सोमवार, अगस्त 31

पांच दोहे

 पांच दोहे  

मेधा, प्रज्ञा, धी, सुमति, बुद्धि, ज्ञान हैं ‘नाम’ 

समझ मिली तो मुक्ति है, हो गए चार धाम !

 

प्रज्ञा ज्योति सदा जले, मार्ग दिखाती जाय 

धृति धीरज का नाम है, कुमति रहे नचाये 

 

जीवन को जो थामता, धर्म वही इक तत्व 

सुपथ पर ले जाये जो, प्रज्ञान वही समत्व 

 

मानव पशु में भेद क्या, धी प्रभु का वरदान 

वाणी में जो प्रकट हो, भीतर बिखरा मौन 

 

हर सुख का जो स्रोत है, उसे आत्मा जान 

हरि की धुन लगाए जो,मान उसे ही ज्ञान 


रविवार, अगस्त 30

शिशु और वृद्ध

  शिशु और वृद्ध 

शैशव नहीं जानता दुनियादारी 

वह बेबात ही मुस्कुराता है 

पालने में पड़े-पड़े.. 

और भूखा हो जब पेट तो 

जमीन आसमान एक कर देता है !

उसका रुदन बंटा नहीं है दिल और दिमाग में अभी 

बालक होते-होते बुद्धि सुझाने लगती है 

झूठ और सच का फर्क 

बढ़ती ही जाती हैं दूरियां दिल और दिमाग की 

सीख लेता अपमान या ताड़ना से बचने के लिए 

असत्य का आश्रय लेना 

जन्म होता है फिर पाखंड का 

पर कभी भी सम्भावनाएं मृत नहीं होतीं 

जिन्दा रहता है निर्दोष बचपन 

ताउम्र हरेक के भीतर 

दूरी जितनी बढ़ेगी जिससे 

दुःख उसी अनुपात में बढ़ेगा 

दुखी होने या रहने को 

जब एक हथियार की तरह इस्तेमाल करता है व्यक्ति 

तब गिरना काफी हो गया  

पर कभी न कभी मुक्ति की चाह

अपना सिर उठाती है 

दुःख से मुक्ति, अहंकार से मुक्ति का ही दूसरा नाम है 

और यात्रा यदि जारी रही तो 

लौट आता है बचपन 

एक बार फिर तृप्त जीवन में 

वृद्धावस्था के ! 


शनिवार, अगस्त 29

क्या है मेरे ‘मैं’ की परिभाषा

 

क्या है मेरे ‘मैं’ की परिभाषा 


 

इस पर ही जीवन भवन बनेगा 

देह मात्र की दीवारों पर यदि टिका तो 

जर्जर हो अति शीघ्र गिरेगा 

अहंकार ‘मैं’ बन कर बोले 

यह जरा ठेस से इत-उत डोले 

मन बुद्धि को ही ‘मैं’ मानो 

कारागार बनेगा जानो 

‘मैं’ को नभ तक विस्तृत कर लें 

छत हो अम्बर, धरा फर्श हो 

पर्वत, वन दीवारें कर लें 

नदियों को भीतर बहने दें 

फूलों को भी मीत बनाएं 

सीमाएं तज जाति-पांति की 

मानव की गरिमा फिर पाएं 

नहीं झुकें आपद के आगे 

नहीं व्यर्थ के गाल बजाएं 

‘मैं’ को पावन शुद्ध करे जो 

‘उसमें’ ही सारा जग पाएं !

 

शुक्रवार, अगस्त 28

मन नदिया बन प्यास बुझाता

 मन नदिया बन प्यास बुझाता 

सुख-दुःख रूपी तटों के मध्य 

मन की धारा बहती रहती, 

अभी कल्पना की तरंग है 

फिर स्मृति की लहरें उठतीं !

 

जुड़ी रहे यदि नदी स्रोत से 

निर्मल अविरल गतिमय रहती, 

दर्पण सी उसकी काया में 

छवि जग की प्रतिबिम्बित होती !

 

बिछड़ गयी जो अपने घर से 

मरुथल में जाकर खो  जाती, 

या फिर कोई सरवर, पोखर 

बनकर सीमित, दूषित होती !

 

किन्तु कहीं भी कैसा भी हो 

जल तो जल है पथ पायेगा,

तप कर कोई बादल बनकर 

बरस शिलाओं पर जायेगा !

 

मन नदिया बन प्यास बुझाता 

सुख की सुंदर फसल उगाता,

वही हुआ दूषित माया से 

जंगल दुःख के भी पनपाता !

 

चंचल मीन भावनाओं की 

क्रोध, बैर के ग्राह तैरते, 

मन तो मन है पल-पल बदले 

लोभ, मान के भँवरे पड़ते !

 

मन ही राम कृष्ण को चाहे 

मन ही बन मन्थरा सिखाये, 

जग को बैरी कभी मानता

गीत कभी उसके ही गाये !


गुरुवार, अगस्त 27

आसमान निर्मल अविकारी

 आसमान निर्मल अविकारी 

 

अंबर, अधर, व्योम,  नीलाम्बर 

गगन, अनंत, अविचल, अकम्पन,

अरबों, खरबों नक्षत्रों  को

निज अवकाश किया है धारण ! 

 

शून्यवत न होता परिभाषित 

धरती को द्यौ व्याप रहा है, 

नित प्रकाश रंगों से सजता  

निज का  कोई रंग नहीं है !

 

एक विशाल चँदोवे जैसा 

तारों से मंडित यह अनुपम, 

एक तत्व है सूक्ष्म अनश्वर 

रचता है जिसे स्वयं ईश्वर !

 

सभी नाद अगास  में होते 

वायु संग आकाश मिले जब, 

भीतर तन के बाहर मन के 

ठहरे इसमें दोनों तन-मन !

 

कभी घने बादल ढक लेते 

जैसे मन को ढके कुहासा, 

आसमान निर्मल अविकारी 

 चमके तड़ित या हो गर्जना !

 


बुधवार, अगस्त 26

ज्योतिर्मय वह स्रोत ज्योति का

ज्योतिर्मय वह स्रोत ज्योति का

 

रवि सौर मंडल की आत्मा  

आदित्य से हर रूप सजता,

सर्वप्रेरक, विश्व प्रकाशक 

सप्तवर्णी, नेत्र शंकर का !

 

सूर्य देव हैं स्रोत अग्नि के 

जीवन दाता वसुंधरा के, 

द्युलोक में गमनशील हैं 

नयनों में बसते प्राणी के !

 

अंधकार की काली छाया 

छँट जाती सविता प्रकाश में, 

पल भर में जो दृश्य बदल दे 

दिवसेश्वर नित आकाश के !

 

अग्नि देह को जीवित रखती 

वसुधा को भी गतिमय रखती, 

बड़वानल सागर में रहकर 

वैश्वानर जीव में बसती !

 

महाभूत है महादेव का 

ज्योतिर्मय वह स्रोत ज्योति का, 

तपस से ऋषिगण सृष्टि करते 

प्रलय तीव्र ज्वाल से घटता !

 

अग्नि शिखा नित ऊपर बढ़ती 

मार्ग प्रशस्त करे मानव का, 

पावक परम पावन शक्ति है

नष्ट करे हर दोष सभी का ! 

मंगलवार, अगस्त 25

बैठ हवा के पंखों पर ही

 बैठ हवा के पंखों पर ही 

सर-सर मर्मर पवन बह रही  

ठंड अति कभी ताप सह रही,

शीतलहर में ठिठुराती तन

स्वेद बहे यदि तप्त हो गयी !

 

कभी धूलि का उठे बवंडर 

छूकर आती कभी समुन्दर, 

चलती कभी पवन पुरवाई 

मंद झँकोरा अति सुखदायी !

 

हवा जलाती, हवा बुझाती

हवा उड़ाती, हवा सुखाती, 

प्राणों का आधार हवा है 

जीवन का भी द्वार हवा है !

 

प्रातः समीरण अति सुखदायी

हौले से सहलाने आती, 

बेला, चंपा की सुवास भर 

रजनी गंधा को महकाती !

 

झूम रहे जब खेत बाग वन 

दृश्य अति लगते वे मनोहर, 

हवा डुलाती हौले-हौले 

झूमें लहरें झील, नदी पर ! 

 

बासों से हो  हवा गुजरती 

सांय-सांय का गीत गूँजता,

छम-छम पत्तों का भी नर्तन 

संग पवन तृण गगन चूमता !

 

संग पवन के उड़ते-उड़ते 

बीज सुदूर यात्रा करते, 

बैठ हवा के पंखों पर ही 

यहाँ-वहाँ गिर भू पर उगते !

 

पंच प्राण प्राणी के भीतर 

गतियां सब संचालित करते, 

वायु बिना सब स्थिर हो जाये 

वायुदेव ही जीवन भरते !

 

हवा बदलियों को  ले जाती 

जीवन का आधार बनी है, 

कोमल शीतल परस पवन का 

महादेव का  महाभूत है !

 

अति सूक्ष्म तत्व प्रवाह रूपी 

भूमंडल को घेरे रहती, 

जैसे अपने आँचल में ले 

शिशु को माँ संभाले रहती !

 


सोमवार, अगस्त 24

धरती सदा लुटाती वैभव

 

धरती सदा लुटाती वैभव

 

धरती हर तन को धारे है 

वसुधा तप से प्राणी हैं थिर, 

पृथ्वी का आकर्षण बाँधे

भूमि में ही मिलेंगे इक दिन ! 

 

छिपे धरा में मोती-माणिक 

नदियाँ बहतीं हिम शिखरों से, 

रुधिर नाड़ियों में संचारित 

अनगिन राज छिपे नर तन में !

 

भू भ्रमण चले अपने धुर पर  

परिक्रमा रवि की भी करती, 

तन भी मुड़-मुड़ देखे खुद को 

प्रदक्षिणा सविता मेधा की !

 

धरा स्थूलतम टिकी सूक्ष्म पर 

देह भी मन के रहे आश्रित, 

मन में मृत यदि जीवन आशा 

कर देता है इसे विखण्डित !

 

धरा शुद्ध हो कुसुम खिलाये 

शुभ सुंदर लावण्य लुभाये, 

नयन हँसे रोम-रोम पुलकित 

गालों पर गुलाब खिल जाएँ ! 

 

महाभूत यह महादेव का 

धरती सदा लुटाती वैभव, 

कैसे यह उपकार चुकेगा 

सदा बिखेरे करुणा सौरभ !

 

 

रविवार, अगस्त 23

महाभूत जो महादेव का

महाभूत जो महादेव का

 

कल-कल, छल-छल, सलिला का जल 

अविरल निर्मल  बहता रहता, 

जल जीवन को धारण करता 

भू को सिंचित करता बढ़ता !

 

दिनकर रश्मियों संग वाष्पित 

चंचल अनिल उड़ा ले जाता, 

जल धारा बना पुनः धरा पर 

नदियां नाले पोखर भरता !

 

बादल बन अम्बर में रहता 

पावन शीतल नीर बरसता,

पशु, पादप, कीट, विटज, मानव 

सर्व प्राण की तृषा बुझाता !

 

महाभूत जो महादेव का 

जल तत्व को सभी जन चाहें,

नहीं हो दूषित, व्यर्थ बहे न

जल के देव वरुण को ध्याएँ !

 

सरस बनाता, स्वाद जगाता 

अंगों को रखता कोमलतम, 

जल ना हो तो जल जाए जग  

जल है सत्यम शिवम सुंदरम !