hindi लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
hindi लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, मई 20

ढाई आखर वाला प्रेम


ढाई आखर वाला प्रेम

‘ढाई आखर वाले’ उस प्रेम को पाने के लिये
इस प्रेम की गली से तो गुजरना ही होगा,
पर एक बार उस प्रेम को चखने के बाद
इस प्रेम का स्वाद भी बदल जायेगा
अभी तो मैल जमी है जिह्वा पर
माया के बुखार वाली
तभी बेस्वाद है जिंदगी
कभी भर जाता है मन कड़वाहट से
कभी कसैले लगने लगते हैं रिश्ते
कभी आंसुओं से भीग जाता है दामन
उस प्रेम को चखते ही..
बदल जाता है सब कुछ जैसे 
सब ओर वही प्रकाश भर जाता है
सबकी आँखों में भी झलकता है वही
उमड़ता है सहज स्नेह
छूट जाती हैं अपेक्षाएं
खो जाती हैं सारी मांगे
उस प्रेम की बाढ़ में
तिरोहित हो जाती है संकीर्णता
बहा ले जाता है सारा का सारा विषाद
एक ही साथ..
जन्म भर के लिये
वसंत छा जाता है भीतर !


अनिता निहालानी
२० मई २०११





शनिवार, मई 14

इंद्रधनुष सतरंगी नभ में




इंद्रधनुष सतरंगी नभ में

पल भर पहले जो था काला 
नभ कैसा नीला हो आया,
धुला-धुला सब स्वच्छ नहाया
प्रकृति का मेला हो आया !

इंद्रधनुष सतरंगी नभ में
सौंदर्य अपूर्व बिखराता,
दो तत्वों का मेल गगन में
स्वप्निल इक रचना रच जाता !

जहाँ-जहाँ अटकीं जल बूंदें
रवि कर से टकराकर चमकें,
जैसे नभ में टिमटिम तारे
पत्तों पर जलकण यूँ दमकें !

जहाँ-तहाँ कुछ नन्हें बादल
होकर निर्बल नभ में छितरे,
आयी थी जो सेना डट के
रिक्त हो गयी बरस बरस के !

पूरे तामझाम संग थी वह
काले घन ज्यों गज विशाल हो,
गर्जन-तर्जन, शंख, रणभेरी
चमकी विद्युत, तिलक भाल हो !

पंछी छोड़ आश्रय, चहकें
मेह थमा, निकले सब घर से
सूर्य छिपा था देख घटाएँ
चमक रहा पुनः चमचम नभ में !

जगह जगह बने चहबच्चे
फुद्कें पंछी छपकें बच्चे,
गहराई हरीतिमा भू की
शीतलतर पवन के झोंके !
अनिता निहालानी
१४ मई २०११    

गुरुवार, मार्च 17

मादक अमृत सी ऋतु होली

होली
जीवन का प्रतीक वसंत है
यौवन का प्रतीक वसंत है,
होली मिश्रण है दोनों का
हँसता जिसमें दिग-दिगंत है !

रस, माधुर्य और सरसता
आशा, स्फूर्ति व मादकता
होली अंतर की उमंग है
अमर प्रेम की है गहनता !

जिंदादिल उत्साह दिखाते
शक्ति भीतर भर-भर पाते,
होली के स्वागत में आनंद 
पाते उर में और लुटाते !

सुंदर, शुभ कल्पना सजती
रंगों की आपस में ठनती,
लाल भाल, कपोल गुलाबी
मोर पंख सी चुनरी बनती !

फूलों से मन खिल-खिल जाते
अणु-अणु सृष्टि के मुस्काते,
लुटा रहा मौसम जो सुरभि
चकित हुए नासापुट पाते !

हरा-भरा प्रफुल्लित अंतर
कण-कण में झलके वह सुंदर,
मधुरिम, मृदुलिम निर्झर सा मन  
कल-कल करे निनाद निरंतर !

मादक अमृत सी ऋतु होली
अमराई में कोकिल बोली,
जोश भरा उन्मुक्त हृदय ले
निकली मत्त मुकुल की टोली !

अनिता निहालानी
१७ मार्च २०११











शुक्रवार, मार्च 4

वसंत

वसंत 

आया वसंत छाई बहार
सज उठी धरा कर नव सिंगार,
बिखरा मद मधुर नेह पाकर
कण-कण महका छाया निखार !

सजते अंतर के दिग-दिगंत
मोह-शीत का हुआ सु-अंत
खिल जाते अनगिन भाव पुष्प
प्रियतम लाता सच्चा वसंत !

मदमस्त हुआ मतवाला मन
गूंजे भ्रमरों की मधु रुन-झुन
बह चली निर्झरी हृदगुह में
भीगा भीगा सा उर उपवन !

बहती मृदुला शीतल पवन
विमल मेघ तिरें शुभ्र गगन
दग्ध हुआ अशुभ अशोभन
वासन्ती ऋतु पावन अगन !

है कसक कोकिल कूक कैसी
ज्यों चाह चातक हूक जैसी
चिर विरह का अंजन लगाये
बस राधिका हो मूक ऐसी !

अनिता निहालानी
 ४ मार्च २०११

रविवार, जनवरी 30

बापू के नाम

बापू के नाम

तुम
एक दिव्य चेतना
जो तन मन को सचेत कर गयी है
जैसे एक चिंगारी भड़की हो
 अनुप्राणित कर दिया हो जिसने  
तुम्हारा अनूठा व्यक्तित्व, अनोखे बोल
प्राणोत्सर्ग और वह सब
जिसके लिये तुम लड़े...
 खुद से जुड़ा मालूम होता है,
तुम्हारी आँखों में छिपा दर्द
और निर्भयता की चादर
सत्य के प्रति प्रेम
आज पुकारते हैं
जब देश खड़ा है दोराहे पर,
सच है  
तुमने जो दिया जलाया था
 कहीं खो गया
करोड़ों हाथ जिसके रक्षक थे
बुझ कर जाने कैसे  
असत्य बो गया ?
लेकिन आज भी तुम
धड़कते हो हजारों दिलों में
मशालें आज भी जलती हैं
तुम्हारे नाम की  
आज भी रस्ता दिखाते
नमन तुम्हें, हे बापू !

अनिता निहालानी
३० जनवरी २०११

गुरुवार, जनवरी 27

मैं किशुंक का फूल नहीं हूँ

मैं किशुंक का फूल नहीं हूँ

बहुत वर्षों पहले मेरे फुफेरे भाई ने, जो अब इस दुनिया में नहीं है, यह कविता मुझे भेजी थी, उसने स्वयं लिखी थी या उसने कहीं से नकल की थी मैं जान नहीं पायी. मेरी डायरी में यह अनेक वर्षों से पड़ी हुई थी, आज मैं उसी भाई की स्मृति में आप सबके सम्मुख इसे प्रस्तुत कर रही हूँ यदि किसी को इसके रचनाकार का नाम ज्ञात हो तो कृपया अवश्य बतायें.

कांटे तो रखता हूँ, लेकिन छाया रहित शूल नहीं हूँ
मैं किशुंक का फूल नहीं हूँ !

प्रेम घृणा दोनों से मैंने
अपलक निर्भय आँख मिलायी
पर मेरी निष्कपट धृष्टता
भीरु जगत को रास न आयी,
कायरता के छल से करना
नहीं कभी समझौता सीखा
इसीलिए अमृत-पूजा का
फल भी मिला गरल सा तीखा !

लघु-लघु लहरें काट गिरा दें, ऐसा पोला कूल नहीं हूँ
मैं किशुंक का फूल नहीं हूँ !

विश्वासी मन ने चाहा
विश्वास सदा ही भोलाभाला
किन्तु घात करने वालों को
केवल प्रतिघातों से टाला
निश्छल उर के चरणों पर तो
रख दी मन की ममता सारी
पर ठोकर वाला पग चूमूं
ऐसा नहीं विनम्र पुजारी

दम्भ नहीं कुछ होने का, पर निरी शून्य की भूल नहीं हूँ
मैं किशुंक का फूल नहीं हूँ



  
  

सोमवार, जनवरी 24

जयहिंद

जयहिंद

‘जयहिंद’ का नारा गूंजा जाग उठे भारतवासी
नहीं सहेंगे पराधीनता लगने दो चाहे फांसी !

तुम भारत के पुत्र अनोखे फौलादी दिल को ढाले
खून के बदले ही आजादी मिल सकती कहने वाले !

बापू के थे निकट खड़े फिर भी उनके साथ लड़े
दिल झुकता था कदमों पर कर्तव्य पर कहीं बड़े !  

कैसे अद्भुत सेनानी साम्राज्य से भिड़ने निकले
दिल्ली चलो का नारा दे सँग सेना लड़ने निकले !

भारत गौरवान्वित तुमसे आजाद हिंद फ़ौज निर्माता
कभी कभी ही किसी हृदय में इतना साहस भर पाता !

तुम्हें याद करता भारत अचरज भरी निगाहों से
जिस माटी में तुम खेले ध्वनि आती उन राहों से !

जय हिंद की इक पुकार पर हर भारतीय डोल उठे
 देशभक्ति जो सोयी भीतर ले अंगडाई बोल उठे !

अनिता निहालानी
२४ जनवरी २०११        

मंगलवार, जनवरी 11

उड़ जाती सुख चिड़िया फुर्र से

उड़ जाती सुख चिड़िया फुर्र से


सुख के पीछे दौड़ लगाते  
किन्तु हम दुःख ही ले आते,
उड़ जाती सुख चिड़िया फुर्र से
हाथों को मलते रह जाते !

बाहर सुख की आशा रखना  
चाहें हम बस भ्रम में रहना,
कभी स्मृति, कभी कल्पना
वर्तमान से नजर फेरना !

बीत न जाये यह पल सुख है
काल का नन्हे से नन्हा क्षण,
जिसने इसको जीना सीखा
भर जाता आनंद से तत्क्षण !

महाकाल कहलाता है जो
सहज बाँटता है उल्लास,
जाग गया जो पल में उसको  
भर-भर झोली मिले उजास !

यही नाम, यही हुकुम रजाई
नियम यही ऋत, सत्य यही है,
वर्तमान  ने  दे संदेसे
उसी लोक की कथा कही है !

अनिता निहालानी
११ जनवरी २०११

सोमवार, जनवरी 10

पल-पल पूजित ज्यों देवालय !

पल-पल पूजित ज्यों देवालय !


परे विचारों, भावों से है  
जो शब्दों में कहा न जाये,
लेन-देन न जिसका संभव
अनुभव से ही जिसको पाएँ !

निमिष मात्र में मिल सकता जो  
परों से हल्का, फूल से कोमल,
छूकर देखें शून्य गगन को
इतना पावन, इतना निर्मल !

वह अनंत, नित फ़ैल रहा है
अविचल जैसे महा हिमालय,
सदा से है और सदा रहेगा
पल-पल पूजित ज्यों देवालय !

जल जैसे लहर बन जाता
कभी बूंद बन हमें भिगाता,
वही सरोवर बन लहराता
भेद न उस का जाना जाता !

अनजाने ही हमें लुभाता
बना बहाने निकट बुलाता
जिसके होने से ही हम हैं  
सोये जग वो सदा जगाता !

अनिता निहालानी
१० जनवरी २०११


































शनिवार, जनवरी 8

अद्वैत

अद्वैत

दो के पार जहाँ है एका
एक ही सत्ता व्याप रही है,
द्वंद्वों से जब मुक्त हुआ मन
एक उसी की छाप रही है !

भिन्न-भिन्न मत भिन्न विचार
बुद्धि काँट छाँट में माहिर,
लेकिन आये एक स्रोत से
एक आत्मा में सब जाहिर !

जाने अनजाने ही चाहे
उसी ओर सब दौड़ रहे हैं,
बिखरा बिखरा सा है जो मन
लगन लगा के जोड़ रहे हैं !

एक हुआ जो तृप्त हो गया
अटका जो दो में है प्यासा,
पूर्ण हुआ जब तजी कामना
आशा सँग तो सखी निराशा !

अनिता निहालानी
८ जनवरी २०११