतर 

पीड़ा तप है 

व्यर्थ नहीं है यह 

इसका प्रयोजन है

शायद यह आत्मशोधन है !

गुरुवार, जून 8

रेल दुर्घटना

रेल दुर्घटना 


हो सकता है कोई हादसा 

इतना भयावह 

मानो आने वाली हो प्रलय 

उलट-पुलट गयीं बोगियाँ  

उखड़ गयीं पटरियाँ 

और डिब्बों में बैठे लोग 

भौंचक तकते रह गये 

 है यह कोई जलजला 

या दिन क़यामत का 

किसने सुनी होगी वह चीखो-पुकार 

जो उलट गये डिब्बों में 

फँसे यात्रियों ने लगायी होगी 

कोई बैठ-बैठे ही 

कोई सोये-सोये ही 

चला गया चिरनिद्रा में 

दिल डूब रहा है देशवासियों का 

देख पीड़ा का यह मंजर 

जैसे उतार रहा हो निर्दयी काल 

सीनों में ख़ंजर 

जो बच गये हैं उनके 

तन-मन  पर लगे घाव शीघ्र भरें 

पुन: स्वस्थ हों खड़े अपने पैरों पर 

यही दुआ हम उनके लिए करें ! 


गुरुवार, जनवरी 20

हर इक राह सुगम हो जाए

हर इक राह सुगम हो जाए 


हर कंटक तेरे पथ का मैं 

चुन लूँ अपने इन हाथों से, 

हर इक राह सुगम हो जाए 

दुआ दे रहा है मन कब से !


अनजाने में पीड़ा बाँटी 

खुद से ही दूरी थी शायद, 

अब जबसे  यह भेद खुला है 

पल-पल पाती भेज रहा मन !


दुःख में  सिकुड़ गया अंतर्मन 

शोक लहर जिससे बहती है, 

पाला पड़ा हुआ धरती  पर 

सूर्य किरण झट हर लेती है  !


प्रीत उजाला जब प्रकटेगा 

खो जाएगा हर विषाद तब, 

उसके अनुपम उजियाले में 

झलकेंगे पाहन बन शंकर !


मंगलवार, नवंबर 9

मन चातक सा तकता रहता


मन चातक सा तकता रहता 


सागर के तट पर बैठा हो  

फिर भी कोई, प्यासा ! कहता, 

जीवन बन उपहार मिला है 

मन चातक सा तकता रहता !


अभी बनी खोयी पल भर में 

लहर जानती कहाँ स्वयं को, 

छोटे से जीवन में अपने 

टकराया करती आख़िर क्यों !


पीड़ा का क्या यही सबब है 

सीमित इक पहचान बनायी, 

माटी का पुतला है यह तन 

स्वप्नों में ही प्रीत रचायी !


कौन जोड़ता है कण-कण को 

किससे मानस क्या बना लहर,

नित्य अजन्मा है असंग जो 

एक तत्व ऐसा भी भीतर ?


गुरुवार, अगस्त 19

इक अकुलाहट प्राणों में

इक अकुलाहट प्राणों में

 

इक दुःख की चाहत की है

जो मन को बेसुध कर दे,

कुछ कहने, कुछ ना कहने

दोनों का अंतर भर दे !

 

इक पीड़ा माँगी उर ने

जो भीतर तक छा जाये,

फिर वह सब जो आतुर है ​

आने को बाहर आये !

 

इक बेचैनी सी हर पल

मन में सुगबुग करती हो,

इस रीते अंतर्मन का

कुछ खालीपन भरती हो !

 

इक अकुलाहट प्राणों में

इक प्यास हृदय में जागे,

सीधे सपाट मरुथल में

चंचल हरिणी सी भागे 

 

गुरुवार, अक्टूबर 11

जीना इसी का नाम है


जीना इसी का नाम है 

अँधेरे कमरे में
बंद आँखों से
खाते हुए ठोकरें
वे चल रहे हैं
और इसे जीना कहते हैं...

बाहर उजाला है
सुंदर रास्ते हैं
वे अनजान हैं
इस शहर में
सो बाहर नहीं निकलते हैं....

जाने क्या आकर्षण
है इस पीड़ा में
कि दुःख को भी
बना लेते हैं साथी
बड़े एहतियात से
बना कर घाव
उस पर मरहम धरते हैं..

पुकारता है अस्तित्त्व
वह प्रतीक्षा रत है
कैसा आश्चर्य है
सीमाओं में बंधा हर मन
फड़फड़ाता है अपने पंख
पिंजरे में बंद पंछी की तरह
पर द्वार पिंजरे का
खोले जाने पर भी
नहीं जाता बाहर
अपने सलीबों से वे बंधे रहते हैं

बुधवार, जून 8

कवि और कविता


कवि और कविता

वाणी अटकी, बोल न फूटे
 अंतर का चैन कोई लूटे,
कविता दिल की भाषा जाने
कितने कूल-किनारे छूटे !

रागी मन बनता अनुरागी
भीतर कैसी पीड़ा जागी,
पलकों में पुतली सा सहेजे
भीतर लपट लगन की लागी !

उर में प्रीत भरे वह करुणा
डबडब नयना करें मनुहार,
छलक-छलक जाये ज्यों जल हो
गहराई में छिपा था प्यार !

सरल, तरल बहता मन सरि सा
घन बन के जो जम ना जाये,
अंतर उठी हिलोर उलीचे
नियति लुटाना, कवि कह जाये !


अनिता निहालानी
८ जून २०११    

सोमवार, दिसंबर 13

ज्योति बरसती पावन घन की

ज्योति बरसती पावन घन की

क्यों पीड़ा के बीज बो रहे,

मन की इस उर्वर माटी में,

खुद सीमा में कैद हो रहे

जीवन की गहरी घाटी में !


अंकुर फूटा जिस पल दुख का,

क्यों विनष्ट किया न, हो सचेत ?

झूठे अहंकार के कारण

क्यों जला दिया न, रहे अचेत ?


पनप रहा अब वृक्ष विषैला,

सुख-दुःख फलों  से भरा हुआ,

क्यों छलना से ग्रसित रहा मन

कैसे न कटा जब समय रहा I


केवल एक अटूट जागरण

दूर करेगा पीड़ा मन की,

दरिया से गहरे अंतर में

ज्योति बरसती पावन घन की !


ख़ुद के भीतर गहन गुफाएँ

छिपा हुआ जल स्रोत है जहाँ,

प्यास बुझाता जो अनंत की

ऐसा पावन मधु स्रोत वहाँ !




अनिता निहालानी
१३ दिसंबर २०१०

मंगलवार, सितंबर 14

तुम हर पल हमें बुलाते हो !



तुम हर पल हमें बुलाते हो !

जग से जिस पल खाया धोखा
जब जब दिल ने खायी ठोकर,
तुम ही तो पीड़ा बन मिलते
 झलक सत्य की दिखलाते हो !

जिनको माना हमने अपना
निकले झूठे वे सब सपने,
आधार बनाया था जिनको
छल करना उन्हें सिखाते हो !

पीड़ा भी तुम वरदान तुम्हीं
सब जाल बिछाया है तुमने,
जीवन का भेद खोलने को
वैराग्य पाठ पढ़ाते हो !

भीतर जो दर्द उठा गहरा
वह आशा से ही उपजा था,
टूटे आशा की डोर तभी
तुम ऐसे खेल रचाते हो !

अनिता निहालानी
१४ सितम्बर २०१०