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सोमवार, जून 3

अपने आप



अपने आप


सुबह आँख खुलते ही
झलक जाता है संसार भीतर  
कानों में गूँजती है कोयल की कूक
हवा का स्पर्श सहला जाता है गाल को आहिस्ता से
कोई जान रहा है हर बात को बिलकुल उसी तरह
जैसे सागर किनारे खड़ा तकता हो लहरों को !

पेट में हलचल होती है क्षुधा से
तो हाथ कुछ डालते हैं मुख में
सूखे गले को जल का स्पर्श भाता है
हाथ संवार देते हैं बिखरे हुए घर को
कदम चल पड़ते हैं दफ्तर की ओर
कोई जान रहा है हर शै को बिलकुल उसी तरह जैसे
अम्बर तले तकता हो उड़ते हुए बादलों को !

मन सोचता है कभी बीती बातें
कभी सपने सजाता है भविष्य के
योजनायें बनाता और बदलता है
कभी डरता और झुंझलाता है
कोई जान रहा है हर ख्याल को बिलकुल उसी तरह जैसे
माँ देखती है चलना सीखते हुए बच्चे को !

लहरें बनती और बिगड़ती हैं
बादल आते और जाते हैं
बच्चा गिर कर संभलता है
हो रहा है न सब अपने आप
बिना किसी करने वाले के ?

शुक्रवार, अप्रैल 19

रत्नाकर की थाह कौन ले


रत्नाकर की थाह कौन ले



 सागर ने  जिस क्षण से स्वयं को
 लहरें होना मान लिया,
बनना, मिटना, आहत होना
उस पल से ही ठान लिया !

माना लहरें भरे ऊर्जा  
मीलों दूर चली आती हैं,
खाली सीपों के खोलों को
संग रेत बिखरा पाती हैं !

लहरों से ही जो पहचाने  
सागर उसे कहाँ मिलता है,
दूर अतल गहराई में ही
जीवन का मोती खिलता है !

भ्रम ही हो सकता सागर को
लहरों के आकर्षण से, 
कहाँ छिपेगी  ढेर संपदा
जागे लहर विकर्षण से !

थम जाती हैं  लहरें जिस पल
सागर स्वयं में टिक जाता ,
देख चकित होता फिर पल पल 
स्वयं की थाह नहीं पाता !



बुधवार, जून 22

तीन मुक्तक


तीन मुक्तक

सागर और लहरें
लहरों को सबने देखा है
सागर दिखता किसी एक को,
पार गया जो इन लहरों से  
सागर मिलता उसी नेक को !

खुद
बोझ उठाये है यह धरती
फिर भी तन है बोझ से हारा
मनन करे मन, बूझे बुद्धि
खुद को जाने किसने मारा ?

नारी
शक्ति की आकर जो धारे, सदा बहाए स्नेहिल धारे
शुभ ही झरता जिसके मन से, नारी जग को सदा संवारे,
नन्हीं थी तब स्मित फैलाया, हुई युवा संसार बसाया
माँ बन कर वह हुई प्रवाहित, स्वयं को एक आधार बनाया !


अनिता निहालानी
२२ जून २०११