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सोमवार, नवंबर 1

आयी जगमग दीवाली



पूर्ण हुआ वनवास राम का
सँग सीता के लौट रहे हैं,
अचरज हुआ लक्ष्मण को लख
द्वार अवध के नहीं खुले हैं !

अब क्योंकर उत्सव यह हो
दीपमालिका नृत्य करे,
रात अमावस की दमके  
मंगल, बन्दनवार सजे !

हमने भी तो द्वार दिलों के
कर दिये बंद ताले डाले
राम हमारे निर्वासित हैं
पर अंतरदीप नहीं बाले !

राम विवेक, प्रीत सीता है
दोनों का तो मोल नहीं,
शोर, धुआँ ही नहीं दीवाली
उल्लास का कोई बोल नहीं !

धूम-धड़ाका, जुआ, तमाशा
उत्सव का नहीं करें सम्मान  
पीड़ित, दूषित वातावरण है
 देव संस्कृति का अपमान !

जलें दीप जगमग हर मग हो
अव्यक्त ईश का भान रहे
मधुर भोज, पकवान परोसें
मनअंतर में रसधार बहे !