पुष्प लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
पुष्प लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, अगस्त 31

जागरण

जागरण 


रात ढलने को है 

झूम रहा हर सिंगार हौले-हौले 

बस कुछ ही पल में 

हर पुष्प डाली से झर जाएगा 

श्वेत कोमलता से 

धरा का आँचल भर जाएगा 

कुनमुनाने लगे हैं पंछी बसेरों में 

दूर से आ रही कूक 

सूने पथ पर कदम बढ़ा रहे  

मुँह अंधेरे उठ जाने वाले 

उषा मोहक है 

उसकी हर शै याद दिलाती  

उस जागरण की 

जब चिदाकाश पर उगने को है

आत्मा का सूरज 

कुछ डोलने लगा है भीतर 

और झर गई हैं अंतर्भावनाएँ 

उसके चरणों में 

 गूँजने लगा है कोई गीत

 सहला जाता है अनाम स्पर्श

विरह की अग्नि में तपे उर को 

 भोर की प्रतीक्षा में 

यह अहसास होने लगा है 

एक दिन ऐसी ही होगी 

अंतर भोर !



शनिवार, दिसंबर 18

सन्नाटे का पुष्प अनोखा


सन्नाटे का पुष्प अनोखा 


खो जाते हैं प्रश्न  सभी का 

इक ही उत्तर जब मिलता है, 

सन्नाटे का पुष्प अनोखा 

अंतर्मन में तब खिलता है !


उर नि:शब्द, नीरवता छायी 

बस होना पर्याप्त हुआ है, 

उसी मौन में भीतर घटता 

अद्भुत इक संवाद हुआ है !


क्या कहना, क्या सुनना है अब 

भेद खुले हैं सारे उसके, 

जान जान जाना ना जाए 

गढ़ते सब क़िस्से हैं जिसके !


चुप रहकर या सब कुछ कहकर 

नहीं ज्ञान हो सकता उसका, 

वही ज्ञान है वह है ज्ञाता 

बस इतना कोई कह सकता !

सोमवार, मई 31

प्रीत बिना यह जग सूना है

प्रीत बिना यह जग सूना  है 


प्रीत जगे जिस घट अंतर में 

वही कुसुम सा विहँसे खिल के, 

यह वरदान उसी से मिलता 

जो माधव मधुर सलोना है !


प्रीत घटे वसंत छा जाता 

उपवन अंतर का महकाता, 

भावों की सरिता को भी तो 

कल-कल छल-छल नित बहना है !

 

जहाँ प्रेम का पुष्प न खिलता 

घट वह मरुथल सा बन जाता, 

शुष्क हृदय में  बसे न श्यामा 

नित कलरव वहाँ गुँजाना है !


प्रीत से ही धरा गतिमय यह 

पंछी, पादप, पशु का जीवन, 

प्रेम से ही होता है सिंचन 

जगती को नूतन होना है !



 

मंगलवार, अप्रैल 27

पावन परिमल पुष्प सरीखा

पावन परिमल पुष्प सरीखा
एक चेतना! चिंगारी हूँ
एक ऊर्जा सदा बहे जो,
सत्य एक धर रूप हजारों
परम सत्य के संग रहे जो !

अविरत गतिमय ज्योतिपुंज हूँ
निर्बाधित संगीत अनोखा,
सहज प्रेम की निर्मल धारा
पावन परिमल पुष्प सरीखा !

चट्टानों सा अडिग धैर्य हूँ
कल-कल मर्मर ध्वनि अति कोमल,
मुक्त हास्य नव शिशु अधरों का
श्रद्धा परम अटूट निराली !

अन्तरिक्ष भी शरमा जाये
ऐसी ऊँची इक उड़ान हूँ,
पल में नापे ब्रह्मांडों को
त्वरा युक्त इक महायान हूँ !

एक शाश्वत सतत् प्रवाह जो 
शिखरों चढ़ा घाटियों उतरा,
पाया है समतल जिसने अब
सहज रूप है जिसका बिखरा !

मंगलवार, अक्टूबर 20

ठहरे विमल झील का दर्पण

 ठहरे विमल झील का दर्पण 

पूर्ण चन्द्रमा, पूर्ण समंदर 

पूर्ण, पूर्ण से मिलने जाये, 

 माने मन स्वयं को अधूरा 

अधजल गगरी छलकत जाये !


चाहों के मोहक जंगल में 

इधर भागता उधर दौड़ता, 

कुछ पाने की कुछ करने  की

सदा किसी फ़िराक में रहता !


ठहरे विमल झील का दर्पण 

शांत सदा भीतर तल झलके, 

जिस पर टिकी हुई वह धरती 

थिर अकंप आधार वह दिखे  !


मन लहरों सा जब भी कँपता 

भुला दिया बस निज आधार, 

उस तल से संदेसे आते 

सदा बुलाता भेजे दुलार !


हर कम्पन उसकी रहमत है 

फिर-फिर पूर्ण की चले तलाश, 

जाने खुद को पूर्ण पुष्प  सा 

हर सिंगार या रूद्र पलाश !


शुक्रवार, सितंबर 7

जीवन अमृत बहा जा रहा



जीवन अमृत बहा जा रहा


कितनी बार चुभे हैं कंटक
कितनी बार स्वप्न टूटे हैं,
फिर-फिर राग लगाता यह दिल
कितने संग-साथ छूटे हैं !

सुख की फसल लगाने जाते
किन्तु उगे हैं दुःख ही उसमें,
धन के भी अम्बार लगे हों
भीतर का अभाव ही झलके !

ऊपर चढ़ने की खातिर जब
कर उपेक्षा छोड़ा होगा,
लौट-लौट आयेंगे वे पल
कितनों का दिल तोड़ा होगा !

फूलों की जब चाहत की थी
काँटों के जंगल बोये थे,
जगें स्वर्ग में नयन खुलें जब
चाहा, लेकिन खुद सोये थे !

कैसे जीवन पुष्प खिलेगा
कोई तो आकर सिखलाये,
जीवन अमृत बहा जा रहा
कोई क्यों फिर प्यासा जाये !

बुधवार, जून 6

सागर तपता है


सागर तपता है

सागर तपता है
और बनकर मेघ शीतल
डोलता है संग पवन के
बरस जाता है तप्त भूमि पर..
मन अंतर तपता है
और बनकर करुणा अनंत
डोलता हैं संग प्रेम के
बरस जाता है तप्त हृदयों पर..
विचारों को सच की आग में तपाना होगा
निखारना होगा भावनाओं को
उस भट्टी में
जहाँ सारे अशुभ जल जाते हैं  
न जाने कितने जन्मों की मैल
घुल गयी है मन के अनमोल पानी में
उसे तपाकर भाप बनकर उड़ना ही होगा ऊपर..
ऊर्जा पावन होकर ही बरसेगी
बनकर करुणा जल
मिटेगा अंधकार सदियों का
जब आत्मज्योति का पुष्प खिलेगा उस जल में
प्रीत की पवन बहेगी
उस पुष्प की महक
बिखरेगी चहुँ दिशाओं में
तपाये बिना जीवन का कोई रूप नहीं ढलता
तपाये बिना अहंकार नहीं पिघलता
सद्गुरू के चरणों में अहंकार ही चढ़ाना है
बार-बार अपने मन को यही एक अध्याय पढ़ाना है !
सुख की चाहत और दुःख के भय ने
कितना रुलाया है
स्वयं के कुछ बनने के
प्रयास ने कितना सताया है
अब बंद करना है यह खेल सदा के लिये
जीवन का आभार इस बोध उपहार के लिए !  

शनिवार, दिसंबर 3

लघु जो भी है झर जायेगा

लघु जो भी है झर जायेगा


शाम हुई पुष्प झर जाता  
पात पुराना मुरझा जाता,
निज झोली में बाँधें गाँठें 
मन अतीत के नगमे गाता   !

परम सदा ही खिला-खिला है
वर्तमान में मिला-मिला है,
अच्युत है वह अटल अभी
मन काहे फिर हिला हिला है !

दृष्टि जब ऊपर उठती हो
 लघु जो भी है झर जायेगा,
आहिस्ता से कदम बढ़ा तो  
 लक्ष्य स्वयं सम्मुख आएगा !


मंगलवार, जून 28

स्वप्नों की इक धारा बहती

स्वप्नों की इक धारा बहती



भाव जगें कुछ नूतन पल-पल
शब्दों की इक माल पिरो लें,
प्रीत निर्झरी सिंचित करती
उर का कोना एक भिगो लें !

स्वप्नों की इक धारा बहती
हुए सजग बस दिशा मोड़ दें,
सुख ही जहाँ बरसता निशदिन
पावन ऐसा चौक पूर दें !

कह डालें कुछ पुष्प मौन के
अनगाये से राग बोल दें,
सुरभि शांति गीत अव्यक्त सी
निज जल, उसकी राह खोल दें !




शुक्रवार, सितंबर 11

एक और अनेक


एक और अनेक

जैसे आकाश एक बाहर है चहुँ ओर
वैसा ही भीतर है..
जिसमें चमकता है एक सूरज
मन के पानियों को जो
उड़ा ले जाता है द्युलोक में
भाव सुगंध भरे
फिर बरस जाती है धारा तृप्ति की
तन की माटी लहलहाने लगती है
बाहर और भीतर का आकाश
कहने को ही दो हैं
वैसे ही जैसे बाहर और भीतर का सूरज
एक पानी से दूसरे का गहरा नाता है
और पुष्प की गंध से भाव सुगंधि का
एक ही है जो अनंत होकर जीता है
पल-पल की खबर रखता वह जादूगर
जाने कैसे यह खेल रचता है ! 

मंगलवार, मार्च 24

हे !

हे !

तू ही जाने तेरी महिमा
मौन हुआ मन झलक ही पाकर,
छायी मधु ऋतु खोया पतझड़
अब न लौटेगा जो जाकर !

रुनझुन गुनगुन गूँजे प्रतिपल
बरस रही ज्योत्स्ना अविरत,
पग-पग ज्योति कलश बिखेरे
स्रोत अखंड अमी का प्रतिपल !

द्वार खुला है एक अनोखा
पार है जिसके मन्दिर तेरा,
हिमशिखरों सा चमचम चमके
आठ पहर ही रहे सवेरा !

टिमटिम दिपदिप उड्गण हो ज्यों
श्वेत पुष्प झर झर झरते हैं,
रूप हजारों तू धरता है
सौन्दर्य, रंग भरते हैं !

राज न कोई जाने तेरा
तुझ संग मिलना न हो पाए,
देख तुझे 'मैं' खो जाता है
'तू' ही बस तुझसे मिल पाए !


शुक्रवार, मार्च 13

पास आकर दूर जाये

पास आकर दूर जाये

तितलियाँ जो उड़ रही हैं
गंध पीतीं रस समोती,
रंगे जिसने पर सजीले
उस अलख के गीत गातीं !

मौन ही होता मुखर
संग पवन जब डोलती हैं,
नृत्य झलके हर अदा में
शान से पर तोलती हैं !

हैं अनोखी कलाकृतियाँ
चमचमाते रंग धारे,
सूर्य रश्मि छू रही ज्यों
चित्र कोई कर उकेरे !

रंग बदलें धूप-छाहीं
पारदर्शी पंख भी हैं,
जाने किसकी राह देखें
लाल बुंदकी से सजी हैं !

पंख रक्तिम हैं किसी के
पीतवर्णी धारियां भी,
श्याम, नीले पर किसी के
श्वेत बूँदें तारिका सी !

हैं हजारों रूप सुंदर
रंग भी लाखों किसिम के,
बैंगनी, नीली, सजीली
पर गुलाबी हैं किसी के !

श्वेत वर्णी भी सुहाए
पास आकर दूर जाये,
बैठ जाती पर समेटे
पुष्प का आसन बनाये !

शोख रंगीं छटा जिनकी
ज्यों रंगोली हो सजी,
रंग घुले हैं इस अदा से
होड़ हो ज्यों पुष्प से ही !

विविध हैं आकार अनुपम
लघु काया है लुभाती,
मन उड़े जाता उन्हीं संग
प्रीत उनसे बंध लजाती !


कला उसकी राज खोले
मूक है जो कुछ न बोले,
तितलियों, फूलों के चर्चे
उपवनों में गीत घोलें !

आँख जैसे हो परों पर
देखती हों सब नजारे,
घूमती पुष्पों के ऊपर
नजर उनकी ज्यों उतारें !


शनिवार, नवंबर 15

तृषा जगाये हृदय अधीर

तृषा जगाये हृदय अधीर


वरदानों की झड़ी लगी है
देखो टपके मधुरिम ताप,
अनदेखा कोई लिपटा है
घुल जाता हर इक संताप !

गूँज रहे खग स्वर अम्बर में
मदिर गंध ले बहा समीर,
पुलक जगी तृण-तृण में कैसी
तृषा जगाये हृदय अधीर !

मौन हुआ है मेघ खो गया
नील सपाट हुआ नभ सारा,
तुहिन बरसता दोनों बेला
पोषित हर नव पादप होता !

प्रकृति अपने कोष खोलती
हुई खत्म मेघों की पारी,
गंध लुटाने, पुष्प खिलाने
आयी अब वसुधा की बारी !