शुक्रवार, अगस्त 30

खो गया है आदमी

खो गया है आदमी

भीड़ ही आती नजर  
खो गया है आदमी,
इस जहाँ की इक फ़िकर
 हो गया है आदमी !

दूर जा बैठा है खुद
फ़ासलों की हद हुई,
हो नहीं अब लौटना
जो गया है आदमी !

बेखबर ही चल रहा
पास की पूंजी गंवा,
राह भी तो गुम हुई
धो गया है आदमी !

बांटने की कला भूल
संचय की सीख ली,  
बंद अपने ही कफन में
सो गया है आदमी !

श्रम बिना सब चाहता
नींद सोये चैन की,
मित्र बन शत्रु स्वयं का
हो गया है आदमी !

प्रार्थना भी कर रहा  
व्रत, नियम, उपवास भी,
वश में करने बस खुदा  
लो गया है आदमी !


बुधवार, अगस्त 28

बने तेरा मधुबन, ओ कान्हा !हमारा मन



बने तेरा मधुबन, ओ कान्हा !हमारा मन


सद्भावों की लताओं पर उगें शांति पुष्प
 झर सम सहज अश्रु हों तुझी को अर्पण !

प्रेम जलधार बहे उड़े उमंग की फुहार
स्नेह सुवास भरे चले शीतल बयार !

अंतर की पुलक शुभ्र माल बन सजे
श्रद्धा, ज्ञान, निष्ठा के दीप जल उठें

दोष कंटक बीन सुख शिला पर हो अर्चन
शुभ संकल्पों से आरती श्वासों से वन्दन


बने तेरा मधुबन, ओ कान्हा ! हमारा मन 

सोमवार, अगस्त 26

काश्मीर की बर्फीली चोटियों पर

काश्मीर की बर्फीली चोटियों पर  

उन्होंने रक्त बहाया
अंतिम बूंद तक
ताकि सलामत रहे देश...
 भटके मीलों पैदल रह भूखे
वज्र बनाया अस्थियों को
भीगे शोलों की वर्षा में
 तपन समोई भीतर अपने
ताकि भारत, भारत रहे...
व्यर्थ न हो यह उनका बलिदान
बर्फीले रस्तों पर घट रहा है जो
सम्भवतः नया वीर जन्मता होगा
 उसी क्षण में ही
जब मरता होगा सैनिक कोई !
सदा सीने पर खायी गोलियाँ
नहीं दिखाई किसी ने पीठ
बढ़ते ही गये एक लक्ष्य लेकर
चढ़ते ही गये न रुके कदम कभी उनके
ताकि मरण सार्थक बने 

शुक्रवार, अगस्त 23

भूख

भूख




भूख नहीं लगती !
क्या करूं ? डाक्टर साहब
डाक्टर से सम्पन्न मरीज ने की शिकायत
फलां-फलां टॉनिक और कैप्सूल की
 है आपको जरूरत.
कहा डाक्टर ने, जरा मुस्कुराते हुए
 बातें सुन उनकी
रहा न गया टैक्सी ड्राइवर से
पहुँचाने जा रहा था उन्हें 
बोला वह मन की
साहब ! क्या ऐसी कोई दवा है ?
जिसे खा लेने पर
 भूख नहीं लगती !



मंगलवार, अगस्त 20

रक्षा बंधन के उत्सव पर हार्दिक शुभकामनायें

राखी


कोमल सा यह जो धागा है
कितने-कितने भावों का
समुन्दर छुपाये है
जिसकी पहुंच उन गहराइयों तक जाती है
जहाँ शब्द नहीं जाते
शब्द असमर्थ हैं
जिसे कहने में
कह देता है राखी का रेशमी सूत्र
सम्प्रेषित हो जाती हैं भावनाएं
बचपन में साथ-साथ बिताये
दिनों की स्मृतियों की
गर्माहट होती है जिनमें
वे शरारतें, झगड़े वे, वे दिन जब एक आंगन में
एक छत के नीचे एक वृक्ष से जुड़े थे
एक ही स्रोत से पाते थे सम्बल
 एक ही ऊर्जा बहती थी तन और मन में
वे दिन बीत गये हों भले
पर नहीं चुकती वह ऊर्जा प्रेम की
 वह प्रीत विश्वास की
खेल-खिलौने विदा हो गये हों
पर नहीं मरती उनकी यादें
उनकी छुअन  
रक्षा बंधन एक त्योहार नहीं
स्मृतियों का खजाना है
हरेक को अपने बचपन से
बार-बार मिलाने का बहाना है
और जो निकट हैं आज भी
उनकी यादों की अलबम में
एक नया पन्ना जोड़ जाना है   

शनिवार, अगस्त 17

जन्मदिन पर ढेरों शुभकामनायें

उन सब के लिए जिनका जन्मदिन आज है 

जन्मदिन पर ढेरों शुभकामनायें


जीवन के इस सुंदर पथ पर
बन कर आता मील का पत्थर,
जन्मदिवस यह स्मरण कराने
थम कर सोचें तो यह पल भर !

नया नया सा दिन लगता है
नया हौसला भरतीं श्वासें,
नव कलिका मन की शाखों पर
दिल ने छेड़ी हैं नव तानें !

नये क्षितिज थमा जाता है
नई चुनौती, नई मंजिलें,
जन्मदिवस भर जाता भीतर
नये अनुभवों के सिलसिले !

मन में भरकर सहज उमंग,
जीतें जीवन की हर जंग,
चढ़े प्रीत का गहरा रंग,
मन पाले अब सत का संग!

कोमल दिल, दृढ भी अंतर
सहज प्रेम लुटायें सब पर,
जीवन को भरपूर जी सकें
दिल में जोश बहे निरंतर !

एक कदम और जाना है
मंजिल को पास बुलाना है,
जन्मदिन पर यही कामना
लब पर यही तराना है !


बुधवार, अगस्त 14

स्वतन्त्रता दिवस की पूर्व संध्या पर

स्वतन्त्रता दिवस की पूर्व संध्या पर



याद आ रहीं वे गाथाएं
सुनकर जिनको बीता बचपन,
शौर्य, वीरता, बलिदानों से
 थी सिचिंत जिनकी हर धड़कन !

आजादी अनमोल दिलाई
स्वयं के सुख-दुःख जो भूले थे,
‘करो या मरो’ के नारे संग
बढ़े, गर्व से वे से फूले थे !

भारत की संस्कृति का गौरव
स्मृति पटल पर आज छा रहा,
बसी है खुशबू मन में जिसकी
हर युग का इतिहास भा रहा !

काश्मीर का केसर महके
ताजमहल की सुन्दरता भी,
हिम से आच्छादित गिरिवर हैं
गंगा, यमुना का अमृत भी !

सतलज, रावी और चिनाब
कल-कल करतीं बुनती ख्वाब,
अमृतसर के हर मन्दिर में
झुका रहा है सिर पंजाब !

काशी के वे घाट अनोखे
शिव, गौरी के सुन्दर धाम,
संगम पर जुड़ता है कुम्भ
पुण्य भूमि हे ! तुम्हें प्रणाम !

वीर बाँकुरे मारवाड़ के
महल, हवेली  गाथा कहते,
महाराणा के अस्त्र देखकर
चकित हुए से दर्शक रहते !

दक्षिण हो या तट पश्चिमी
सागर की लहरों का जाल,
सीमाओं पर सजग सिपाही
उन्नत है भारत का भाल !

रविवार, अगस्त 11

गगन अपना लगेगा जगेंगी पाँखें

गगन अपना लगेगा जगेंगी पाँखें



अभावों का भाव नजर आता है
भावों का अभाव खले जाता है,
‘नहीं है’ जो, टिकी उस पर दृष्टि  
जो ‘है’, कोई देख नहीं पाता है !

जगे, पर सोने का अभिनय करते
नित नूतन रंग सपनों में भरते,
जानते, पल दो पल का भ्रम ही है
सामना सत्य का करने से डरते !

जागे हुओं को जगाना है मुश्किल
पानी से तेल नहीं होता हासिल,
फिर भी कोशिश किये जाते हैं वे  
दूर निकले जो कैसे पायें साहिल !

कभी तो होश आएगा खुलेंगी आँखें
गगन अपना लगेगा जगेंगी पाँखें,
देर न हो जाये बस डर यही है
रिस रहा जीवन हैं लाखों सुराखें !





गुरुवार, अगस्त 8

उस दिन

खनकती हुई सी इक याद, जैसे सुबह की धूप
नयनों में भर गया कोई, ज्यों चाँदनी का रूप

उस दिन

अचानक छा गये मेघ काले-धूसर
देखते ही देखते स्याह हो गया अम्बर
गरजने लगा इंद्र सेनापति सा
परचम लहराने लगे पवनदेव झूमकर
धरा उत्सुक थी स्वागत करने को
ऊंचे पर्वत भी घाटियों के दामन फैलाये
थे आतुर अमृत भरने को
पहले इक्का-दुक्का ही झरीं बूँदे
उस दोपहर
बरामदे में बैठ लगी जब वह सुनने
प्रकृति का मृदुल स्वर !
पर क्षणों की ही देर थी
तीव्र हो गया वेग वर्षा का
छप छप छपाक छपाक के सिवा
 न दे कुछ सुनाई, न आता था नजर
बूंदों के पार निहारा जब उसने
 नजर आती थीं बूँदें बस कुछ दूर तक
ऊपर तो था सपाट आकाश
मानो उसे हो ही न कोई खबर
मध्य में ही रचे जाता हो यह दृश्य
कोई अपने जादुई स्पर्श से
वह और बैठ न रह सकी  
प्रकृति के इस आह्लाद में शामिल होने से
वंचित स्वयं को कर न सकी
   हरियाली में नीचे भी जल था
 धाराएँ बरस रही थीं ऊपर से
भिगो रही थीं तन, मन को
 ही नहीं, उसके अन्तस् को
  सुखदायी वह जल का स्पर्श
 धरा की गोद कितनी कोमल
सिमट आया अस्तित्त्व उस क्षण उसकी आँखों में
  रेशा-रेशा सरस हो गया मेह में  
वह भाग बन गयी प्रकृति का
ज्यों पंछी, वृक्ष, लॉन की हरी घास और फूल
उस दिन जाना उसने
थी वह ध्वनि बढ़कर स्वर्गीय संगीत से
छुअन मखमली स्पर्श से !


बुधवार, अगस्त 7

छोटी बुआ

दो वर्ष पूर्व यह संस्मरण मैंने लिखा था, पर तब पीड़ा इतनी थी कि इसे किसी से साझा करने का मन नहीं हुआ, आज दो वर्ष बाद मन कृतज्ञता से भरा है सो आप सब के साथ इसे बाँट रही हूँ.


छोटी बुआ


गैया-मैया बाँय-बाँय
तेरा दूध-दही हम खाएं,
तेरा बछड़ा जोते खेत
जिसकी मेहनत सोना देत,
तेरे गोबर को हम मानें
जो बरसाए मोती दाने !
...............................
............................
३० जून २०११
यह कविता बचपन में मुझे छोटी बुआ ने याद करायी थी, हम साथ-साथ गाया करते थे. बरसों बीतने पर भी जब भी उनसे मिलना हुआ हम इस कविता का जिक्र एक बार जरूर करते थे. उन्हें यह कविता पूरी याद थी और मुझे सदा एकाध पंक्ति भूल जाती थी. धर्मयुग में छपी थी यह कविता, पीछे के पन्नों पर जहाँ बच्चों का कोना हुआ करता था, अब तो न धर्मयुग रह गया है न ही छोटी बुआ का कुछ पता है. उन दिनों पापाजी अपने दफ्तर के पुस्तकालय से लाया करते थे ढेर सारी पत्रिकाएँ और किताबें, कुछ दिन घर पर रहतीं फिर नई आ जातीं. हम सभी भाई बहनों को किताबें पढ़ने का शौक तभी से लग गया था. बुआ ज्यादा नहीं पढ़ती थीं पर इस कविता ने उन्हें बांध लिया था. उम्र में वह दीदी के बराबर ही थीं. माँ बताती थीं की जब दीदी का जन्म होने वाला था तो दादी और वह दोनों एक ही अस्पताल में साथ-साथ गयी थीं, एक ही कमरे में बुआ, भतीजी का जन्म हुआ कुछ दिनों के अंतर से. जाहिर है बुआ हम भाई-बहनों के साथ ही बड़ी हुईं, पर दादी की उम्र ज्यादा थी और ऊपर से उनकी आँखें भी बहुत कम देख पाती थीं, एक आँख बचपन से ही चेचक की शिकार हो गयी और दूसरी काला मोतिया बिगड़ जाने के कारण. अब घर का सारा काम बुआ के सर पर आ पड़ा. वह जैसे बचपन में ही बड़ी हो गयीं. मुसीबत अकेले नहीं आती, मंझले भाई की पत्नी को मिर्गी की बीमारी थी, जिसे विवाह से पहले छिपाया गया था, उनके आने से काम कम होने की बजाय और बढ़ गया.  बुआ मेरे ही स्कूल में पढ़ती थीं पहले मुझसे आगे पर बाद में मुझसे पीछे हो गयीं, एक बार स्कूल में उन्हें नाक पर गहरी चोट लगी, काफ़ी दिनों तक बिस्तर पर रहीं, दिमाग पर असर हो गया था, पढ़ाई में वह पिछड़ने लगीं. लेकिन साफ-सफाई का बहुत ध्यान रखती थीं, पैरों को एकदम रगड़ कर साफ करतीं, स्कूल की ड्रेस रोज प्रेस करके पहनतीं, हम एक ही स्कूल में थे शायद आठवीं तक. उसके बाद हम दूसरे शहर चले गए. बुआ की पढ़ाई आगे नहीं हो पायी. अब उनके ऊपर अपने नन्हें भतीजे व भतीजी की जिम्मेदारी भी आ गयी थी, दीदी का विवाह हो गया उसके कई वर्षों बाद तक वह अपने माँ-पिता का घर सम्भालने का काम कर रहीं थीं. रंग साँवला था, शिक्षा भी कम थी और उनके विवाह की चिंता माता-पिता को सता रही थी, एक रिश्ता मिला अच्छा परिवार था सरकारी नौकरी में लड़का था, अब जाकर उनकी जिंदगी में कुछ खुशियाँ आयीं, विवाह के कुछ समय बाद जब मिलीं तो  बुआ बहुत खुश लग रही थीं. वह खाना बहुत अच्छा बनाती थीं, शादी के बाद एक बार वह कुछ दिनों के लिये हमारे घर आयीं, माँ मामा के यहाँ गयीं थीं, दीदी ससुराल की हो गयी थी, सो भोजन बनाने की जिम्मेदारी मुझ पर थी, उन्होंने मुझे आलू-टमाटर की सब्जी बनानी सिखाई, आज तक मैं उसी तरीके से यह सब्जी बनाती हूँ. वह कहती थीं की आलू को उबालने के बाद कभी भी चाकू से काट कर मत डालो, उसे हाथ से दबा दो और टमाटर को पीस लो या कस लो. जीरे का छौंक और हल्की मिर्च व नमक, हल्दी डाल कर बनाओ. एक और कला उनमें थी, दसूती व सिंधी टांके की कढ़ाई वह बहुत अच्छी करती थीं, मैंने उनसे प्रेरित होकर दो डबल बेड की चादरों पर कढ़ाई की, एक आज भी मेरे पास है. विवाह के कुछ समय बाद बुआ के दो बच्चे हुए, बड़ा बेटा और छोटी बेटी, दोनों बहुत होशियार और सुंदर. परिवार सुख से रह रहा था कि फिर गाज गिरी. फूफाजी को स्ट्रोक हुआ और वे पक्षाघात के शिकार हो गए, कई महीने इलाज चला कुछ ठीक भी हुए, दोबारा काम पर भी गए पर ज्यादा नहीं जी सके. इतना बड़ा आघात उन्होंने कैसे सहा होगा, बुआ को पति की जगह काम मिल गया, पढ़ाई कम थी सो काम भी मिला तो चतुर्थ श्रेणी का, जिस दफ्तर में पति ऊँची पोस्ट पर रहे हों वहाँ फाइलें पहुँचाने का काम करते हुए उनके दिल को ठेस लगती रही होगी, वह बीमार रहने लगीं. धीरे धीरे बच्चे भी बड़े हो गए और बेटा पढ़ाई करके नौकरी करने लगा. बेटी कॉलेज में आ गयी. पहले तो फोन पर वह बात करतीं थीं बाद में फोन पर बच्चों से ही खबर मिल जाती थी आज के युग में सभी अपने-अपने जीवन में व्यस्त हैं, सो मिलना तो बरसों से नहीं हुआ न ही वह परिवार की किसी शादी में आयीं, सबसे कटकर रह गयीं, यही दुःख रहा होगा जो उन्हें अंदर ही अंदर खाता गया और वह मानसिक रोग की शिकार हो गयीं, एक-दो बार बिना किसी को बताए घर से चली गयीं, फिर लौट आयीं, अब की बार गयीं हैं तो एक महीने से ऊपर हो गया है अभी तक उनका कोई पता नहीं है, हर रात मैं प्रार्थना करती हूँ कि कल शायद उनकी कोई खबर मिलेगी... ईश्वर ही उनके साथ है इस दुनिया में तो उन्हें सुख कम और दुःख ज्यादा झेलना पड़ा......

३० जुलाई २०१३
अब इस बात का पूरा यकीन हो गया है कि ईश्वर सदा हमारी प्रार्थनाएं सुनता है. कल रात अभी हम सोने की तैयारी कर रहे थे कि फोन की घंटी बजी, छोटे भाई का फोन था, बुआ की खबर मिल गयी है, सुनते ही विश्वास नहीं हुआ, दो वर्ष हो गये हैं उन्हें घर से गये हुए, उनके बच्चों ने ढूँढने में कोई कसर नहीं छोड़ी, पुलिस में रिपोर्ट तो तभी दर्ज करा दी थी, अख़बार, टीवी सभी में उनकी गुमशुदगी का समाचार दे दिया था. आज अचानक कैसे क्या हुआ ? भाई ने बताया, वह मैसूर स्थित टाइम्स ग्रुप के करुणा ट्रस्ट के मानसिक अस्पताल में हैं, लगभग पौने दो वर्ष पूर्व उन्हें बैंगलोर रेलवे स्टेशन पर वहाँ की पुलिस ने देखा और उनकी हालत देखकर मैसूर भेज दिया. अब वे ठीक हो रही हैं, उन्होंने अपने बच्चों का नाम व घर का पता बताया जिससे लखनऊ पुलिस को खबर की गयी. आज शाम को चार बजे जब उनके दोनों बच्चे अपने-अपने काम पर थे. पुलिस का एक सिपाही आया, पड़ोसिन ने ही उसके फोन से बुआ से बात की और उन्हें पहचान लिया. भाई ने कहा इस वक्त उनका पुत्र अपने दफ्तर के लोगों की सहायता से हवाई जहाज द्वारा बैंगलोर रवाना हो चूका है और सम्भवतः कल या परसों वे अपने घर लौट आएँगी. बताते समय भाई की आवाज ख़ुशी से भरी हुई थी और सुनते समय मेरे मन में एक ही बात गूंज रही थी, ईश्वर ने कितने लोगों को निमित्त बनाया और बिछुड़े हुओं को मिलाया. उसकी कृपा अपार है.