बुधवार, सितंबर 30

दोनों के ही पार मिले वह

दोनों के ही पार मिले वह 


देखे राग-रंग दुनिया के 

मृग मरीचिका ही सब निकले, 

 निकट जरा जा  छूकर देखा 

जैसे इंद्रधनुष हो नभ में !


पीड़ाओं के बीज गिराए 

अनजाने या कभी जानकर, 

जिस पथ की मंजिल धूमिल है 

थके नहीं पग उसे नापकर !


हर मुस्कान छिपाए है कुछ 

भीतर कुछ है बाहर है कुछ,

दोनों के ही पार मिले वह 

कर देता हर सुख-दुख ना कुछ !  


 मिलना होगा महाकाल से 

केवल  बात यही है निश्चित,

शेष सभी स्वप्नों सा मिथ्या 

जग में जो भी मिलता सीमित  !

 

मंगलवार, सितंबर 29

नाचती इक ऊर्जा ही

नाचती इक ऊर्जा ही 


नित नवीन निपट अछूती

इक मनोहरी ज्योत्स्ना है,

सुन सको तो सुनो उसकी 

आहट ! यह न  कल्पना है !


गूँज कोई नाद अभिनव 

हर शिरा में बह रहा है,

वह अदेखा, जानता सब 

न जाने क्या कह रहा है !


आँख मूँदे श्रवण रोके 

झाँक अंतर मन टटोलो, 

ज्योति की इक धार बहती 

हृदय की हर गाँठ खोलो !


नाचती इक ऊर्जा ही 

प्राण बनकर संचरित है, 

जानती सब पर अजानी

पुष्प बन कर उल्लसित है !

 

सोमवार, सितंबर 28

पंख पसार उड़े क्षितिजों तक

 पंख पसार उड़े क्षितिजों तक 

एक जागरण ऐसा भी हो 

खो जाए जब अंतिम तन्द्रा, 

रेशा-रेशा नाचे ऊर्जित 

मिटे युगों की भ्रामक निद्रा !


मन जो सिकुड़ा-सिकुड़ा सा था 

पंख पसार उड़े क्षितिजों तक, 

सारी कायनात भरने फिर 

बाहें फैलें नीलगगन तक !


दूजा नहीं दिखाई देता 

संग पवन के चले डोलते,

चहूँ ओर वसन्त छाया हो 

नयन प्रेम के राज खोलते !


संशय, भ्रम, भय जलें अग्नि में 

अनहद घन मंजीरे बजते,

मानस भू पर बहे प्रीत रस 

थिरकें झूमें पुष्प ख़ुशी के !


एक जागरण ऐसा भी हो 

फिर न कभी मदहोशी घेरे, 

नहीं सताए कोई अभाव 

पलकों में ना स्वप्न अधूरे !


शुक्रवार, सितंबर 25

भोर में कोई जगाये

 भोर में कोई जगाये 

चैन नींदों में समाए 

स्वर्ग स्वप्नों में दिखाए,

भोर में कोई जगाये 

बस यही तुम मांग लेना ! 


बैन में मधुरा भरी हो 

नैन सूरत साँवरी हो, 

जगत की पीड़ा हरी हो 

बस यही आशीष लेना !


पग कभी रुकने न पाएँ

हाथ अनथक श्रम उठायें, 

अधर पल-पल मुस्कुराएं 

बस यही वरदान लेना !


रिक्त हो उर चाह से अब

सिक्त हो रस रास से जब,  

पूर्णता का भास हो तब 

बस यही सुख जान लेना !


श्वासों में भी कंप न हो 

देह-हृदय में द्वंद्व न हो, 

सुरताली स्वच्छंद न हो 

बस यही संकल्प लेना ! 


गुरुवार, सितंबर 24

दूर बहुत दूर कहीं

 दूर बहुत दूर कहीं 

आदमी बेबस हुआ 

पर कहाँ मानता है 

खुद को बचाने हेतु 

और को मारता है !

क्या है ? जानता नहीं 

खो गयी याद सारी

जानना नहीं चाहे 

भटका कोई प्राणी 

अपना ही घात करे 

चेतना ही सो गयी 

स्वयं से चला आया 

दूर बहुत दूर कहीं 

वापसी का पथ नहीं 

 कैसी यह माया है 

मर रहे हैं जन यहाँ 

महामारी नहीं कम  

आत्मघाती बन रहे  

ना जाने क्या है  गम 

जीवन की कदर नहीं 

छीन लिया जायेगा 

कुदरत का यही नियम 

जिसको ना मान दिया 

वही छोड़ जायेगा !


बुधवार, सितंबर 23

पुलक बना वह ही बह निकले

पुलक बना वह ही बह निकले 


घन गरजे, गरजे पवना भी  

बीहड़ वन ज्यों अंधड़ चलते, 

सिंधु में लहरों के थपेड़े 

अंतर्मन में द्वंद्व घुमड़ते !


बहना चाहे हुलस-हुलस कर 

कौन रौकता पाहन बनकर ? 

हृदय उमगता ठाठें मारे 

टकराता पर कहीं रसातल !


कोष एक से एक छिपे हैं  

सागर तल व वसुधा गर्भ में, 

प्रकटे कैसे, निज हाथों से 

आड़ लगायी सदा गर्व में !


पुलक बना वह ही बह निकले 

अनजाने सभी तोड़े  बंध,

‘मैं’ का कंटक गड़ा पाँव में 

 पूर्ण कैसे होगा अनुबन्ध !



 

सोमवार, सितंबर 21

नीला अम्बर सदा वहीं था

 नीला अम्बर सदा वहीं था

संशय, भ्रम, भय, दुःख के बादल  

जग को हमने जैसा देखा, 

छिपा लिया था दृष्टि पथ ही 

मन पर पड़ी हुई थी रेखा !


कैसे दिखे विमल नभ अम्बर

आशाओं की ओट पड़ी हो,

कैसे कल-कल निर्मल सरिता 

भेदभाव की भीत गड़ी हो !


दुराग्रहों के मोटे पर्दे 

नयनों को करते हों धूमिल,

नीला अम्बर सदा वहीं था 

जहां छँटे ये काले बादल !


स्रोत खुले जो बंद पड़े थे 

जहाँ गिरी मन से हर बाधा,

बहते हुए प्रीत के दरिया

श्यामल जीवन में थी राधा !


अपनेपन की फसल उगी थी   

दृष्टि मिली यह राज बहा झर, 

जाना, आकर जाने कितने 

बन्द पड़े हैं मन के भीतर !


रविवार, सितंबर 20

आकाश कब बुलाये

 आकाश कब बुलाये

भूली सी कोई याद

  जाने कब से सोयी है

 हर दिल की गहराई में 

  करती है लाख इशारे जिंदगी

किसी तरह वह याद 

 दिल की सतह पर आये 

युग-युग से  किया विस्मृत जिसे 

बेवजह माया के हाथ पिसे

अब करे कोई क्या उपाय 

कि बिछड़े उस प्रियतम की 

याद आये... 

और उसका विरह सताये 

फिर देह भाव छूटे 

पिंजर मन का टूटे 

थे असीम से छूटे 

सीमा अब न भाए

धरती यही सोचे 

आकाश कब बुलाये !


शुक्रवार, सितंबर 18

माँ

 माँ 

उभर आती हैं अनगिनत छवियाँ 

मानस पटल पर 

तुम्हारा स्मरण होते ही, 

गोरी, चुलबुली, नटखट स्वस्थ बालिका 

जो हरेक को मोह लेती थीं !

पिता की आसन्न मृत्यु पर 

माँ को ढाँढस बंधातीं  किशोरी, 

नए देश और परिवेश में 

अपने बलबूते पर  शिक्षा ग्रहण करती !

विशारद के बाद ही विवाह के बन्धन में  बंधी

युवा माँ बनकर बच्चों को पालती 

मुँह अँधेरे उठ, रात्रि को सबके बाद सोती 

अचार, पापड़, बड़ियां बनातीं 

तन्दूर में मोहल्ले भर की रोटी लगातीं 

सिर पर पीपा भर कपड़े ले 

नदी तट पर धोने जातीं

रिश्तेदारी में ब्याह में आती-जाती 

नयी-नयी जगहों पर हर बार 

नए उत्साह से गृहस्थी जमातीं

झट पड़ोसियों से लेन-देन तक की मित्रता बनातीं 

बच्चों  को  पढ़ाती इतिहास और गणित 

उनकी छोटी-छोटी उपलब्धियों पर गर्व से भर जातीं

बड़े चाव से औरों को बतातीं 

खाली वक्त में पत्रिकाएं पढ़ती 

रेडियो पर नाटक, टीवी पर धारावाहिक

 दत्तचित्त हो  सुनतीं 

पहले बच्चों फिर नाती-पोतों हित

 हर साल ढेर स्वेटर बुनतीं 

पिता के साथ बैठकर महीने का बजट बनातीं 

माँ तुमने भरपूर जीवन जिया 

संतानो को उच्च शिक्षा और संस्कार दिए 

पिताजी की हर आवश्यकता का सदा ध्यान रखा 

स्वादिष्ट भोजन, बन अन्नपूर्णा सभी को खिलाया 

स्वयं कड़ाही की खुरचन से ही कभी काम भी चलाया 

तुमने उड़ेल दी सारी ऊर्जा अपने घर परिवार में 

 सबको दुआएं दीं जाते-जाते 

मृत्यु से पूर्व तुम्हारा वह संदेश है अनमोल 

आज तुम्हें अर्पण करती हूँ  

कुछ शब्द कुसुम भीगे भावनाओं की सुवास से 

 जो   पहुँच जायेंगे तुम तक परों पर बैठ हवाओं के !


गुरुवार, सितंबर 17

हे विश्वकर्मा !

 हे विश्वकर्मा !

अमरावती, लंका,  द्वारिका, इंद्रप्रस्थ 

व  सुदामापुरी के निर्माता !

रचे पुष्पक विमान व देवों के भवन 

कर्ण -कुण्डल, सुदर्शन चक्र, 

शिव त्रिशूल और यम-कालदण्ड !

दिया मानव को वास्तुकला का अनुपम उपहार 

रचाया सबके हित एक सुंदर संसार 

तूने स्थापित की शिल्पियों की एक परंपरा 

अपरिमित है तेरी शक्ति 

आकाश को छूती अट्टालिकाएँ और 

विशाल नगरों का हुआ निर्माण 

उस ज्ञान से, जो विरासत में दिया 

ब्रह्मा दिन-रात गढ़ रहे हैं देहें 

सूक्ष्म जीवों और और पादपों की 

पशुओं और मानवों की 

जिनको आश्रय देता है 

हर श्रमिक में छिपा विश्वकर्मा 

जो दिनरात अपनी मेहनत से 

सृजित करता है छोटे-बड़े आलय 

जो भी औजारों से काम करते हैं 

वे वशंज हैं विश्वकर्मा के 

उन्हें हम प्रणाम करते हैं ! 


बुधवार, सितंबर 16

पितृ पक्ष में

 पितृ पक्ष में 

परलोक से बना रहे हमारा संपर्क

 स्मरण यह पितृ श्राद्ध कराते हैं, 

हमारे अस्तित्त्व में जिन पूर्वजों का है योगदान 

जिस वंश परंपरा के हैं हम वाहक 

जगे कृतज्ञता की भावना उनके प्रति 

यह याद भी दिलाते हैं !

बने रहें सत्य के पथ पर 

होते रहें दान-पुण्य भर भर 

भक्ति, ध्यान, साधना की 

बहती रहे धारा हर घर  

तो पितर प्रसन्न होते हैं 

झोली भर आशीषें देते हैं 

बड़ों के लिए किया गया हर कृत्य 

करने वाले को ही पूर्ण करता है  

उस जगत से, जहाँ जाना है एक दिन सबको 

अपनेपन की भावना भरता है !


मंगलवार, सितंबर 15

शब्द ऊर्जा झरे जहाँ से

शब्द ऊर्जा झरे जहाँ से 


ज्ञान यहाँ बंधन बन जाता 

भोला मन यह समझ न पाता,

तर्कजाल में उलझाऊँ जग 

सोच यही, स्वयं फंस जाता !


शब्द ऊर्जा झरे जहाँ से  

गहन मौन का सागर वह है 

किन्तु न जाना भेद किसी ने 

रंग डाला निज ही रंग में !


भावों का ही सर्जन सारा 

जिन पर शब्द कुसुम खिलेंगे, 

वाणी से जो भी प्रकटेगा

भाग्य का वह लेख बनेंगे !


महिमा मौन की मुनि गा रहा 

अच्छा बुरा न कोई बंधन,

उसके पथ में चिर वसन्त है 

शब्दों के जो पार गया मन !


एक बार यदि भेद खुला यह  

शब्द सुधा तारक बन मिलती 

प्रखर ज्योति मेधा की उनमें

उहापोह की मारक बनती ! 


सोमवार, सितंबर 14

रात ढल चुकी है

 रात ढल चुकी है 

होने को है भोर

प्रातःसमीरण में झूम रही हैं 

पारिजात की डालियाँ 

गा रहे हैं झींगुर अपना अंतिम राग

स्तब्ध खड़ा नीम का वृक्ष उनींदा है 

अभी जागेगा 

उषा की पहली किरण का स्वागत करने 

घरों की खिड़कियाँ बंद हैं 

सो रहे हैं अभी लोग 

सुबह की मीठी नींद में 

हजार मनों में चल रहे हजार स्वप्न 

पंछी लेने लगे अंगड़ाई निज नीड़ों  में 

है अब जागने की बेला   

देवता आकाश में और धरा पर प्रकृति 

तत्पर  हैं स्वागत करने एक दूसरे का 

ब्रह्म मुहूर्त के इस क्षण में 

 रात्रि प्रलय के बाद 

पुनः सृजित होगी सृष्टि

नव पुष्प खिलेंगे 

नव निर्माण होगा पाकर नई दृष्टि !