घर-बाहर
तुम्हारे भीतर जो भी शुभ है
वह तुम हो
और जो भी अनचाहा है
मार्ग की धूल है
सफर लंबा है
चलते-चलते लग गए हैं
कंटक भी कुछ वस्त्रों पर
मटमैले से हो गए हैं
पर वे सब बाहर-बाहर हैं
धुल जायेंगे
एक बार जब पहुंचे जाओगे घर !
मार्ग में दलदल भी थे लोभ के
थोड़ा सा कीचड़ लगा है पैरों पर
गुजरना पड़ा होगा कभी जंगल की आग से भी
धुआँ और कालिख चिपक गयी होगी
कभी राग के फल चखे होंगे
मधुर जिनका रस-रंग भी टपक गया है
कभी द्वेष की आंच में तपा होगा उर
सब कुछ बाहर ही उतार देना
घर में प्रवेश करने से पूर्व !
घर में शीतल जल है
प्रक्षालन के लिए
तुम्हारा जो भी शुभ है स्वच्छ है
नजर आएगा तभी
मिट जाएगी सफर की थकान
और पाओगे सहज विश्राम
घर बुलाता है सभी को
पर जो छोड़ नहीं पाते मोह रस्तों का
भटकते रहते हैं
अपने ही शुभ से अपरिचित
वे कुछ खोजते रहते हैं !