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रविवार, अगस्त 17

कृष्ण की याद

कृष्ण की याद 


जैसे कोई फूल खिला हो 

अमराई में 

जैसे कोई गीत सुना हो 

तनहाई में 

जैसे धरती की सोंधी सी 

महक उठी हो 

जैसे कोई वनीय बेला 

गमक रही हो 

या फिर कोई कोकिल गाये 

मधु उपवन में 

जैसे गैया टेर लगाये 

सूने वन में 

श्याम मेघ तिरते हो जैसे 

नीले नभ में 

झूमे डाल कदंब कुसुम की 

नन्दन वन में 

यमुना का गहरा नीला जल 

बहता जाये 

कान्हा यहीं कहीं बसता है 

कहता जाये !


मंगलवार, दिसंबर 17

मन से कुछ बातें

मन से कुछ बातें



मन ! निज गहराई में पा लो, 

एक विशुद्ध हँसी का कोना 

 बरबस नजर प्यार की डालो 

बहुत हुआ अब रोना-धोना !


किस अभाव का रोना रोते 

 उपज पूर्ण से नित्य पूर्ण हो, 

 सदा संजोते किस कमी को

खुद अनंत शक्ति का पुंज हो !


स्वयं ‘ध्यान’ तुम ‘ध्यान’ चाहते 

लोगों का कुछ ‘ध्यान’ बँटाकर 

निज ताक़त को भुला दिया है 

इधर-उधर से माँग-माँग कर !


आख़िर कब तक झुठलाओगे 

अपनी महिमा के पर्वत को, 

नज़र उठाकर ऊपर देखो 

उत्तंग शिखर छूता नभ को !


रोज-रोज का वही पुराना 

छोड़ो भी अब राग बजाना, 

कृष्ण बने सारथी तुम्हारे 

कैसे  कोई चले  बहाना !




बुधवार, सितंबर 6

कृष्ण रंग में डूबा अंतर



कृष्ण रंग में डूबा अंतर 

श्याम रंग में भीगा अंतर
भीगी मन की धानी चूनर,
कोरा जिसको कर डाला था
विरह नीर में डुबो डुबोकर !

जन्मों से था जो सूखा सा
जैसे कोई मरुथल बंजर,
कैसे हरा-भरा खिलता है
कृष्ण रंग में डूबा अंतर !

एक डगर थी सूनी जिस पर
पनघट नजर नहीं आता था,
काँटों में उलझा था दामन
श्यामल रंग से न नाता था !

भर पिचकारी तन पे मारी
सप्त रंगी सी पड़ी फुहार,
 पोर-पोर शीतल हो झूमा
फगुनाई की बहती  बयार !

रंग दिया किस रंग में आज 
कान्हा रंग रसिया ह्रदय का,
राधा रंग गई, मीरा भी 
हुआ सुवासित कण-कण तन का !



शनिवार, सितंबर 2

आया सितम्बर

आया सितम्बर 


आया सितम्बर 

लाया वर्षा की बौछार 

बस कुछ कदम दूर है 

जन्माष्टमी  त्योहार !

वही, अपने कन्हैया का जन्मदिन 

जिसे मनाते हैं आधी रात  

सोचें जरा,  था आधुनिक 

वह द्वापर में भी 

ठीक बारह बजे 

जन्मदिवस मनाने की 

चलायी थी परिपाटी !

 सितम्बर लिए आता  

गणपति बप्पा को भी 

और कैसे भला भूलें 

भगवान विश्वकर्मा का अवतरण दिवस 

मिल मनाते  कारीगर 

भर अंतर में हुलस ! 


सोमवार, अगस्त 28

महाकाल

महाकाल 


ओपेनहाइमर ने

 पूछा था एक दिन 

क्या होता है 

जब तारे मरते हैं ​​​​​​

शायद एक महाविस्फोट !!

बढ़ता ही जाता है गुरुत्वाकर्षण 

कि सब कुछ समेट लेता है अपने भीतर 

प्रकाश भी खो जाता है 

एक न एक दिन ठंडा होगा सूरज भी हमारा 

जिसकी नाभि में चल रहा है 

निरन्तर परमाणुओं का संलयन 

जीवन का स्रोत है जो आज 

कल महाकाल भी बन सकता है 

वह जानता था

 कि परमाणु बम भी 

एक छोटा सूरज है 

जो बनते ही विनाश की राह पर चल पड़ेगा 

कि मारे जा सकते हैं लाखों निरीह जन

जैसे जानते थे कृष्ण 

बचे रहेंगे केवल पांडव 

निर्णय लिया संहार का 

ताकि थम जाये युद्ध की लिप्सा 

जापान को महँगा पड़ा यह सबक़ 

पर सदा के लिए शांति प्रिय देश बना 

थम गयीं उसकी महत्वाकांक्षाएँ 

किंतु ओपनहाइमर

दोषी है या नहीं 

कौन करेगा इसका निर्णय 

एक वैज्ञानिक के नाते शायद नहीं 

एक मानव के नाते 

शायद हाँ !   

शुक्रवार, जुलाई 21

अक्सर


अक्सर 


हम जिससे बचना चाहते हैं 

बच ही जाते हैं

जैसे कि कर्त्तव्य पथ की दुश्वारियों से 

अपने हिस्से के योगदान से 

कुछ भी न करके 

हम पाना चाहते हैं सब कुछ 

जगत जलता रहे 

हम सुरक्षित हैं 

जब तक आँच की तपन 

हमें झुलसाने नहीं लगती 

हम हिलते ही नहीं 

अकर्मण्यता की ऐसी ज़ंजीरों ने जकड़ लिया है 

कभी भय, कभी असमर्थता की आड़ में 

हम छुप जाते हैं 

छुपना पलायन है 

पर कृष्ण अर्जुन को भागने नहीं देते 

हर आत्मा को लड़ना ही पड़ता है

एक युद्ध 

प्रमाद के विरुद्ध 

यदि उसे पाना है अनंत 

ऊपर उठना होगा अपनी अक्षमताओं से 

प्रेम को ढाल नहीं कवच बनाकर 

उतरना होगा 

कर्त्तव्य पथ पर !  


बुधवार, जून 7

हे कृष्ण !

हे  कृष्ण !


कितना दुर्लभ है इस जग में 

कोई निर्दोष हास्य 

निष्कपट अंतर 

हे  कृष्ण !  बहुत ऊँचे मापदंड 

नहीं बना दिये है तुमने !

यहाँ तो हर मुस्कान के पीछे

 छिपा है कोई अभिप्राय 

और तुम कहते हो 

हरेक भीतर ऐसा ही है 

कि अधम से अधम भी

 बन सकता है तुम्हारा प्रिय 

जिस क्षण वह मोड़ लेता है 

अपनी दिशा तुम्हारी ओर ! 


बुधवार, अप्रैल 26

कविता खो गई है !

कविता खो गई है !


प्रेम नहीं बचेगा जब जीवन में 

कविता खो जाएगी 

काव्य प्रेम का प्रस्फुटन है 

तुलसी, सूर, कबीर, नानक 

या मीरा हो 

प्रेम के मारे हुए थे 

कोई राम के प्रेम का दीवाना 

कोई कृष्ण का चाकर 

किसी को साहेब रिझाना था 

किसी को ओंकार गाना था 

प्रेम जब भीतर न समाये तो 

काव्य बन जाता है 

चाहे ख़ुद से हो या जगत से 

ख़ुद की गहराई में 

ख़ुदा से हो जाती है मुलाक़ात 

कण-कण में वही नज़र आता  है

इसलिए कविता की फ़िक्र छोड़ दो 

पहले भीतर प्रेम जगाओ 

मन का आँगन जरा बुहारो 

श्रद्धा दीप जलाओ 

प्रियतम की मूरत रखकर 

प्रीत सुगंध बहाओ 

तब फूटेगी काव्य की सरिता 

स्वयं को आप्लावित कर 

जगत में बहेगी 

हर पीड़ा, हर दुख मुस्कुरा कर सहेगी ! 


शनिवार, अप्रैल 22

उर नवनीत चुराने वाला

उर नवनीत चुराने वाला 


श्वासों का उपहार मिला है 

जीवन की हर घड़ी  अनमोल, 

प्रेम छुपा हर इक अंतर में 

 कृष्ण  की गीता के हैं बोल !


मेरा ही बन, नमन मुझे कर 

मन, मेधा मुझको कर अर्पित, 

मुक्त हुआ फिर विचर जहां में 

हो मेरी माया से ऊर्जित !


तेरा कुशल-क्षेम मैं धारूँ

सुख-दुख के तू ऊपर उठ जा, 

युग-युग के हम  मीत  अमर हैं  

मुझे याद सब तू है भूला !


कण-कण में मेरी आभा है 

रवि, चन्द्र, तारों की चमक भी, 

मेरी  कुदरत से प्रकटी है 

सृष्टि में मति, प्रज्ञा आदि भी !


कैसे करें न सदा शुक्रिया  

जो कान्हा आनंद बिखेरे, 

उर नवनीत चुराने वाला 

मृदु  भावों की बंसी टेरे !


व्याप्त रहा है भीतर बाहर 

सूक्ष्म लोक के राज खोलता, 

गुरु बनकर मार्ग दिखलाए 

सखा बना वह  संग  खेलता !


सोमवार, फ़रवरी 13

मौन

मौन 


मौन को गुनो 

मौन से जो झरती है आभा 

उसे ही चुनो 

जैसे गिरते हैं चुपचाप हरसिंगार 

सुवास फैलाते 

मौन के उन क्षणों से भी 

किस अन्य लोक की सुगंध आती है 

जैसे कोई कहे कृष्ण 

तो राधा अपने आप चली आती है 

और इतना ही नहीं 

गौएँ और गवाले भी ! 

भीतर वृंदावन उभर आते हैं 

और महारास घटता है 

कृष्ण का नाम छुपाए है

 सारा ब्रह्मांड 

मौन में भी 

एक साम्राज्य से मिलन होता है 

जो नितांत अपना है 

नि:शब्द जहाँ कोई रस बहता है !


गुरुवार, जनवरी 5

हर पीड़ा मुदिता से भर दे

हर पीड़ा  मुदिता  से भर दे


मुक्त पिरोया गया माल में 

बिंध मध्य में शून्य हुआ जब,

जा पहुँचा सम्मान बढ़ाने 

देवस्थल की शोभा बन तब !


मन भी मुक्त सघन पीड़ा से 

सीखे  रीता होना खुद से, 

कृष्ण सूत्र में गुँथ जाता है 

एक हुआ फिर सारे जग से !


मुक्ति का यह मार्ग अतुलनीय  

हर पीड़ा मुदिता  से भर दे, 

ज्ञान प्रीत से, प्रीत कर्म से  

सुगम राह पर ला कर धर  दे !


कर्म अर्चना है अकर्म सम

व्यक्त ऊर्जा को होने दे, 

गंगा सी बहती जो निर्मल 

दिव्य भाव भीतर बोने दे  !


चाह मुक्ति की यह अनुपम है 

स्वयं का व जग का हित सधता, 

रिक्त हुआ उर जब भीतर से 

प्रियतम खुद ही आकर बसता  !


गुरुवार, अगस्त 18

प्रेम की भाषा बोले कृष्ण

प्रेम की भाषा बोले कृष्ण 

नन्द-यशोदा अपलक निरखें 
बाल कन्हैया का शुभ मुखड़ा, 
धन्य हुई ब्रज की धरती पा 
नीलमणि सम चाँद का टुकड़ा ! 

मोर मुकुट पीतांबर धारे 
घुंघराली लट ललित अलकें, 
ओज टपकता मुखमंडल से 
नयनों से ज्यों मधुघट छलकें ! 

प्रतिदिन ग्वालों सँग गोचारण
यमुनातट वंशीवट घूमें, 
वंशी धुन सुन थिरकें ग्वाले 
पशु, पक्षी, पादप मिल झूमें !

कृष्ण, कन्हैया, माधव, केशव
मोहन, गिरधारी, वनमाली, 
अनगिन नाम कई लीलाएं 
वृन्दावन में ही रच डालीं !

प्रेम की भाषा बोले कृष्ण 
प्रेम सुधा में भीगी राधा, 
प्रेमिल बंधन स्नेहिल धागा 
गोकुल में सभी से  बांधा !

सोमवार, अगस्त 8

कान्हा इक उज्ज्वल प्रकाश सा

कान्हा इक उज्ज्वल प्रकाश सा  


घन श्याम गगन में छाए जब 

घनश्याम हृदय में मुस्काए, 

वन प्रांतर में धेनु झुंड लख

बरबस याद वही आ जाए !


पौ फटते ही मंदिर-मंदिर 

जिसे जगाने गीत गूँजते, 

माखन मिश्री थाल सजा नित  

दीप जला आह्वान करते !


पावन गीता श्लोक नित्य ही 

श्रद्धामय स्वरों से बाँचते, 

कर्मयोग का ज्ञान प्राप्तकर 

पूर्ण भक्ति से पालन करते !


गोधूलि में बाजे बाँसुरी 

कदंब वृक्ष, यमुना कूल पर, 

अश्रुसिक्त नयनों से तकता 

 मन राधा सा व्याकुल होकर !


बालक, युवा, प्रौढ़ हर इक को 

आराध्य रूप कृष्ण  मिला है, 

युगों-युगों से भारत का दिल 

उन विमल चरणों पे झुका है !


कान्हा इक उज्ज्वल प्रकाश सा  

राह दिखाता मानवता को, 

चुरा लिया नवनीत हृदय का  

ओढ़ लिया उर सुंदरता को !