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मंगलवार, अप्रैल 30

वृद्धावस्था




वृद्धावस्था 

नहीं भाता अब शोर जहाँ का
अखबार बिना खोले पड़ा रह जाता है
टीवी खुला भी हो तो दर्शक
सो जाता है
गर्दन झुकाए किसी गहन निद्रा में
आकर्षित नहीं कर पाते मनपसंद पकवान भी
नहीं जगा पाते ललक भीतर
न ही भाता है निहारना आकाश को
कुछ घटता चला जाता है अंतर्मन पर
ऊर्जा चुक रही है
शिथिल हो रहे हैं अंग-प्रत्यंग
दर्द ने अब घर बना लिया है स्थायी...
झांकता ही रहता है किसी न किसी खिड़की से तन की
छड़ी सहचरी बनी है
कमजोरी से जंग तनी है
दवाएं ही अब मित्र नजर आती हैं
रह-रह कर बीती बातें यद आती हैं
जीवन की शाम गहराने लगी है
नीड़ छोड़ उड़ गए साथी की पुकार भी
अब बुलाने लगी है
रंग-ढंग जीवन के फीके नजर आते हैं
कोई भाव भी नजर नहीं आता सपाट चेहरे पर
कोई घटना, कोई वाकया नहीं जगाता अब खुशी की लहर
क्या इतनी बेरौनक होती है उसकी आहट
इतनी सूनी और उदास होती है
रब की बुलाहट
क्यों न जीते जी उससे नाता जोड़ें
आखिरी ख्वाब से पहले उसकी भाषा सीखें
मित्र बनाएँ उसे भी जीवन की तरह
तब उसका चेहरा इतना अनजाना नहीं लगेगा
उसका आना इतना बेगाना नहीं लगेगा !






मंगलवार, मई 29

भाई


भाई
अखबार में आने वाली, 
हर पहेली हल करते
उतार चश्मा, नजदीक लाकर, 
महीन अक्षर पढ़ते.... बड़े भाई
अब भी बचपन को सहेजे हैं...
पाँचवें दशक के अंत तक पहुँचे
देख कर लगता है उन्हें
अब भी पढ़ते होंगे
कभी-कभी बाल कथाएँ
प्यार भरी झिड़कियां सुनते
किशोर बेटी की, हँसकर
भाभी की किटी और कीर्तन को झेलते
कर्मठ, समर्पित अधिकारी विभाग के
बड़े भाई जीवन को शिद्दत से जीते हैं...

अर्ध रात्रि, 
एक बड़ा शहर, भीड़ भरा स्टेशन
कार लेकर आया है मंझला भाई
सामान भारी है..आँखें उनींदी..
घर दुमंजिले पर
गाड़ी में ही छोड़ सामान
सोने चले जाते हैं हम
अलसुबह अकेले ही ले आता है
चुपचाप वह सारा सामान...
सुबह की पहली चाय बनाकर पिलाता...
घर व गाड़ी झाड़ता, संगीत बजाता
और आर्मी कैंटीन में
घंटो पंक्ति में खड़े होकर
दिलाता है मनपसंद सामान...
कार्य व परिवार को पूर्णतया समर्पित 
भाई, मंद मंद मुस्काता है....
 
ट्रेन रूकती है रात के दो बजे, 
वह बारह बजे से आकर बैठा था
कहीं आँख न लग जाये
और ट्रेन आ जाये...
सवा तीन बजे हम उतरते हैं
तो चहकता हुआ
वह करता है स्वागत
मानों अभी-अभी सोकर उठा हो तरोताजा..
प्रेम का जादू ही तो है यह
जो रखता है सचेत
नींद और जागरण में एक सा, 
सामान उठाकर रखता है गाड़ी में
और घर में ठहराता है स्नेह से, 
दफ्तर से आते वक्त लाता है फल, मिठाई
इसरार कर खिलाता है
ओशो के सन्यासी
छोटे भाई का मन नहीं भरता..

गुरुवार, जुलाई 28

बहुत रुलाते हैं


नार्वे, लीबिया हो या अफगानिस्तान, या अपना भारत, हर देश के निर्दोष आज हिंसा का शिकार हो रहे हैं.... जाने कब होगा इसका अंत.... 



बहुत रुलाते हैं

बहुत रुलाते हैं आतंक का शिकार हुओं के
परिवार वालों के आँसू
जो अखबार के दूसरे पन्ने पर अंकित हैं, सूखे नहीं हैं
वह रुदन और क्रन्दन
जो एक अर्थहीन हत्या से उपजा है
बहुत दंश देता है !

कुकुरमुत्तों की तरह उग आये हैं
हथियार और बीमार मानसिकताएं
छिड़ा है एक अनाम युद्ध
मुल्क दर मुल्क होते हैं निहत्थों पर वार
आतंक और जनतंत्र में टूटे हुए विश्वास
बहुत रुलाते हैं  !

गोली से व्यक्ति नहीं मरता
मरती है आस्था, टूट जाती है
प्यार की अनवरत धारा
बेबसी, पीड़ा झेलने को बाधित
परिवारों के आँसू
बहुत रुलाते हैं !