सोमवार, मई 31

प्रीत बिना यह जग सूना है

प्रीत बिना यह जग सूना  है 


प्रीत जगे जिस घट अंतर में 

वही कुसुम सा विहँसे खिल के, 

यह वरदान उसी से मिलता 

जो माधव मधुर सलोना है !


प्रीत घटे वसंत छा जाता 

उपवन अंतर का महकाता, 

भावों की सरिता को भी तो 

कल-कल छल-छल नित बहना है !

 

जहाँ प्रेम का पुष्प न खिलता 

घट वह मरुथल सा बन जाता, 

शुष्क हृदय में  बसे न श्यामा 

नित कलरव वहाँ गुँजाना है !


प्रीत से ही धरा गतिमय यह 

पंछी, पादप, पशु का जीवन, 

प्रेम से ही होता है सिंचन 

जगती को नूतन होना है !



 

शुक्रवार, मई 28

भीतर रस का स्रोत बहेगा

भीतर रस का स्रोत बहेगा 


छा जाएं जब भी बाधाएं 

श्रद्धा का इक दीप जला लें, 

दुर्गम पथ भी सरल बनेगा

जिसके कोमल उजियाले में !


एक ज्योति विश्वास की अटल  

अंतर्मन में रहे प्रज्ज्वलित, 

जीवन पथ को उजियारा कर 

कटे यात्रा होकर प्रमुदित !


कोई साथ सदा है अपने 

भाव यदि यही प्रबल रहेगा, 

दुख-पीड़ा के गहन क्षणों में 

भीतर रस का स्रोत बहेगा !


श्रद्धालु ही स्वयं को जाने 

कैसे उससे डोर बँधी है,

भटक रहा था अंधकार में 

अब भीतर रोशनी घटी है !


जिसने भी यह सृष्टि रचाई 

दिल का इससे क्या है नाता,

एक भरोसा, एक आसरा

जीवन में अद्भुत बल भरता !

 

गुरुवार, मई 27

बदलती भूमिका


बदलती भूमिका


बदल रही हैं भूमिकाएँ कोरोना काल में 

सुबह-सवेरे उठकर रसोई घर संभालते

फिर हाट-बाजार, करते मोल-तोल सब्जियों का 

कपड़े सुखाने, सफाई करने में भी परहेज नहीं रहा 

फोन पर रेसिपी का आदान-प्रदान करते भी

 देखा जा सकता है आजकल उन्हें 

आधी रात को उठकर बच्चों को सुला भी देते 

और स्त्रियां आजादी की साँस ले रही हैं 

वह घर में बैठकर कनेक्टेड हैं दुनिया-जहान से 

वर्क फ्रॉम होम ने उन्हें दी है फुर्सत 

वरना सुबह भागते हुए गुजरती थी 

घर का काम अकेले ही निपटा कर 

ऑफिस के लिए निकलती थीं 

पापा दिन भर रहते हैं घर पर 

अब वह भी माँ की तरह लगते हैं बच्चों को 

शिकायत का डर नहीं रहा अब 

मिल बैठ कर सब हँसते हैं !

पुरुषों ने सम्भाल ली है घर की कमान 

लॉक डाउन का एक असर यह भी है कि 

उनका रुतबा हो गया है कुछ हद तक समान !



 

सोमवार, मई 24

सृष्टि का रहस्य नहीं जाने

सृष्टि का रहस्य नहीं जाने 
धरती बाँटी, सागर बाँटे 
अंतरिक्ष भी बाँटा हमने, 
टूट गईं सारी सीमाएं 
जब-जब भी चाहा कुदरत ने !

तूफ़ानों का क्रम कब थमता 
मानव सिंधु-सिंधु मथ डाले,
आसमान में बादल फटते 
सरि पर चाहे बांध बना ले !

रोग नए नित बढ़ते जाते 
पाँच सितारा अस्पताल हैं, 
मौसम भीषण रूप दिखाते 
हिमपात कहीं घोर ज्वाल हैं !

कुदरत पर कुछ जोर न चलता  
मानव कितना हो बलशाली, 
सृष्टि का रहस्य नहीं जाने 
हो ज्ञानवान, वैभवशाली !

कुछ रहस्य, रहस्य ही रहते 
खुद को ही यह बोध सिखा लें, 
जिस अनंत में ठहरा है सब 
उस अनाम से नजर मिला लें !

शनिवार, मई 22

पूर्ण भीतर पल रहा है

पूर्ण भीतर पल रहा है 


ज्योति जिसकी शांत कोमल 

चाँदनी सी बिछी पथ में, 

सब तरफ बिखरा उजाला 

एक दीपक जल रहा है !


जगत का मंगल सदा ही 

मांगता, वह ज्ञान देता, 

एक उस का ही पसारा

पीर मन की हर रहा है !


 प्रकटे वही हर शब्द से 

 मूल कारण शब्द का जो 

गड़ी गहरी पीर उर में 

गाँठ हर वह खोलता है !


कसक कुछ न कर सके   

हर अधूरी चाह मन की, 

दूर ले जाती उसी से 

पूर्ण भीतर पल रहा है !


 मन समर्पित हो सके तो 

ढाल बन कर दे सहारा,

सौंप दें हर चाह उसको 

रस सुरीला घोलता है ! 




 

शुक्रवार, मई 21

प्रसाद

प्रसाद 


बरस रहा है कोई अनाम जल 

जो भिगोता है भीतर-बाहर सब कुछ 

भीग जाता है हर कोना कतरा अंतर  का 

तरावट से भर जाती है मन की माटी

इसका कोई स्रोत नजर नहीं  आता 

पर भर लेती है अपने आगोश में 

 प्रकाश की एक धारा 

बरसती है अकारण कभी-कभी 

शायद सदा ही 

पर नजर आती है कभी-कभी 

जाने क्यों !

शायद वह किसी का सन्देश लाती है 

अंतर को भरने आती है 

प्रेम और करुणा से 

सूना न रहे एक क्षण के लिए भी मन का घट

बहती रहे पुरवाई सदा मन के आंगन में 

वह जताने आती है अकेले नहीं हैं हम 

हर पल कोई साथ है 

 भर देती है अनोखी सिहरन रग-रग में 

 कर देती पावन शब्दों को भी अपने परस से 

कैलाश के हिमशिखरों सा 

 या गंगा के शीतल निर्मल जल जैसा  

मानसरोवर में तैरते हंसों की तरह 

अथवा उषा की लालिमा में छायी सूर्य की प्रथम रश्मि सी  

वह एक नजर है किसी गुरू की 

जो हर लेती है सारा विषाद शिष्य के अंतर का 

या एक स्पर्श  है माँ के हाथों का 

अथवा तो पिता का सबल आधार है 

जो शिशु को डिगने नहीं देता 

इन सबसे बढ़कर वह सहज प्रेम है 

या उसमें सब कुछ समाया है 

वह किसी सीमा में नहीं बंधता 

उसे मापा नहीं जा सकता  

वह अज्ञेय है 

अपार है, अनंत है 

तो फिर यही कह दें 

वह ‘उसी’ का प्रसाद है ! 



 

बुधवार, मई 19

मधुर याद बनकर रह जाते

मधुर याद बनकर रह जाते 



महाशून्य में जो खो जाते 

मधुर याद बनकर रह जाते !


जीवन रण में विजयी हो भी 

हो आहत जो बाट जोहते, 

कालदेव अंतिम पीड़ा हर 

हर बंधन से मुक्ति दिलाते !


छोड़ जगत यह वापस जाते 

मधुर याद बनकर रह जाते !


जग मेले में आकर मिलते 

सँग-सँग खुशियां सोग बांटते, 

इक दूजे का स्नेह पात्र बन 

बढ़ते, पलते, और पनपते !


इक झटके में गुम हो जाते 

मधुर याद बनकर रह जाते !


दुनिया एक सराय अनोखी 

अनगिन आते, अनगिन जाते, 

आते-जाते ही रिश्तों की 

सरस डोर से क्यों बँध जाते !


नीड़ त्याग नव नीड़ सजाते ?

मधुर याद बनकर रह जाते !


या फिर कारगार है दुनिया 

सजा काटने ही हम आते, 

जब जिसकी सजा पूरी हुई 

कारावास से मुक्ति पाते !


तोड़ें बंधन फिर उड़ जाते 

मधुर याद बनकर रह जाते !




 

मंगलवार, मई 18

जीवन तो है इक क्रीड़ांगन

जीवन तो है इक क्रीड़ांगन

जीवन जो उपहार मिला था 

उसे व्यर्थ ही बोझ बनाया,

घड़ी देखकर जगते-सोते 

रिश्तों को भी सोच बनाया ! 


तन-मन जैसे यंत्र बन गए  

अब स्वत:स्फूर्त कहाँ है घटता,  

वही सवाल, जवाब भी वही 

गुम हो गयी उर की सरसता !


नहीं शेष सुवास साँसों में

जब भी वे लघु होती जातीं, 

जितना बड़ा दायरा दिल का 

उतना खुद को वे फैलातीं !


गहराई जब मन में होगी 

होगी गहरी लंबी सांसें, 

भय से भरा हुआ जब अंतर 

कंपन से भर जाती सांसें !


नहीं भूमि यह संघर्षों  की 

जीवन तो है इक क्रीड़ांगन, 

छोटे-छोटे अनुभव मिलते

कण-कण में हो पावन दर्शन !


कुदरत का सान्निध्य अनूठा 

श्रम के स्वेद बिंदु  मस्तक पर, 

जीवन एक खेल बन जाता 

चाह नहीं जब भारी मन पर !

 

सोमवार, मई 17

आदमी


आदमी 

राहबर आये हजारों इस जहाँ में 
आदमी फिर भी भटकता है यहाँ पर !

बेवजह सी बात पर भौहें चढ़ाता  
राह तकता है भला बन शांति की फिर

आदतों के जाल में जकड़ा हुआ पर 
किस्से मुक्ति के सुनाता जोश भर कर  

खुद ही गढ़ता बुत उन्हीं से मांगता 
जाने कितने स्वांग भरता भेष धर कर 

इस हिमाकत पर न सदके जाये कौन 
हर युद्ध करता शांति का नाम लेकर  !

उल्टे-सीधे काम भी सभी हो रहे 
है रात-दिन जब मौत का जारी कहर  !
 

रविवार, मई 16

उसी शाश्वत में टिकना है


उसी शाश्वत में टिकना है 

मिलना लहरों का क्या आखिर 
अभी बनी हैं अभी बिखरती 
सागर गहरा और अथाह है 
कितने तूफान उठते उसमें 
फिर भी देखो, बेपरवाह है ! 
पवन डुलाती लहरें उसमें  
बड़वानल भी इस सागर में 
फिर भी जरा सोच कर देखें 
जल का ही संग्रह विशाल है 
सागर यदि सूख भी जाए 
जल का न होता अभाव है 
इस प्रपंच का एक तत्व है ! 
ठहरा  है वह वसुंधरा पर
टिकी हुई जो नीले नभ में 
पंच तत्व के पार भी कुछ है 
जो इन सबको जान रहा है 
ज्ञान सदा ही बड़ा ज्ञेय से 
क्यों न सबका उसे श्रेय दें 
ज्ञाता में ही ज्ञान छिपा है 
उसी शाश्वत में टिकना है 
वहीं सहजता वहीं सरसता
वहीं कमल बन कर खिलना है ! 



 

शनिवार, मई 15

शून्य हो पाथेय अपना

 शून्य हो पाथेय अपना 

अंतहीन है जीवन का यह सफर 

 इस पर थोड़ा भी कम पड़ जाता है 

और ज्यादा भी काम नहीं आता 

अनंत हो जिसका फैलाव 

उसमें भला अल्प कब तक साथ देगा 

और कितना भी ज्यादा हो 

कम ही लगेगा 

चादर कितनी भी फैलाओ 

पैर बाहर निकले आते हैं 

छोटी पड़ जाती है दो अंगुल 

हर बार रस्सी, 

भला इस जग के सामान 

वहाँ कब तक  काम आते हैं 

चलना है अनंत की यात्रा पर तो 

शून्य हो पाथेय अपना 

खाली हो जाये सारे उहापोहों से मन 

टूट जाये हर सपना

 तो जो यात्रा होगी उसकी मंजिल

 झट मिल जाएगी 

जिंदगी बिन बात ही खिल जाएगी ! 


मंगलवार, मई 11

शिक्षा को मूल्यों से भर लें

शिक्षा को मूल्यों से भर लें


अंतरिक्ष तक जा पहुँचा है 

अनगिन तारा मण्डल खोजे, 

सागर की गहराई नापी 

किन्तु हुआ बेबस नर सोचे !


भेद दिया परमाणु मनुज ने 

विनाशकारी बम बरसाया, 

लाखों लोगों को इक पल में 

मृत्यु के आँचल में सुलाया !


सूक्ष्म की ताकत अपरिमित है 

मानव से बढ़ कौन जानता, 

सूक्ष्म तरंगों के बल पर ही 

वर्ल्ड वाइड वेब  रच डाला !


किन्तु सूक्ष्म से लड़ना होगा 

इसकी शायद खबर नहीं थी, 

चिकित्सा पद्धति की सीमा है 

इस तत्व पर नजर नहीं थी !


अभी नहीं था अवगत इससे 

सूक्ष्म जगत भी एक यहां है, 

जीवाणु, विषाणु भी अनेकों 

जिनका बहुत प्रकोप सहा है !


अब भी जाग सकें तो जागें 

जीवन में परिवर्तन कर लें, 

झुकें परम शक्ति के सम्मुख 

शिक्षा को मूल्यों से भर लें !

 

सोमवार, मई 10

कोरोना काल

 कोरोना काल 

 यह कैसा युग आया है 

मोबाइल से दूर रहो यह कहते नहीं थकते थे जो 

अब उसी के सहारे उनकी पढ़ाई करवा रहे हैं 

निकट न जाओ दादा-दादी, नाना-नानी के  

बच्चों को यह पाठ सिखा रहे है

जब पॉजिटिव होना दुर्भाग्य पूर्ण है 

और निगेटिव होना ख़ुशी की बात 

जब मिलजुल कर रहना है शिष्टाचार के खिलाफ 

 और आपस में दूरियां बनाना 

समझदारी का निशान

पहले बीमार होने पर लगता था टीका

स्वास्थ्य की गारंटी  है अब इसे  लगवाना

आईसीयू में जाना था अति अफ़सोस का कारण 

आज आईसीयू में बेड मिल गया तो 

सन्तोष की साँस लेते हैं परिजन 

कोरोना काल में बदल ही गए हैं 

कितने मूल्य और शिष्टाचार के मापदंड

 परिजन या मित्र की मिजाजपुर्सी तो दूर रही 

अब कोई नहीं जाता मातम मनाने 

कोरोना ने दिए हैं इतने जख्म 

कि भूल ही गए हैं लोग कब बदला मौसम 

कब छाये आकाश पर बादल सुहाने !


शनिवार, मई 8

उसी मूल से मन आया है

उसी मूल से मन आया है

नीलगगन पर तिरते मेघा 

सूर्य-चन्द्र, तारागण अनुपम, 

धार अनूठी, नीर सुवासित 

कुदरत की यह महिमा मधुरिम !


अभिनव किसी स्रोत से उपजे 

उसी मूल से मन आया है, 

मधुराधिपति का भव अष्टधा  

मन से ही उपजी काया है ! 


वही चेतना सुंदर बनकर 

बिखर गयी कण-कण में जग के, 

सत्यम शिवम सुंदरम् की ही  

अभिव्यक्ति हो बस जीवन में ! 


हास्य मधुर हो, वाणी मीठी 

रसमय चितवन, याद अनूठी, 

शब्द-शब्द रस से भीगा हो 

एक खानि है भीतर रस की !


आत्मस्रोत चैन का उद्गम 

गंगा सा निर्मल बह जाए,  

सृजन घटे छाया है उसकी 

वही सदा अंतर को भाए !


गुरुवार, मई 6

एक दिन

एक दिन  
अनंत है सृष्टि का विस्तार
अरबों-खरबों आकाशगंगाएं हैं अपार
जिनमें अनगिनत तारा मण्डल 

और न जाने कितनी पृथ्वियाँ होंगी 

कितने सौर मण्डल

 जानते हैं इस ब्रह्मांड के बारे में कितना कम 

ब्रह्मांड को छोड़ें तो इस पिंड से भी 

कितने अनभिज्ञ हैं हम 

जैसे जल में मीन 

वैसे हवा में यह तन 

प्राण ऊर्जा जो इस देह को चलाती है 

श्वास के माध्यम से भी भीतर आती है 

शक्ति से भरती है 

भोजन को पचाती 

रक्त को गति देती है 

देह टिकी है जिस पर 

पर आज एक विषाणु ने रोक दिया है 

उसका निर्बाध  विचरण 

फिर भी याद रहे 

ऊर्जा शाश्वत है विषाणु नश्वर 

उसे हराया जा सकता है 

भय को त्याग कर 

स्वयं को सशक्त बनाया जा सकता है 

एक न एक दिन मानवता उससे मुक्ति पा ही लेगी 

उस दिन फिर से गूंजेगी स्कूलों में बच्चों की आवाजें 

और उनके गीतों से फिजा महकेगी !