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बुधवार, नवंबर 13

ऋण

ऋण 


पिता आकाश है, माँ धरा 

जो अपने अंश से 

पोषण करती है संतान का 

पिता सूरज है, माँ चंद्रमा 

जो शीतल किरणों से 

हर दर्द पर लेप लगाता है 

पिता पवन है, माँ अग्नि 

जो नेह की उष्मा से 

जीवन में रंग भरती है 

पिता सागर है, माँ नदिया 

जो मीठे जल से प्यास बुझाती है 

पिता है, तो माँ है 

आकाश के बिना धरा कहाँ होगी 

अंततः सूरज से ही उपजा है चाँद 

वाष्पित सागर ही नदी है 

दोनों पूरक हैं इकदूजे के 

और इस तरह हर कोई 

ऋणी है माँ-पिता का ! 


बुधवार, नवंबर 9

भारत



भारत 

‘देने’ को कुछ न रहा हो शेष 
जब आदमी के पास 
तब कितना निरीह होता है वह 
देना ही उसे आदमी बनाये रखता है 
मांगना मरण समान है 
खो जाता जिसमें हर सम्मान है !
देना जारी रहे पर किसी को मांगना न पड़े 
ऐसी विधि सिखा रहा आज हिंदुस्तान है !
पिता जैसे देता है पुत्र को 
माँ  जैसे बांटती है अपनी सन्तानों को 
उसी प्रेम को 
भारत के जन-जन में प्रकट होना है 
ताकि ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ 
मानने वाली इस संस्कृति की 
बची रहे आन, आँच न आए उसे !
जहां अनुशासन और संयम 
केवल शब्द नहीं हैं शब्दकोश के 
यहां समर्पण और भक्ति
 कोरी धारणाएं नहीं हैं !
यहां परमात्मा को सिद्ध नहीं करना पड़ता 
वह विराजमान है घर-घर में 
कुलदेवी, ग्राम देवी और भारत माता के रूप में 
वह देश अब आगे बढ़  रहा है !
और दिखा रहा है सत्मार्ग 
विश्व को अपने शाश्वत ज्ञान से ! 

रविवार, मई 10

माँ बनकर कभी करे दुलार


 माँ बनकर कभी करे दुलार 


कदम कदम पर राह दिखाता 
कोई चलता साथ हमारे, 
सुख-दुःख में हर देशकाल में 
करता रहता कई इशारे !

नहीं अकेले पल भर भी हम 
कोई जागा रहता निशदिन, 
पल भर हम यदि थम कर सोचें 
कौन साथ ? जब आये दुर्दिन !

उसकी महिमा वही जानता 
माँ बनकर कभी करे दुलार, 
कभी पिता सा हाथ पकड़कर 
लिए जाता भवसागर पार !

हमें भुलाने की आदत है 
वह खुद अपनी याद दिलाता,
अति सुख में जब आँख मूँदते 
दुःख में नाम अधर पर आता !

उसके पथ का राही सबको 
इक ना इक दिन बनना होगा,
प्रीत समुंदर सोया उर में  
कल कल छल छल बहना होगा !

तब तक सारे खेल-खिलौने 
माया के सँग खेल रहे हैं, 
जब तक थके नहीं हैं मानव 
तब तक दूरी झेल रहे हैं !

शनिवार, नवंबर 9

पिता

पिता 

पिता के लिए दुनिया एक अजूबा बन गयी है 
जैसे कोई छोटा बच्चा देखता है हर शै को अचरज से 
उनकी आँखें विस्मय से भर जाती हैं 
झुर्रियों से अंदर छुप गयीं सी उनकी मिचमिचाती आँखों में 
जब तब ख़ुशी का कमल खिल उठता है 
जिसे देखकर संतानों का मन भी आश्वस्त हो जाता है 
ठीक उसी तरह जैसे पिता बचपन में तृप्त होते थे 
देख-देख उनके चेहरे की मुस्कान 
वे उन्हें फेसबुक, गूगल, व्हाट्सएप से परिचित कराते हैं 
नतिनी-पोते उन्हें मोबाइल के राज बताते हैं 
कुछ देर नानुकर वह तत्पर हो जाते हैं 
सीखने आधुनिक युग की भाषा 
बटन दबाते पूरी होती कैसे  हरेक की आशा 

उनके अपने बचपन में धूल भरी गलियों में दौड़ते हुए मवेशी हैं 
किसान हैं, बंटवारे की कटु स्मृतियाँ हैं 
पर रहना सीख लिया है उन्होंने निपट वर्तमान में 
माँ भी रह गयी हैं पीछे 
शायद देखा हो कभी स्वप्नों में 
जो कभी रही थीं साथ हर सुख-दुःख में 
वे जी रहे हैं आज के हर पल के साथ कदम मिलाते
उनकी आवाज में अब भी वही रुआब है 
जिसे सुनने के लिए उत्सुक है संतान
देखना चाहती है पिता के भीतर ऊर्जा का प्रवाह 
जैसे कोई बच्चा बड़ों को धमकाए अपनी नादाँ प्यारी हरकतों से 
तो वारी जाते हैं माँ-बाप 
बच्चा आदमी का पिता होता है कवि ने सही कहा है 
चक्र घूम रहा है कब बालक बन जाता है वृद्ध 
कोई नहीं जानता

निमन्त्रण देते हैं सभी उन्हें अपने-अपने घर आने के लिए 
नए-नए आविष्कार, नए स्थान दिखाने 
सभी देखना चाहते हैं उनके चेहरे पर हँसी और मुस्कान 
दिखाना, आधुनिक सुख-सुविधाओं से भरे मकान 
पिता सन्तुष्ट हैं जैसे मिला हो कोई समाधान
ज्यादातर समय रहते हैं स्वयं में ही व्यस्त 
किताबों और संगीत की दुनिया में मस्त 
कभी अख़बार के पन्ने पलटते अधलेटे से 
लग जाती है आँख भरी दोपहरी में 
तो कभी जग जाते हैं आधी रात को ही 
अल सुबह चिड़ियों के जगने से पूर्व ही छोड़ देते हैं  बिस्तर 
अपने हाथों से चाय बनाकर पी लेते 
ताकत महसूस करते हैं वृद्ध तन में 
फोन पर जब संतानें पूछती हैं हाल तबियत का 
तो नहीं करते शिकायत पैरों में बढ़ती सूजन की 
या मन में उठती अनाम आशंका की 
दर्शन की किताबों में मिला जाता हैं उन्हें हर सवाल का जवाब 
मुतमईन हैं खुद से और सारी कायनात से 
कर लिया है एक एग्रीमेंट जैसे हर हालात से !

कार्तिक पूर्णिमा के दिन पिताजी का नवासीवां जन्मदिन है.

शुक्रवार, जुलाई 12

पिता स्रोत है


पिता स्रोत है  

हाथों के झूले में सन्तान को
झुलाया होगा उसने अनगिन बार
तो कभी झुंझला कर.. दिया भी होगा गोद से उतार !
सुने होंगे बाल मुख से... गीत और कविताएँ
शिशु को देख दुर्बल भर गयी होगी कभी आँखें
 भारी हो गया होगा मन..अनाम चिंताओं से  
झलक नहीं आया होगा भय उन दुआओं से
संयत वस्त्रों में रहने की सीख
दी होगी किशोरी होती बालिका को
 लगाई भी होगी लापरवाहियों पर फटकार
 निज पैरों पर खड़े होने की सीख सी
कभी अनसुनी भी कर दी होगी पीड़ा की पुकार
 की होगी मदद कठिन गृह कार्य में
लाकर दी होंगी पत्रिकाएँ और पुस्तकें
 सुनाई होंगी अनगिनत कहानियाँ
सह ली होंगी कितनी नादानियाँ
कुदरत के प्रति प्रेम के बीज बोये होंगे
साथ बच्चों के हरियाली राह पर चले होंगे
कंधे पर बिठाया होगा जब थके होंगे नन्हे पांव
बिठा साईकिल दिखाए होंगे नये-नये गाँव  
नहीं की होगी व्यर्थ की प्रशंसा
 व्यर्थ ही लगा होगा.. अहंकार को पोषित करना
कभी बिना कहे ही समझ ली होगी मन की बात
कहलवायी होगी कभी बालक से फरियाद
पिता पालक है.. उसके होने से सुरक्षित है संतान
माँ भी गर्व है उसी का, है परिवार का मान !


मंगलवार, नवंबर 27

स्वर्ण रश्मियों सा छू लेता




स्वर्ण रश्मियों सा छू लेता



माँ शिशु को आँचल में छुपाती
आपद मुक्त बनाती राहें,
या समर्थ हथेलियाँ पिता की
थामें उसकी नन्हीं बाहें !

वैसे ही सिमटाये अपने
आश्रय में कोई अनजाना,
उस अपने को, जिसने उसकी
चाहत को ही निज सुख माना ! 

अपनाते ही उसको पल में 
बंध जाती है अविरत डोर,
वंचित रहे अपार नेह से
 जो मुख न मोड़े उसकी ओर !

जो बेशर्त बरसता निशदिन 
निर्मल जल धार की मानिंद,
स्वर्ण रश्मियों सा छू लेता
अमल पंखुरियों को सानंद !

कर हजार फैले चहूँ ओर
थामे हैं हर दिशा-दिशा से,
दृष्टिगोचर कहीं ना होता
पर जीवन का अर्थ उसी से !

सोमवार, फ़रवरी 8

उसका मिलना


उसका मिलना


याद आता है कभी ?
माँ का वह रेशमी आंचल
छुअन जिसकी सहला भर जाती थी
 अँगुलियों के पोरों को
भर जाता था मन आश्वस्ति के अमृत से
दुबक कर सिमट जाना उस गोद में
अभय कर जाता था
नजर नहीं आती थी जब छवि उसकी
डोलती आस-पास
तो पुकार रुदन बनकर
फूट पडती थी तन-मन के पोर से
खुदा भी उसके जैसा है
जिसकी याद का रेशमी आंचल
अंतर को सहला जाता है
जिसकी शांत, शीतल स्मृति में डूबते ही
सुकून से पोर-पोर भर जाता है
माँ को पहचानता है जो वही उसे जान पाता है !

याद आता है कभी ?
पिता का वह स्नेहाशीष सिर पर
या उससे भी पूर्व उसकी अँगुलियों की मजबूत पकड़
राह पर चलते नन्हे कदमों को
जब सताती थी थकन
कंधे पर बैठ उसके मेलों में किये भ्रमण
खुदा भी उसके जैसा है
वह भी नहीं छोड़ता हाथ
अनजाने छुड़ाकर भाग जाएँ तो और है बात
पिता को मान देता है जो अंतर
वही उससे प्रीत लगा पाता
और गुरू तो मानो
जीवंत रूप है उस एक का
सही राह पर ले जाता
 गड्ढों से बचाता  
जिसने गुरु में उसे देख लिया
रूबरू एक दिन वही उससे मिल पाता !




बुधवार, नवंबर 5

जन्मदिन पर

कल पिता का जन्मदिन है


उम्र हुई, तन करे शिकायत
कभी-कभी मन भी हो आहत,
लेकिन आत्मज्योति प्रज्वलित है
दिल में बसी ईश की चाहत !

अब भी दिनचर्या नियमित है
ब्रह्म मुहूर्त में उठ जाते,
पीड़ा हँस कर सहना आता
औरों को भी राह दिखाते !

प्रभु भजन से सुबह सँवरती
दिन भर ही अध्ययन चलता है,
सुर संगीत का साथ पुराना
जिससे संध्या काल ढलता है !

संतानों को स्नेह बांटते 
नाती-पोती संग मुस्काते,
निज नाम सार्थक करके
सदा सहाय बन कर रहते !

नानक ने जो राह दिखाई
सदा उसी पर चले हैं आप,
जन्मदिन पर लें बधाई
हमें आप पर है अति नाज !



गुरुवार, अगस्त 28

वर्तन सृष्टि का

वर्तन सृष्टि का


माँ की गोद की तरह थामे है धरा
आकाश सम्भाले है पिता के हाथ की मानिंद
मखमली गलीचों से बढ़कर
कोमल दूब का स्पर्श
जो भर जाता है एक अहसास आनिंद !
स्वर्ग और कहाँ होगा कभी ?
नाचते हुए मोर देखे हैं अभी  
सुनी है पंछियों की रुनझुन
रंगो का यह अनोखा फैलाव
सागर का उतार और चढ़ाव
झुकता हर शाम लाल फूल
पर्वतों के पीछे उन अदृश्य चरणों पर
अनुपम है चमकीले सितारों का झुरमुट
कैसा अनोखा यह वर्तन सृष्टि का
खो जाता संसार और हर तरफ
है जलवा उसी का !  

गुरुवार, सितंबर 19

चलो, अब घर चलें


चलो, अब घर चलें


बहुत घूमे बहुत भटके
कहाँ-कहाँ नहीं अटके,
 बहुत रचाए खेल-तमाशे
बहुत कमाए तोले माशे !

अब तो यहाँ से टलें
चलो अब घर चलें !

आये थे चार दिन को
 यहीं धूनी रमाई,
 यहीं के हो रहे हैं
पास पूंजी गंवाई !

यादें अब उसकी खलें
चलो अब घर चलें !

कुछ नहीं पास तो क्या
 वहाँ भरपूर है आकर
पिता का प्यार माँ का नेह  
बुलाते प्रीत के आखर

आये तो थे अच्छे भले
चलो अब घर चलें !



सोमवार, जुलाई 1

पिता की स्मृति में


पिता की स्मृति में


एक आश्रय स्थल होता है पिता
बरगद का वृक्ष ज्यों विशाल
नहीं रह सके माँ के बिना
या नहीं रह सकीं वे बिना आपके
सो चले गये उसी राह
छोड़ सभी को उनके हाल....

पूर्ण हुई एक जीवन यात्रा
अथवा शुरू हुआ नवजीवन
भर गया है स्मृतियों से
मन का आंगन
सभी लगाये हैं होड़ आगे आने की
लालायित, उपस्थिति अपनी जताने की
उजाला बन कर जो पथ पर
चलेंगी साथ हमारे
बगीचे से फूल चुनते
सर्दियों की धूप में घंटों
अख़बार पढ़ते
नैनी के बच्चे को खिलाते
मंगलवार को पूजा की तैयारी करते
जाने कितने पल आपने संवारे....

विदा किया है भरे मन से
काया अशक्त हो चुकी थी
पीड़ा बनी थी साथी
सो जाना ही था पंछी को
 छोड़कर यह टूटा फूटा बसेरा
नये नीड़ की तलाश में

जहाँ मिलेगा एक नया सवेरा... 

(पिछले माह १८ जून को ससुर जी ने देह त्याग दिया, काशी में उनको अंतिम विदाई देकर आज ही हम लौटे हैं)

शनिवार, मई 4

याद दिलाता है हर मंजर




याद दिलाता है हर मंजर

सूना-सूना घर तकता है
मालिक घर के कहाँ गये,
खाली कमरा दिक् करता है
जल्दी लौटें जहाँ गये !

हर इतवार को जिसे संवारा
पूजा का कमरा भी उदास,
बाग-बगीचा, सब्जी बाड़ी
देख रहे भर मन में आस !

गिरे हुए हैं कई आमले
ग्राहक नजर नहीं आता,
लाल टमाटर पक-पक झरते
कोई उनको नहीं उठाता !

मधुर ध्वनि शंख की अब तो
सुबह नहीं देती है सुनाई,
रामायण का पाठ न होता
अखबार भी बंद कराई !

स्वाद दाल का कोई न भूला
कटहल भी आया है घर,
बिना आपके कुछ न भाता
याद दिलाता है हर मंजर !

सभी याद करते हैं पल पल
मीरा, शिव भी राह निहारें,
हरसिंगार के फूल झरे हैं
याद सदा करती हैं बहारें !

कितनी खुशियाँ बाट जोहतीं
नतिनी की शादी है सिर पर,
एक यात्रा भी करनी है
बुला रहा बनारस का घर !

शक्ति दाता देगा शक्ति
भोलेबाबा भला करेंगे,
भीतर जो ऊर्जा छिपी है
उसे जगा के स्वस्थ करेंगे !

(पिताजी कुछ दिनों से अस्पताल में हैं.)
मीरा, शिव - नैनी के बच्चे 
दाल- वे अच्छी बनाते हैं 
कटहल- उन्हें पसंद है