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शुक्रवार, जुलाई 4

ऊपर-नीचे जग है क्रीड़ा

ऊपर-नीचे जग है क्रीड़ा


गहराई में जाकर देखें 

एक धरा से उपजे हैं सब, 

ऊँचाई पर बैठ निहारें 

सूक्ष्म हुए से खो जाते तब !


रहे धरा पर उसको  पीड़ा 

ऊपर-नीचे जग है क्रीड़ा, 

ज्यों निद्रा में सब खो जाये 

स्वप्नों में भी मन बहलाये ! 


लेकिन एक अवस्था चौथी 

जिसमें तीनों एक हुए हैं, 

जगना, सोना, स्वप्न देखना 

तीनों जहां विलीन हुए हैं !


वहीं ठिकाना मिला जिसे गर 

सदा तृप्त, हर्षित हो गाए, 

जुड़ अनंत ऊर्जा से निशदिन 

तीनों में वह आये-जाये !


रविवार, अप्रैल 20

घर इक मंज़िल

घर इक मंज़िल 

 इन वक्तों का यही तक़ाज़ा

 रहे ह्रदय का ख़्वाब अधूरा, 


बनी रहे मिलने की ख्वाहिश 

जज़्बा क़ायम कुछ पाने का !


है स्वयं पूर्ण, जगत अधूरा

मिथ्या स्वप्न, सत्य है पूरा, 

 

 क्षितिज कभी हाथों ना आता

चलता राही थक सो जाता !


 फूलों के दर्शन हो सकते

मंज़िल कहाँ मिलेगी मग में, 


लौट जरा अपने घर आना 

वहीं मिलेगा सरस ठिकाना !


बुधवार, अक्टूबर 9

रेत पर टिकते नहीं घर

रेत पर टिकते नहीं घर

​​

स्वप्न ही तो है जगत यह 

टूटना नियति है इसकी, 

सत्य मानो या सहेजो 

छूटना फ़ितरत इसी की ! 


आँख भरकर देख लो बस 

मुस्कुरा लो साथ मिलकर, 

किंतु न बाँधो उम्मीदें 

रेत पर टिकते नहीं घर !


ओस की इक बूँद हो ज्यों 

है यही सौंदर्य इसका, 

गगन में रंगों का मेल 

नदी में ज्यों बहे धारा !


प्रीत की जो बेल बोई 

वह सदा उसके लिए है, 

भ्रम हुआ जब जगत चाहा 

शाश्वत सदा अप्रगट है !


जगत माला में पिरोया 

स्वयं बनकर पूर्ण आया, 

स्वयं को ही देखते हम 

स्वप्न का लेते सहारा !


बुधवार, सितंबर 18

प्रतीक्षा

प्रतीक्षा 

कान्हा गये गोकुल छोड़ 

उसके अगले दिन 

सुबह सूरज के जगने से पूर्व 

जग गई थीं आँखें 

तकतीं सूनी राह 

लकीरें खींचते स्वचालित हाथ 

फिर एक बार, बस एक बार 

तुम आओगे ? शायद तुम आओ 

कानों में मधुरिमा घोलती आवाज़ 

कागा की !

जैसे राधा का तन-मन 

बस उस एक आहट का प्यासा हो 

युगों से, युगों-युगों से 

उठे नयन उस ओर, हुए नम 

एकाएक प्रकट हुआ वह 

हाँ, वही था 

फिर हो गया लुप्त 

संभवतः दिया आश्वासन 

यहीं हूँ मैं !

यह यमुना, कदंब और बांसुरी 

अनोखे उपहार उसके 

हँस दीं आँखें राधा की 

विभोर मन, पागल होती वह 

संसार पाकर भी नहीं पाता 

और आँखें ढूँढ निकलती हैं 

स्वप्न ! सुनहरे-रूपहले स्वप्न 

जिन्हें सच होना ही है 

वे सच होंगे, प्रतीक्षा रंग लाएगी 

सूरज आएगा, धरती पीछे 

रचे जाएँगे गीत 

नये, अप्रतिम, अछूते 

हर युग में ! 


बुधवार, मार्च 6

अपना-अपना स्वप्न देखते

अपना-अपना स्वप्न देखते 


एक चक्र सम सारा जीवन 

जन्म-मरण पर जो अवलंबित,

एक ऊर्जा अवनरत  स्पंदित 

अविचल, निर्मल सदा अखंडित ! 


एक बिंदु से शुरू हुआ था 

वहीं लौट कर फिर जाता है, 

किन्तु पुनः पाकर नव जीवन

नए कलेवर में आता है ! 


पंछी, मौसम, जीव सभी तो 

इसी चक्र से बँधे हुए हैं , 

अपना-अपना स्वप्न देखते 

नयन सभी के मुँदे  हुए हैं !


हुई शाम तो लगीं अजानें  

घंटनाद कहीं जलता धूप  ,

कहीं आरती, वन्दन, अर्चन 

कहीं सजा महा सुंदर रूप !


एक दिवस अब खो जायेगा 

समा काल के भीषण मुख में, 

कभी लौट कर न आयेगा 

बीता चाहे सुख में दुःख में ! 


एक रात्रि होगी अन्तिम भी 

तन का दीपक बुझा जा रहा, 

यही गगन तब भी तो होगा 

पल-पल करते समय जा रहा !


शुक्रवार, नवंबर 24

स्वप्न और जागरण

स्वप्न और जागरण 

जाग गया जो

वह देख सकता है 

 जूझ रहा है कैसे 

सोया हुआ व्यक्ति

दु:स्वप्नों से !

सुख की चाह की ख़ातिर 

दुख देता है औरों को 

पर बोता है बीज दुख के

 ख़ुद के लिए 

शिशु के रुदन के प्रति भी 

नहीं पिघलता जो दिल 

घिरा नहीं क्या घोर तमस से 

आत्मा का स्पर्श हुए बिना 

सत्य दिखाई नहीं देता 

अभाव और दुखों से जूझते जन 

निज सुख के आगे देख नहीं पाता 

 परम का स्पर्श मिल जाता है जब

करुणा जागती है उसी क्षण

कोई उम्मीद न करे औरों से 

ख़ुदा होने की 

चढ़ाना होगा सूली पर सदा 

ख़ुद को ही 

औरों को न वेदी पर तुम बिठलाओ 

ख़ुद के भीतर ही देवता को पाओ 

ख़ुदा से मिलने की कोई और तो रीत नहीं 

ख़ुद से बढ़कर मिलती कहीं भी प्रीत नहीं 

स्रोत भीतर प्रेम का है 

दिल की राह से जाना होगा 

वहीं से झरती है संग करुणा

 गंगा ज्ञान, भक्ति यमुना 

और कर्म की वरुणा ! 


सोमवार, जून 19

चम्पा सा खिल जाने दो मन



चम्पा सा खिल जाने दो मन

उठो, उठो अब बहुत सो लिये
सुख स्वप्नों में बहुत खो लिये
दुःख दारुण पर अति रो लिये
वसन अश्रु से  बहुत धो लिये

उठो करवटें लेना छोड़ो
दोष भाग्य को देना छोड़ो
नाव किनारे खेना छोड़ो
दिवा स्वप्न को सेना छोड़ो

जागो दिन चढ़ने को आया
श्रम सूरज बढ़ने को आया
नई राह गढ़ने को आया
देव तुम्हें पढ़ने को आया

होने आये जो हो जाओ
अब न स्वयं  से नजर चुराओ
बल भीतर है बहुत जगाओ
झूठ-मूठ मत  देर लगाओ

नदिया सा बह जाने दो मन
हो वाष्पित उड़ जाने दो मन
चम्पा सा खिल जाने दो मन
लहर लहर लहराने दो मन

मंगलवार, जनवरी 31

मन भी किसी और की माया

मन भी किसी और की माया


​​माटी से निर्मित यह भूमा

माटी से ही चोला तन का, 

माटी का भी स्रोत कहीं है 

ढूँढे वही यात्री मन का !


हर पदार्थ मन की छाया है 

मन भी किसी और की माया, 

निजता में ही मिलता शायद 

धुर नीरव  में नाद समाया !


ज्यों कुम्हार मन में रचता है 

फिर आकार बनें माटी के, 

उर संवेग भाव उमड़ें जब  

तब उढ़ाए वस्त्र शब्दों के !


  जग में मुक्त वही विचरे वपु 

मुदिता मद सम नीर उर भरे, 

 अकल्पनीय स्वप्न पलकों में

नहीं विकल्पों से कभी डरे !


सोमवार, जुलाई 11

एक कंकर चाहतों का

एक कंकर चाहतों का 


टुकड़ा-टुकड़ा जोड़ा मन 

  बुत इक अद्भुत बना लिया, 

 कभी सोया जागा कभी 

कुछ स्वप्नों से सजा लिया !


दर्पण झील हुआ जब थिर  

था चाँद उसमें झाँकता ,

एक कंकर चाहतों का 

तिलिस्म पल में मिटा गया !


जो था नहीं, है न होगा 

 उसे सँवारा करता  जग,

 छुपा नजर के पीछे जो

 खुद को उससे बचा गया  !


राज क्या उनकी ख़ुशी का 

राहबर बन जो मिले थे, 

मिले सब यह रोग छूटा 

जो पाया गुनगुना लिया !


गुरुवार, जुलाई 7

स्वप्न में मन बुने कारा


स्वप्न में मन बुने कारा


एक का ही है पसारा

गुनगुनाता जगत सारा,

निज-पराया, अशुभ-शुभता,

स्वप्न में मन बुने कारा !


मित्र बनकर स्नेह करता 

शत्रु बन खुद को डराता, 

जाग कर देखे, कहाँ कुछ ?

सकल पल में हवा होता !


जगत भी यह रोज़ मिटता 

आज, कल में जा समाता, 

अटल भावी में  यही कल 

देखते ही जा सिमटता !


नींद में किस लोक में था 

भान मन को कहाँ होता,   

जाग भीतर कौन जाने  

खबर स्वप्नों की लगाता !


अचल कोई कड़ी भी है  

जो पिरोती है समय को, 

जिस पटल पर ख़्वाब दिखते 

सदा देती जो अभय को !


क्या वही अपना सुहृद जो 

रात-दिन है संग अपने, 

जागता हो हृदय या फिर 

रात बुनता मर्त्य सपने !

सोमवार, मार्च 28

स्वप्न और जागरण

स्वप्न और जागरण 

मन केवल नींद में  ही नहीं देखता स्वप्न

दिवा स्वप्न भी होते हैं 

जागती आँखों से देखे गए स्वप्न 

बात यह है कि 

खुद से मिले  बिना नींद खुलती ही नहीं 

या कहें कि खुद से बिछुड़ना 

है एक स्वप्न  

जो हर कोई देख रहा है 

अंतर में जगना जब तक नहीं हुआ 

 सोया ही हुआ है

अर्थात् इस या उस स्वप्न में खोया ही हुआ  है 

हर कोई  निर्माता है

निज सृष्टि का 

 दृष्टिकोण, विचार, मान्यताओं 

और धारणाओं की दीवारों से 

अपना महल सजाता है 

देखकर भी असलियत को 

नज़रें चुराता है 

जो करणीय है वह कल पर टाले जाता है 

हर कोई  क़ैद है 

अपने ही बनाए मायाजाल में

खुद से बिछुड़े हुए हम इक दिन तो जागेंगे 

उस क्षण से पूर्व नहीं हमारे दुःख भागेंगे 

स्वयं की अनंतता का अनुभव ही काम आएगा 

भीतर का प्रकाश ही ज्योति दिखाएगा ! 


शुक्रवार, नवंबर 26

जाग भीतर कौन जाने

जाग भीतर कौन जाने  


एक का ही है पसारा

गुनगुनाता जगत सारा,

निज-पराया, अशुभ-शुभता,

स्वप्न में मन बुने कारा !


मित्र बनकर स्नेह करता 

शत्रु बन खुद को डराता, 

जाग कर देखे, कहाँ कुछ ?

सकल पल में हवा होता !


जगत भी यह रोज़ मिटता 

आज में कल जा समाता, 

अटल भावी में  यही कल 

देखते ही जा सिमटता !


नींद में किस लोक में था 

भान मन को कहाँ होता,   

जाग भीतर कौन जाने  

खबर स्वप्नों की सुनाता !


अचल कोई कड़ी भी है  

जो पिरोती है समय को, 

जिस पटल पर ख़्वाब दिखते 

सदा देती जो अभय को !


क्या वही अपना सुहृद जो 

रात-दिन है संग अपने, 

जागता हो हृदय या फिर 

रात बुनता मर्त्य सपने !