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बुधवार, नवंबर 3

जब अंतरदीप नहीं बाले




जब अंतरदीप नहीं बाले

पूर्ण हुआ वनवास राम का, 
सँग सीता के लौट रहे हैं
 हुआ अचंभा देख लखन को , 
द्वार अवध के नहीं खुले हैं !

अब क्योंकर उत्सव यह होगा, 
दीपमालिका नृत्य करेगी,
रात अमावस की जब दमके, 
मंगल बन्दनवार सजेगी  ! 

हमने भी तो द्वार दिलों के, 
कर दिये बंद ताले डाले
राम हमारे निर्वासित हैं,
जब अंतरदीप नहीं बाले !

राम विवेक, प्रीत सीता है, 
दोनों का कोई मोल नहीं
शोर, धुआँ ही नहीं दिवाली, 
जब सच का कोई बोल नहीं !

धूम-धड़ाका, जुआ, तमाशा, 
देव संस्कृति का हो अपमान,
पीड़ित, दूषित वातावरण है 
उत्सव का न किया सम्मान !

जलें दीप जगमग हर मग हो, 
अव्यक्त ईश का भान रहे,
मधुर भोज, पकवान परोसें
 मन अंतर में रसधार बहे !

शुक्रवार, अक्टूबर 15

विजयादशमी


विजयादशमी 


आज विजयादशमी है !

आज भी तो रावण के पुतले जलेंगे,

क्या वर्ष भर हम रावण से मुक्त रहेंगे ?

नहीं,...तब तक नहीं

जब तक, दस इन्द्रियों वाले मानव का

विवेक निर्वासित किया जाता रहेगा,

और अहंकार

बुद्धि हर ले जाता रहेगा,

अब सीता राम का मिलन होता ही नहीं

यदि होता तो राष्ट्र आतंक के साये में न जीते

 विकास के नाम पर रसायन युक्त अन्न 

और हवा के नाम पर जहर न पीते

न होती विषमताएं समाज में

आखिर कब घटेगा दशहरा हमारे भीतर?

कब ?

तभी न, जब

विवेक का साथ देगा

वैराग्य 

दोनों प्राण के जरिये

बुद्धि  को मुक्त करेंगे

तब होगा रामराज्य

जर्जर हो यह तन, बुझ जाये मन

उसके पहले

जला डालें अपने हाथों

अहंकार के रावण, मोह के  कुम्भकर्ण

लोभ के मेघनाथ भी

उसी दिन होगी सच्ची विजयादशमी !

बुधवार, अप्रैल 21

राम की छवियाँ जो हर मन में बसी हैं

 राम की छवियाँ जो हर मन में बसी हैं 

पैरों में पैजनियां पहने 

घुटनों-घुटनों चलते राम, 

माँ हाथों में लिए कटोरी

आगे आगे दौड़ते  राम !


गुरुकुल में आंगन बुहारते 

गुरू चरणों में झुकते राम, 

भाइयों व मित्रों को पहले 

निज हाथों से खिलाते राम !


ताड़का सुबाहु विनाश किया 

 यज्ञ की रक्षा करते राम, 

शिव का धनुष सहज ही तोडा 

जनक सुता को वरते राम !


जन-जन के दुःख दर्द को सुनें 

अयोध्या के दुलारे राम, 

राजा उन्हें बनाना चाहें  

पिता नयनों के तारे राम !


माँ की चाहना पूरी करने  

जंगल-जंगल घूमते राम, 

सीता की हर ख़ुशी चाहते 

हिरन के पीछे जाते राम !


जटायु को गोदी में लेकर 

आँसूं बहाते व्याकुल राम, 

खग, मृग, वृक्षों, बेल लता से 

प्रिया का पता पूछते राम !


शबरी के जूठे बेरों को 

बहुत स्वाद ले खाते राम, 

हनुमान कांधों पर बैठे 

सुग्रीव मित्र बनाते राम !


छुप कर बालि को तीर चलाया 

दुष्टदलन भी करते राम, 

हनुमान को दी अंगूठी 

याद सीता को करते राम !


सागर पर एक सेतु बनाया 

शिव की पूजा करते राम, 

असुरों का विनाश कर लौटे 

पुनः अयोध्या आते राम !


सारे भूमण्डल में फैली 

रामगाथा में बसते राम, 

जन्मे चैत्र शुक्ल नवमी को

मर्यादा हर सिखाते राम !



बुधवार, अगस्त 5

राम

राम 


त्रेता युग में जन्मे थे 
मर्यादापुरुषोत्तम राम,  
किन्तु आज भी अति पावन 
परम उनका सुंदर नाम !

अनंत को सांत बनाया 
अवतरित  होकर विष्णु ने, 
ना रहे राम पर सीमित
भारत की सीमाओं में !

राम नाम मधुर जाप ने 
सारे जग को गुंजाया, 
हरि अनंत  कथा अनंता 
हर युग ने गायी  गाथा !

जन्मस्थल पर हो मन्दिर 
स्वप्न आज यह पूर्ण हुआ,  
राम राज्य लौटा लाएं   
वर्तमान बाट देखता !

हो स्थापना  मूल्यों की 
 राजाराम चले  जिन पर,
दुनिया को मार्ग दिखाया  
आदर्श पुत्र, भाई बन  !

सीता का नाम सदा ही  
राम से आगे लगाया,  
सहे अनेक अपवाद भी 

मंगलवार, अक्टूबर 25

शुभ दीपावली


जब अंतरदीप नहीं बाले 

 

 
पूर्ण हुआ वनवास राम का, सँग सीता के लौट रहे हैं
अचरज हुआ लक्ष्मण को लख, द्वार अवध के नहीं खुले हैं !

अब क्योंकर उत्सव यह हो, दीपमालिका नृत्य करे,
रात अमावस की दमके, मंगल बन्दनवार सजे ! 

हमने भी तो द्वार दिलों के, कर दिये बंद ताले डाले
राम हमारे निर्वासित हैं, जब अंतरदीप नहीं बाले !

राम विवेक, प्रीत सीता है, दोनों का तो मोल नहीं
शोर, धुआँ ही नहीं दीवाली, जब सच का कोई बोल नहीं !

धूम-धड़ाका, जुआ, तमाशा, उत्सव का न करें सम्मान
पीड़ित, दूषित वातावरण है,  देव संस्कृति का अपमान !

जलें दीप जगमग हर मग हो, अव्यक्त ईश का भान रहे
मधुर भोज, पकवान परोसें, मनअंतर में रसधार बहे !
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बुधवार, जून 1

मन का क्यों द्वार उढ़का है



मन का क्यों द्वार उढ़का है


खुला आसमां कैद नहीं है
बेपर्दा नदिया बहती है,
खुलेआम करे छेड़ाखानी
हवा किसी से न डरती है !

बंद खिड़कियों पर पर्दे हैं
सूरज सरेआम उगता है,
दीवारें क्यों चिन डाली हैं
मन का क्यों द्वार उढ़का है !

बाहर ही से दस्तक देता
कैसे वह प्रियतम घर आये,
फिर कोई क्यों करे शिकायत
क्यों न बंधन उसे सताए !

जब चाहे वह आ सकता हो
खुला-खुला सा आमन्त्रण हो,
उसको पूरी आजादी हो
कुछ ऐसा उसे निमंत्रण हो !

नृत्य उपजता ऐसे मन में
लहर-लहर में तरंगें उठतीं,
कोई जिसको नहीं दूसरा
सारी सृष्टि वहीं उतरती !

मन-मयूर कर ताताथैया
अनजाने से सुख में डोले,
पंखों में भर नेह ऊर्जा
गोपी उर की भाषा बोले !

वेदनायें शर्मा जाएँगी
मन का वह उछाह देख के,
ज्यों अशोक वन में हो सीता
हर्षित राम मुद्रिका लख के !
अनिता निहालानी
१ जून २०११