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शनिवार, जून 25

हम और वह


हम और वह

हम अहसान जताते उस पर, जिसको अल्प दान दे देते
किन्तु परम का खुला खजाना, बिन पूछे ही सब ले लेते !

दो दाने देकर भी हम तो, कैसे निर्मम ! याद दिलाते
जन्मों से जो खिला रहा है, क्यों कर फिर उसके हो पाते ?

कैसे मोहित हुए डोलते, मैं बस मैं की भाषा बोलें
परम कृपालु उस ईश्वर का, कैसे फिर दरवाजा खोलें !

कटु वाणी के तीर चलाते, नहीं जानते बीज बो रहे
क्रोध की इस विष की खानि से, निज पथ में शांति खो रहे !

वह करुणा का सागर है, नित अकारण ही रहे दयालु
सदा सहारा देता सबको, शांति का सागर, प्रेम कृपालु !

अनिता निहालानी
२६ जून २०११