मंगलवार, अगस्त 23

छोटा सा जीवन यह सुंदर

छोटा सा जीवन यह सुंदर

थम कर पल दो पल बैठें हम
होने दें जो भी होता है,
रुकने का भी है आनंद
चलना तभी मजा देता है !

स्वयं ही चलती रहतीं श्वासें
जीवन भीतर धड़क रहा है,
जिसने सीखा है विश्राम
दौड़ लगाना व्यर्थ हुआ है !

छोटा सा जीवन यह सुंदर
अल्प जरूरत है इस दिल की,
काफी से भी ज्यादा पाया
कुदरत सदा बांटती रहती !


शुक्रवार, अगस्त 19

झर जाती हर दुःख की छाया

झर जाती हर दुःख की छाया

सभी स्वर्ग क्षण भंगुर होंगे
 नर्क सभी अनंत हैं होते,
दुःख में समय न कटता पल भर
सुख के क्षण बहते ही जाते !

सुख बँटना ही सदा चाहता
सहज फैलता ही जाता है,
दुःख में भीतर सिकुड़े छाती
सुख विस्तीर्ण हुआ बढ़ता है !

आज सोचते हैं हम कल की
सदा व्यवस्था में ही बीते,
प्रेम जहाँ वहीं सुख पलता
यह पल होता पर्याप्त उसे  !

नहीं सताती कल की चिंता
परस प्रेम का जिसने पाया,  
खो जाता अतीत, भावी सब
झर जाती हर दुःख की छाया !

सूना उर ! हम जग से भरते
खालीपन भीतर का अपना,
एक ही भाव शाश्वत भीतर
शेष सब ज्यों भोर का सपना  !

प्रेम ही है वह दर जहाँ से
जीवन की कलियाँ खिलती हैं,
साझीदार मिले जब कोई
जीवन की धारा पलती है !



शुक्रवार, अगस्त 12

परिभाषाएं हम गढ़ते हैं


परिभाषाएं हम गढ़ते हैं

खुद से ही मिलते रहते हैं
जब भी हम बाहर जाते हैं !

दुनिया पल-पल बदल रही है
परिभाषाएं हम गढ़ते हैं !

रटते-रटते ब्रहम सूत्र भी
सिमटे-सिमटे हम रहते हैं !

खुले कान मेहर कुदरत की
अक्सर खुद को ही सुनते हैं !

स्वप्न निरंतर मन में उगते
जग पर उनको ही मढ़ते हैं !



शुक्रवार, अगस्त 5

डूबे हैं आकंठ

डूबे हैं आकंठ

धूसर काले मेघों से आवृत आकाश
निरंतर बरस रहा
जल की हजार धाराओं से
नहा रही हरी-भरी वसुंधरा
वृक्ष, घास, लतर, पादप
तृप्त हुए सभी डूबे हैं आकंठ
नीर के इस आवरण में ढका है दृष्टिपथ
गूँज रही है निरंतर गिरती बौछार की प्रतिध्वनि
निज नीड़ों में सिमटे चुप हैं पंछी
फिर भी बोल उठती है कभी कोकिल
अथवा कोई अन्य पांखी परों को झाड़ता हुआ
ले चुके हैं न जाने कितने कीट जल समाधि
अथवा तो धरा की गोद में उन्हें पनाह हो मिली
घास कुछ और हरी हो गयी है
नभ कुछ और काला
सावन के पहले से ही मौसम
 हुआ है सावन सा मतवाला
असम की हरियाली का यही तो राज है
ऋतुओं की रानी यहाँ वर्षा बेताज है