सोमवार, मई 30

तथागत ने कहा था

तथागत ने कहा था


ऐसा है, इसलिए वैसा होगा 

उससे बचना है, तो इसे तजना होगा 

तथागत ने कहा था !

पल-पल बदल रहा जगत

जहाँ जुड़ी है हर वस्तु दूसरे से

थिर नहीं तन-मन दोनों 

 आश्रित इकदूजे पर 

इनसे प्रेम करना तो ठीक है 

पर उम्मीद करना 

इनके लिए प्रेम की 

दुःख ही उपजाता 

है वह सदा एक 

 जहाँ से प्रेम आता  

अनुभव बदल जाएं पर 

 नहीं बदलता अनुभवी

उसे जान सकता है 

दुःख के पार हुआ मन ही !

 

शुक्रवार, मई 27

फूल शांति का

फूल शांति का


झुक जाने में ही विश्राम है 

सदा मौन में मिलता राम है 

‘और चाहिए’ की ज़िद छोड़कर 

जो मिला है उसे स्वीकार लें 

विचार सागर की लहरों में 

डूबते हुए मन को, उबार लें 

  भीतर सहज ही किनारा मिलता है 

 फूल शांति का खिलता है 

जो देता है जीवन को दिशा 

उमग आती भीतर अनंत ऊर्जा 

विशेष होने की कोई चाह न रहे  

‘कुछ बनो’ की धारा जब न बहे  

थम जाये भीतर शोर मन का 

 एकांत में उससे मिलन घटे  

जिसकी शरण में है कायनात  

 दे रहा जो हर इक को हयात  ! 




बुधवार, मई 25

अमी प्रेम का

 अमी प्रेम का 

जब बन जाता है मन 

कोरे कागज सा 

तब उकेर देता है अस्तित्त्व 

उस पर एक ऐसी इबारत 

जो पढ़ी नहीं जाती 

महसूस होती है 

हवा की तरह नामालूम सी 

सर्दियों के सूरज की मानिंद 

नर्म और गर्म 

परों सा हल्का होकर 

उड़ने लगता है 

मन का पंछी 

न ही अतीत का गट्ठर 

न भावी का डर 

अनंत की सुवास भरे 

खिलने लगता है 

 स्मृति इक जंजीर है 

 विकल्प इक आवरण 

रिक्त हुआ जब घट बासी जल से 

तब भर देता है अस्तित्व 

अमी प्रेम का सुमधुर 

एक घूँट पर्याप्त है 

उस रस स्रोत में डूबने के लिए 

कोई जाने या न जाने 

उस के भीतर भी यही 

तलाश है 

चखने की चाह जिसे 

वह जीवन प्रकाश है !


सोमवार, मई 23

बन जाओ गर राग प्रेम का

बन जाओ गर राग प्रेम का 


खुद से दूर हुआ है जो भी 

तुझसे दूर रहा करता है, 

प्रेमी ही यदि खोया हो तो 

प्रियतम कहाँ मिला करता है !


बजा रहा है कान्ह बाँसुरी 

गोपी जन को याद दिलाने, 

बन जाओ गर राग प्रेम का 

सुर उसका गूँजा करता है !


गुरुओं की बातें सच्ची हैं 

कोई हमसा भीतर रहता, 

हरदम कोई आँख गड़ाए 

सुबहो-शाम तका करता है !


जिससे ये श्वासें चलती हैं 

उससे ही अनजान रहा मन, 

उससे आँखें चार हुईँ कब 

सारा जग घूमा करता है !


नित नूतन है कान्ह सलोना 

बहता जैसे पावन पानी, 

हर लेता है पीर हिया की 

जो भी ग्वाल सखा बनता है !




रविवार, मई 22

हर पल फूलों सा खिल महके

 हर पल फूलों सा खिल महके

धूप खिली है उपवन-उपवन

पल में  जग सुंदर कर जाये, 

जैसे हवा बँट रही कण-कण 

क्या करने से हम बँट जाएँ !


हँसी बिखेरें, प्रेम लुटा दें 

मुस्कानों की लहर उठा दें, 

हर पल फूलों सा खिल महके 

जीवन को इक खेल बना दें !


उलझ न जाएँ किसी कशिश में 

नयी ऊर्जा खोजें भीतर,

बहती रहे हृदय की धारा 

अंतर में ही बसा समुन्दर !


कुछ भी छुपा नहीं उस रब से 

यह पल भी उपहार बना लें, 

ईश्वर अंश जीव अविनाशी 

इसी सूत्र को सत्य बना लें !


गुरुवार, मई 19

मन की मछरिया

 मन की मछरिया 

शब्दों के जाल में 

मन की मछली अक्सर फंस जाती है 

स्रोत से दूर होकर व्यर्थ ही छटपटाती है 

जल से बनी है वह भूल ही जाती है 

चाहे तो पल भर में छिद्रों से निकल जाए 

जाल कोई पल भर भी 

बांध नहीं उसे पाए 

पर रूप धरा झूठा ही 

मोह, माया, मान का 

जाने किस बात की मिथ्या 

आन बान का 

टूटता नहीं भरम इसके अभिमान और गुमान का 

शायद शब्दों का जाल भी स्वयं ही सजाती है

क़ैद किया स्वयं को फिर कसमसाती है 

पल भर भी शांत हो 

पिघल पिघल जाएगी 

जल में विलीन हो जल ही हो जाएगी 

ख़ाली और रिक्त है 

पर रूप नए बनाती  है 

शब्दों के जाल में 

मन की मछरिया !



सोमवार, मई 16

नहीं चाहिए

नहीं चाहिए 


किसी को नहीं चाहिए 

कोई भी दुःख, पीड़ा या उलझन 

मिला भी है उसे हज़ार बार प्रेम का वर्तन !

पर याद करता है केवल उदासी के लम्हे

सुख के सूरज की छवि बने भी तो कैसे  

सुस्वप्नों की स्मृति कहाँ आई  

 पर झट जमा लेता है दुःख की काई 

सुरति से स्वच्छ करना होगा  

फिर आशा और विश्वास का जल भरना होगा 

उर आनंद लहरियाँ स्वतः उठेंगी 

भीतर-बाहर सब शीतल करेंगी 

हमें वरदानों को सम्मुख करना है 

क्योंकि इस धरा पर पहले से ही 

काफ़ी है बोझ दुखों का 

निर्भार होकर हर कदम रखना है ! 




बुधवार, मई 11

सच में

सच में 

वह जो कभी नहीं बदलता 

न घटता तिल मात्र 

 न बित्ता भर भी बढ़ता 

वही तो हम हैं असल में 

खींचतान कर जिसे बड़ा किए जा रहे हैं 

वह नहीं 

कभी इसकी कभी उसकी 

टांग खींचते 

या अपना क़द दूसरों की नज़रों में ढूँढते 

बड़ा बनने  की कोई वजह नहीं छोड़ते 

छोटी-छोटी बातों में बड़प्पन झलकाते हैं 

पर हम बड़े हैं ही 

यह राज समझ नहीं पाते हैं 

जो आकाश की तरह रिक्त और अनंत है 

जो महासागरों की तरह विस्तीर्ण और गहरा है 

ऐसा अथाह स्वरूप हमारा है 

कृष्ण ने अर्जुन को इसी ज्ञान से संवारा है ! 

रविवार, मई 8

वसुंधरा


  वसुंधरा 
जल धाराओं के सिंचन से
तृप्त हुई माँ
उलीचती हरियाली
निज अंतर में कुछ न रखती
सभी यहाँ लौटा देती है
गंध, स्वाद, रंग बन मिलती
धरती कई रूप में खिलती !
पुरवाई भी हुई शीतला
जल संस्पर्श हर गया तप्तता
झूमें वृक्ष, डालियाँ थिरकें
विहग विहँसते.. परस पवन का !
अन्तरिक्ष प्रफ्फुलित उर में
मूक, मौन हो सबको धारे
रवि मयूख धेनु बना कर
नील गगन का रूप संवारे !
सृष्टि रंग मंच पर नित ही
खेल नये नित खेले जाते
उसी चेतना के हित हैं ये
उससे ही हैं भेजे जाते !

सोमवार, मई 2

शब्दों के जंगल उग आते

शब्दों के जंगल उग आते


मात्र मौन है जिसकी भाषा

शब्दों से क्या उसे है काम,

अनहद नाद बहे जो निशदिन 

सहज दिलाए परम विश्राम !


कुदरत जड़ अनंत चेतन है 

मेल कहाँ से हो सकता है,

तीजे हम हैं बने साक्षी

कौन हमें फिर ठग सकता है ?


शब्दों के जंगल उग आते

प्रीत, ज्ञान जिसमें खो जाते,

  सुर निजता का भुला ही दिया

माया का इक महल बनाते !


मन शशि सम घटता बढ़ता है 

निज प्रकाश कहाँ उसके पास,

जिसके बिना न सत्ता उसकी

उस चेतन पर नहीं विश्वास !


थम जाये तन ठहरा हो मन

अहंकार को मिले विश्राम,

मेधा विस्मित थमी ठगी सी

झलक दिखायेगा तभी राम !


वही झलक पा मीरा नाची

चैतन्य को वो ही लुभाए,

वही हमारा असली घर है

कबिरा उस की बात सुनाये !