उत्सव लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
उत्सव लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, जून 2

भिगो गई है प्रीत की धारा


भिगो गई है प्रीत की धारा 


दिल की गहराई में बसता 

सत्य एक ही, प्रेम एक ही, 

दिया किसी ने, चखा किसी ने

सुख-समता का स्वाद एक ही !


जैसे जल नदिया का या फिर 

अंबर में बादल बन रहता, 

भाव प्रीत का हर इक दिल में 

कभी बह रहा, कभी बरसता !


उसी चेतना से आयी थी

उसी चेतना को कर पोषित, 

भिगो गई शुभ प्रीत की धारा 

मन-प्राण हुए सबके हर्षित !


शुभ भावना जगी जो भीतर 

प्रसून मैत्री के जो पुष्पित, 

अवसर पाकर मुखर हुए जब

करें ह्रदय को पुन: सुवासित !

मंगलवार, नवंबर 14

जलें दीप जगमग हर मग हो


जलें दीप जगमग हर मग हो

पूर्ण हुआ वनवास राम का, 
सँग सीता के लौट रहे हैं
अचरज देख हुआ लक्ष्मण को,
द्वार अवध के नहीं खुले हैं !

अब क्योंकर उत्सव यह होगा,
दीपमालिका नृत्य करेगी,
मंगल बन्दनवार सजेंगे 
रात अमावस की दमकेगी! 

हमने भी तो द्वार दिलों के 
कर दिये बंद डाले ताले,
राम हमारे निर्वासित हैं, 
जब अंतरदीप नहीं बाले !

राम विवेक, प्रीत सीता है, 
दोनों का कोई मोल नहीं
शोर, धुआँ तो नहीं दिवाली, 
जब सच का कोई बोल नहीं !

धूम-धड़ाका, जुआ, तमाशा, 
उत्सव का कब करें सम्मान
पीड़ित वातावरण प्रदूषित  
देव संस्कृति का है अपमान !

जलें दीप जगमग हर मग हो,
अव्यक्त ईश का भान रहे
मधुर भोज, पकवान परोसें, 
मनअंतर में रसधार बहे !

गुरुवार, अक्टूबर 12

नवरात्रि का करें स्वागत

नवरात्रि का करें स्वागत 


बस दो दिनों की प्रतीक्षा 

फिर देवी का आगमन होगा 

गरबे की धूम मचेगी 

घरों में कलश स्थापन होगा 

मिलजुल कर उत्सव मनाना 

भारत की संस्कृति है 

इन दिनों पूरा वैभव लुटाती प्रकृति है 

हरसिंगार के फूल भोर में झरते हैं 

सारे आलम को दैवीय सुगंध से भरते हैं 

संग मखाने की खीर, कोटू की रोटी 

व साबूदाने की खिचड़ी की महक 

सुबह शाम धूप, अगर बत्ती 

मन्दिरों में अखंड दीपक !

व्रत, उपवास, जप, ध्यान 

दुर्गा सप्तशती का पारायण भी 

कुछ दिनों के लिए 

सोशल मीडिया से पलायन भी !

माँ के आने से खिला-खिला है धरा का मन 

राम लौटेंगे, मनेगा विजयादशमी का दिन !

है शरद का आकाश भी कितना निर्मल 

फैलता हर तरफ़ श्रद्धा का भाव अमल 

नृत्य, संगीत और कलाओं का सृजन करें 

मिलकर भजन और एकांत में मनन करें 

आत्मशक्ति को जगायें हम, माँ बताना चाहे 

उसकी शक्ति है सदा साथ, यह जताना चाहे ! 


शनिवार, सितंबर 2

आया सितम्बर

आया सितम्बर 


आया सितम्बर 

लाया वर्षा की बौछार 

बस कुछ कदम दूर है 

जन्माष्टमी  त्योहार !

वही, अपने कन्हैया का जन्मदिन 

जिसे मनाते हैं आधी रात  

सोचें जरा,  था आधुनिक 

वह द्वापर में भी 

ठीक बारह बजे 

जन्मदिवस मनाने की 

चलायी थी परिपाटी !

 सितम्बर लिए आता  

गणपति बप्पा को भी 

और कैसे भला भूलें 

भगवान विश्वकर्मा का अवतरण दिवस 

मिल मनाते  कारीगर 

भर अंतर में हुलस ! 


गुरुवार, सितंबर 22

अंतहीन उसका है आंगन


अंतहीन उसका है आंगन 

मौन से इक उत्सव उपजता 
नई धुनों का सृजन हो रहा,
मन में प्रीत पुष्प जन्मा है  
सन्नाटे से गीत उठ रहा !

उस असीम से नेह लगा तो
सहज प्रेम जग हेतु जगा है,
अंतहीन उसका है आंगन  
भीतर का आकाश सजा है !

बिन ताल एक कमल खिला है  
हंसा लहर-लहर जा खेले,
बिन सूरज उजियाला होता  
अंतर का जब दीप जला ले !

शून्य गगन में हृदय डोलता
मधुमय अनहद नित राग सुने,
अमिय बरसता भरता जाता   
अंतर घट को जो रिक्त करे !

घर में ही जब ढूँढा उसको
वहीं कहीं छुप कर बैठा था
नजर उठा के देखा भर था
हुआ मस्त जो मन रूठा था !

आदि, अंत से रहित हो रहा
आठ पहर है सुधा सरसती,
दूर हुई जब दौड़ जगत की  
निकट लगी नित कृपा बरसती !

गुरुवार, अगस्त 11

एक अनूठा उत्सव आया


एक अनूठा उत्सव आया


बरस-बरस गयी कृपा देव की श्रावण मास पूर्ण हुआ जब, लेने लगा होड़ बदली से पूर्ण चन्द्र खिल आया नभ पर ! भारत की इस पुण्य भूमि पर एक अनूठा उत्सव आया, प्रेम ही जिनका आदि-अंत है संबंधों को निकटतम लाया ! पूर्ण वर्ष का भाव छिपा जो भीतर गहन हुआ अब प्रकटा, बहन बाँधती रक्षा बंधन भाई का भी दिल भर आया ! आशीषें हैं और दुआएँ तिलक लगाती दिए मिष्ठान, अनगिन खुशियाँ बहना पाए बांधें राखी सँग मुस्कान ! मन ही मन वारी है जाती बहन का दिल हुआ गर्वीला, कितनीं यादें उर में आतीं लख भाई का ढंग हठीला ! जो कुछ पाया है भाई से धीरे से माथ से लगाती, निज अंतर हृदय की ऊष्मा बिन बोले चुपचाप लुटाती !



शुक्रवार, नवंबर 5

रहें सदा दिल मिले हमारे

रहें सदा दिल मिले हमारे

ज्योति जले ज्यों हर घर-बाहर 

गलियाँ , सड़कें, छत, चौबारे, 

मन में प्रज्ज्वलित स्नेह प्रकाश 

रहें सदा दिल मिले हमारे !

 

घर-आँगन ज्यों स्वच्छ दमकते 

कोना-कोना हुआ उजागर, 

रिश्तों की यह मधुरिम डाली 

निर्मल भावों से हो भासित !

 

सुस्वादु पकवानों की जहाँ 

मीठी-मीठी गंध लुभाती, 

आत्मीयता, अपनेपन की 

धारा अविरल बहे सुहाती !

 

दीवाली का पर्व अनोखा 

दीप, मिठाई, फुलझड़ियों का, 

ले आता है पीछे-पीछे 

सुखद उत्सव भाई दूज का !

 

तिलक भाल पर हँसी अधर पर 

यह भंगिमा बहन को भाए, 

दुआ सदा यह दिल से निकले

सुख-समृद्धि, स्वास्थ्य सदा पाएँ !


बुधवार, नवंबर 3

जब अंतरदीप नहीं बाले




जब अंतरदीप नहीं बाले

पूर्ण हुआ वनवास राम का, 
सँग सीता के लौट रहे हैं
 हुआ अचंभा देख लखन को , 
द्वार अवध के नहीं खुले हैं !

अब क्योंकर उत्सव यह होगा, 
दीपमालिका नृत्य करेगी,
रात अमावस की जब दमके, 
मंगल बन्दनवार सजेगी  ! 

हमने भी तो द्वार दिलों के, 
कर दिये बंद ताले डाले
राम हमारे निर्वासित हैं,
जब अंतरदीप नहीं बाले !

राम विवेक, प्रीत सीता है, 
दोनों का कोई मोल नहीं
शोर, धुआँ ही नहीं दिवाली, 
जब सच का कोई बोल नहीं !

धूम-धड़ाका, जुआ, तमाशा, 
देव संस्कृति का हो अपमान,
पीड़ित, दूषित वातावरण है 
उत्सव का न किया सम्मान !

जलें दीप जगमग हर मग हो, 
अव्यक्त ईश का भान रहे,
मधुर भोज, पकवान परोसें
 मन अंतर में रसधार बहे !

शुक्रवार, अप्रैल 23

दीप आरती का जब जगमग

दीप आरती का जब जगमग

छायाओं के पीछे भागे 

जब सच से ही मुख मोड़ लिया, 

जीवन का जो सहज स्रोत था  

शुभ नाता उससे तोड़ लिया !


अर्ध्य चढ़ाते थे रवि को जब  

जुड़ जाते थे परम स्रोत से, 

तुलसी, कदली को कर सिंचित 

वृंदावन भीतर उगते थे !


कर परिक्रमा शिव मंदिर की 

खुद को भी तो पाया होगा,

दीप आरती का जब जगमग 

आत्म ज्योति को ध्याया होगा !


किन्तु बनाया साधन उनको

जो स्वयं में हैं अनुपम साध्य, 

नित्यकर्म का सौदा करके 

कहते भजा तुझको आराध्य !


यह तो जीवन का उत्सव  था 

ना यह  कला मांगने की थी ,

शुभ सुमिरन से मान मिलेगा 

ऐसी लघु बुद्धि तो नहीं थी !


जग छाया है कहाँ मिलेगी 

जबकि मन उजियार से प्रकटा, 

अंधकार के पाहन ने ही 

मार्ग सहज उजास का रोका !


 

शनिवार, अप्रैल 3

पूजा पूजा के लिए

पूजा पूजा के लिए 


जब साधन भी हो पूजा साध्य भी  

वही फल है जीवन वृक्ष का 

जब आपा  कहीं पीछे छूट जाए 

तब जीवन पथ पर ‘कोई’

नया उजाला बिखेर जाता है !

जब अंतर तृप्त होकर छलक जाए

हर उस घड़ी में वह अनाम ही 

हमसे अभिसिक्त हुआ जाता है !

यदि अश्रु करुणा, प्रेम या कृतज्ञता के 

छलके कभी नयनों से  

चढ़ जाते वे स्वतः शिव मन्दिर में 

पूजा जब सहज घटती है 

तभी साधना सफल होती है 

जब उसी की पूजा कर 

 रिझा कर उसे ही पाया जाता है 

तब जीवन से कुछ नहीं पाना 

जीवन का ही उत्सव मनाया जाता है 

अपना होना ही जब 

उसके होने का प्रमाण बन जाये  

तब जीवन हर घड़ी एक वरदान बन जाता है !

 

मंगलवार, नवंबर 24

स्वामी-दास

स्वामी-दास

 

कोई स्वामी है कोई दास

 है अपनी-अपनी फितरत की बात

किसका ? यह है वक्त का तकाजा  

स्वामी माया का चैन की नींद सोता

 क्षीर सागर में भी

सर्पों की शैया पर !

 गुलाम वातानुकूलित कक्ष में

 करवटें बदलता है

मखमली गद्दों पर !

मन का मालिक शीत, घाम

सहज ही बिताता है

गुलाम हड्डियाँ कंपाता,

कभी पसीने से अकुलाता है

स्वामी है जो स्वाद का

 दाल-रोटी खाकर भी

 गीत गुनगुनाता है

भोजन का दास

 पाचक खाकर ही निगल पाता है

हर पल उत्सव मनाए स्वामी

दास बेबात मुँह फुलाता है

हजार उपाय करता

गम भुलाने के वह

फिर एक न एक दिन

शरण में स्वामी की आ ही जाता है !

 


सोमवार, अप्रैल 13

आशा ज्योति जलानी है

आशा ज्योति जलानी है


खेतों में झूम रही फसलें 
कोई भंगड़ा, गिद्दा, न डाले,  
चुप बैठे ढोल, मंजीरे भी
इस बरस बैसाखी सूनी है !

यह किसकी नजर लगी जग को 
नदियों, सरवर के तट तकते, 
नहीं आचमन न कोई डुबकी 
यह कैसी छायी उदासी है !

बीहू का उत्सव भी फीका 
कदमों को किस ने रोका है,
आया 'पहला बैसाख'  लेकिन  
कोई जुलूस ना मेला है !

केरल में विशु गुमसुम मनता
यह कैसा सन्नाटा छाया, 
संशय के बादल हों कितने  
पर आशा ज्योति जलानी है !


सोमवार, अगस्त 6

राखी के कोमल धागे





राखी के कोमल धागे




आया अगस्त
अब दूर नहीं श्रावणी पूनम
उत्सव एक अनोखा, जिस दिन
मधुर प्रीत की लहर बहेगी
हृदय जुड़ेंगे, बांध रेशमी तार
उरों में नव उमंग, तरंग जगेगी
और सजेंगे घर-घर में, दीपक-रोली के थाल
देकर कुछ उपहार हथेली में, बहना की
मुस्काएगा भाई, गुंजित होंगी सभी दिशाएं
बार-बार उत्सव यह आये !  

किन्तु दूर हैं जो भी प्रियजन
भेज राखियाँ, मधुर संदेशे
मना ही लेंगे रक्षा बंधन !
तिलक लगा मस्तक पर अपने
बाँध लीजिये राखी कर में
संग बंधी है शुभ कामना
पगी प्रीत में मधुर भावना
जीवन का हर पल सुखमय हो
हर इक उत्सव मंगलमय हो !

बुधवार, जुलाई 4

राज खुलता जिंदगी का




राज खुलता जिंदगी का


एक उत्सव जिन्दगी का
चल रहा है युग-युगों से,
एक सपना बन्दगी का
पल रहा है युग युगों से !

घट रहा हर पल नया कुछ
किंतु कण भर भी न बदला,
खोजता मन जिस हँसी को
उसने न घर द्वार बदला !

झाँक लेते उर गुहा में
सौंप कर हर इक तमन्ना,
झलक मिलती एक बिसरी
राज खुलता जिंदगी का !

मिट गये वल्लि के पुतले
चंद श्वासों की कहानी,
किंतु जग अब भी वही है
है अमिट यह जिंदगानी !

शुक्रवार, नवंबर 21

कोई दूर खड़ा दे आमन्त्रण

कोई दूर खड़ा दे आमन्त्रण



हर मिलन अधूरा ही रहता
हर उत्सव फीका लगता है,
कितना ही भरना चाहा हो
तुझ बिन घट रीता लगता है !

ज्यों बरस-बरस खाली बादल
चुपचाप गगन में खो जाते,
कह-सुन जीवन भर हम मानव
इक गहन नींद में सो जाते !

कितनीं मनहर शामें देखीं
कितनी भोरों को मन चहके,
सूनापन घिर-घिर आता फिर
कितने हों वन –उपवन महके !

कोई दूर खड़ा दे आमन्त्रण
पर नजर नहीं वह आता है,
जाने किस लोक का वासी है
जाने किस सुर में गाता है !

पलकें हो जाती हैं भारी
नीदों में स्वप्न जगाते हैं,
इक भ्रम सा होता मिलने का
जब भोर जगे मुस्काते हैं !