शुक्रवार, जुलाई 27

कवि शेखर सुमन- 'खामोश खामोशी और हम' में


प्रिय ब्लोगर साथियों,
खामोश खामोशी और हम यह पुस्तक अभी हाल में ही में आदरणीया रश्मि प्रभा जी के संपादन में छपी है. इसमें अठारह कवियों व कवयित्रियों की रचनाएँ सम्मिलित हैं. मैं अपनी अगली सत्रह पोस्ट में इनमें से हरेक कवि के कविता संसार से आपका परिचय कराना चाहती हूं, आशा है सुधी पाठकों का सहयोग उनकी प्रतिक्रियाओं के रूप में मिलेगा, रश्मि जी, आपसे भी अनुरोध है कि इस श्रंखला को पढ़ें व आपने सुझाव दें.
पुस्तक के पहले कवि हैं- शेखर सुमन, पटना में जन्मे युवा कवि शौक के लिये लिखते हैं, इंजीनियर हैं व पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहे हैं. उनकी छह कवितायें पुस्तक में हैं.
पहली कविता का शीर्षक है, “हाँ, मुसलमान हूँ मैं” कवि उन मुसलमान भाइयों को यह कविता समर्पित करता है जिनको उनकी कौम के चंद गुनहगारों के कारण शक की निगाह से देखा जाता है.
...   ...   ...
ये शक भरी निगाह मेरा इनाम नहीं
इस धरती को मैंने भी खून से सींचा है
मेरे भी घर के आगे एक आम का बगीचा है
.....
हरी भरी धरती से सोना उगता किसान हूं मैं
गर्व से कहता हूँ, हाँ मुसलमान हूँ मैं

शेखर सुमन की कविताओं में बचपन की याद रह रह कर आती है.
“वो लम्हे शायद याद न हों” नामक कविता में वह खिलौने, स्कूल में बिताया पहला दिन, दादी की प्यार भरी पप्पी याद करते नजर आते हैं तो “माँ” नामक कविता में भी बचपन को बुलाते हैं.

मेरी सारी दौलत, खोखले आदर्श
नकली मुस्कुराहट
सब छीनकर
दो पल के लिये ही सही
मेरा बचपन लौटा देती है माँ

....
परेशान वह भी है अपनी जिंदगी में बहुत
पर हँसी के पर्दे के पीछे
अपने सारे गम भुला देती है माँ

आज की भागदौड़ की जिंदगी में हमारे बुजुर्ग अकेलेपन का अभिशाप भोगने को विवश हैं, “तुम कहाँ हो” नामक कविता में एक वृद्ध पिता अपने बेटे को ढूँढता हुआ गुहार लगाता है-

तुम शायद भूल गए वो पल
जब उन नन्हें हाथों से
मेरी ऊँगली पकड़ कर तुमने चलना सीखा था
....
आज जब तुम बड़े हो गए हो
जिंदगी की दौड़ में कहीं खो गए हो
आज जब मैं अकेला हूँ वृद्ध हूँ लाचार हूँ
मेरे हाथ तुम्हारी उँगलियों को ढूँढते हैं
..
दिल आज भी घबराता है
कहीं तुम किसी उलझन में तो नहीं
तुम ठीक तो हो न  

कवि शेखर सुमन की पाँचवी कविता है, “थके  हुए बादल “

कुछ थके हरे बादल मैं भी लाया हूँ
यूँ ही चलते चलते हथेली पर गिर गए थे
...
तुन्हारी हर खिलखिलाहट के साथ बरसना
शायद इन्हें भी अच्छा लगता था अब तो जैसे ये यादें
टूटे पत्तों की तरह हो गयी हैं
जिन्हें बारिश की कोई चाह नहीं
...
तभी मैं सोचा करता हूँ
ये बारिश आखिर मेरे कमरे में क्यों नहीं होती

आज के खौफनाक मंजर को दिखाती है इनकी अंतिम कविता “नयी दुनिया”

ये कैसी दुनिया है
जहाँ मनुष्य ही मनुष्य का दुश्मन है
कैसा शोर है ये चारों तरफ
...
..
क्यूँ आज इंसान इंसान से डरता है
हृदय की कोमल धरा पर काँटे क्यों उग आये हैं
जीवन के मायने कुछ बदल से गए हैं
अब अपनी जीत शायद दूसरों की हार में है
...
यह वो दुनिया तो नहीं जो ईश्वर ने बनायी थी
यह तो कोई और ही दुनिया है
कवि शेखर सुमन की कविताये पढ़ते हुए बरबस ही भविष्य के लिये आशा की एक उम्मीद जगती है, कवि को इन सुंदर कविताओं के लिये बधाई व शुभकामनायें !

गुरुवार, जुलाई 26

एक बातचीत


एक बातचीत

न आये थे अपनी मर्जी से
न ही जायेंगे...
तू ही लाया..ले भी जाना जब चाहे
हम न आड़े आएँगे
तेरी हवा से धौंकनी चलती है
श्वासों की
तेरी गिजा से देह..
मिला मौका सजदा करने का
तेरी जमीं पर
गुनगुनाने का
तेरे आसमां तले
क्या हम काबिल थे इसके..
तेरी जन्नत को दोजख बनाने के सिवा
क्या आता है हमें...
तेरी रहमत को देखकर भी
सिवा आँखें चुराने के
क्या किया है हमने
तेरी मुहब्बत की परवाह न करें
तुझसे बस शिकवा किया करें
(तेरे बन्दों से शिकवा तुझसे ही हुआ न )
ओ खुदा...बस यही एक बात है
जब तब आ जाता है
तेरा नाम जुबां पर
तेरा ख्याल जहन में
और वही पल होता है
जब सुकून मिलता है
भीतर तेरी याद कौंध जाती है
तू अपना है तभी न अपना सा लगता है
जगत यह दिखता हुआ भी सपना लगता है
छिपा है तू सात पर्दों के पीछे
फिर भी झलक दिख जाती है
झाँकू जब किसी बच्चे की आँखों में
तेरी ही सूरत नजर जाती है...


मंगलवार, जुलाई 24

रोशन रूह को करने का


रोशन रूह को करने का

लो आया फिर पाक महीना
रहमत अल्लाह की पाने,
जीवन में लाकर अनुशासन
बरकत हर घर में लाने !

लाया है रमजान महीना
एक और मौका खिदमत का,
देह को पीछे रख कुछ दिन
रोशन रूह को करने का !

दुनिया रोशन होती आयी  
सदा खुदा के बन्दों से,
इक जरिया है शुभ रमजान
कैसे प्रेम जताएं उनसे !

रहमत सदा बरसती आयी
इंसा ही उलझा रहता,
अब खाली होकर जो बैठे
झोली झोली नूर बरसता !

जिम्मेदारी जो भी अपनी
उसकी याद दिलाता है
जिनको जो भी कमी खटकती
औरों से दिलवाता है !

दान, धर्म को दे बढ़ावा
रोजा करता है तन हल्का,
हैं इसकी हजार नेमतें
तोबा करने से मन हल्का !

सोमवार, जुलाई 23

पल में लय को न साधा तो


पल में लय को न साधा तो


वर्तमान है सत्य अनोखा
सूक्ष्म अति मृदु कोमल रेखा,
इसी घड़ी में शुभ घटता है
इस पल में अनंत को देखा !

मृत्यु भी इक पल में घटती
इक क्षण में ही जन्म हुआ,
सजग हुआ जो ठहरे इसमें
अद्भुत उसको दर्श मिला !

लहरें पल-पल तट पर आतीं
चूक हुई तो लौट गयी वें,
पल में लय को न साधा तो
टूट गयी धुन हुए बेसुरे !

हल क्षण घटता है कितना कुछ
पल-पल तन मन नया हो रहा,
कहीं उग रहे पुष्प हजारों
कहीं पे पतझड़ जवां हो रहा !

पल की शक्ति कैसी अद्भुत
पल में है संदेश पहुंचता,
दिल से दिल की बात हुई है
इक पल में क्या कुछ न होता !


शनिवार, जुलाई 21

कैसे कोई बच सकता है


कैसे कोई बच सकता है


पलकों पे थमे झट से न गिरे
वे दो कतरे आँसू के झरे
मन भीग गया..
प्राची में जब फूल उगे
हिम शिखरों पर चांदी बिखरे
पिघले सोना सागर में जब
अवाक् हुआ मन भीग गया..

पर्वत पर छाया है किसकी
यह तुमुलनाद नभ में किसका
उन आँखों में यह कौन दिखा
मुस्कानों में झलकें किसकी
छोटा-छोटा खंड-खंड सा
वह तो मिलता ही रहता है
सोच यही मन भीग गया..

दर्पण में है सूरत किसकी
झील में ज्यों चाँद गगन का
छोटे छोटे अनुभव उसके
पर सारा का सारा वह है
बस देख यही मन भीग गया..

कैसे कोई बच सकता है
वही-वही तो चारों ओर
टुकड़ा-टुकड़ा खुद को देता
टुकड़ों में वह ही पाता है
वरना वह तो सदा बुलाए
जान यही मन भीग गया.. 

गुरुवार, जुलाई 19

बस चंद पल और यहाँ


बस चंद पल और यहाँ


बस चंद पल और यहाँ
फिर डेरा डंडा
समेटना होगा
फूल जो उगा है मस्ती में
शाम होते ही उसे
झर जाना होगा
कीमती हैं ये चंद पल
भीतर जो भी
लुटाएं जी भर
सुमन बिखेर देता
 सुरभि ज्यों
दिलों में बस जाएँ जाकर..
न जाने किस देश में
फिर जाना होगा
लोग बेगाने
रास्ता अनजाना होगा
जब तक तेल दीपक में है
रौशनी लुटानी है
जब वक्त आयेगा चुपचाप
बत्ती बढ़ानी है
बन पड़े जितना
चेहरा इस जग एक और  
साफ हो जाये
एक एक बीज से ही
नया उपवन खिल जाये.. 

मंगलवार, जुलाई 17

ये इशारे हैं उसी के



ये इशारे हैं उसी के

वह जो धुन गहरे तक उतर जाती है
कूक कोकिल की रह-रह के सताती है
ये जो रातों को झांकते हैं तारे
चाँदनी झरोखे से बिछौने पे बिछ जाती है
और... झीलों में जो खिलते हैं कमल
तिरें फूलों से भरी कश्तियाँ सुंदर
ये इशारे हैं उसी के याद रखना यह सदा
संदेस भेजे हैं उसी ने.. हमारे ही लिये....


झांकता सूर्यमुखी जब जानिब सूरज की
ताकता मोर बादलों की तरफ जब भी
पुकार उठती अकेली नाव से माझी की
निहारती कोई बाला जाने राह किसकी
यह जो तलाश जारी है दिलों में प्रेम की
ये चाहत है उसी की याद रखना यह सदा
ये जाल बिछाए हैं उसी ने.. हमारे ही लिये..  


यह जो पुरवाई चली आयी नमी ले मीलों से
उड़ी जातीं पंक्तियाँ हंसों की अम्बर पे
ये जो बिखरा है तब्बसुम चेहरों पे तितलियों के
किलक गूंजती है नन्हों की बसेरों में
ये सौगाते हैं उसी की याद रखना यह सदा
ये बातें हैं उसी की.. हमारे ही लिये..

शनिवार, जुलाई 14

बूंद बूंद में वही झरे था


बूंद बूंद में वही झरे था

एक नदी सागर से उपजी
एक नदी सागर से बिछड़ी,
पर्वत की चोटी से उतरी
गुफा, कन्दरा होती बहती !

जाने कितनी बाधाएं थीं
कितने अंध मोड़ आये थे,
कितना जल खो गया राह में
गहरी घाटी के साये थे !

मार्ग बनाती, तृषा बुझाती
नदी निरंतर बढ़ती जाती,
 सागर का कुछ पता नहीं था
अनजानी मंजिल थी भाती !

लेकिन उसको भान नहीं था
सागर हर पल उसे भरे था,
वर्षा में झर-झर अम्बर से
बूंद बूंद में वही झरे था !

वही दिशा देता था उसको
चाहे वह अनजान थी इससे,
हिम शिखरों से वही बहा था
नादां वह अनभिज्ञ थी इससे !

उसको स्वयं पर मान बड़ा था
नीर मधुर अति है यह मेरा,
मुझसे ही फसलें लहरातीं
यह जग सदा ऋणी है मेरा !

सागर निशदिन बना साक्षी
बूंद बूंद में भरता अमृत,
नदिया, झील, कूप, सरवर में
बसता छुप के सदा जागृत !

आखिर इक दिन ऐसा आया
जा पहुंची सागर के द्वारे,
महामिलन जिस घड़ी घटा था
मिला वहाँ शत भुजा पसारे !

तब जाकर सब भेद खुला था
सागर ने ही उसे रचा था,
सृष्टि कर्म चलाने हेतु
बस उसको सम्मान दिया था !  
  



  


गुरुवार, जुलाई 12

आस एक अनपली रह गयी


आस एक अनपली रह गयी

एक कथा अनकही रह गयी
व्यथा एक अनसुनी रह गयी,
जिसने कहना सुनना चाहा
वाणी उसकी स्वयं सह गयी !

एक प्रश्न था सोया भीतर
एक जश्न भी खोया भीतर,
जिसने उसे जगाना चाहा
निद्रा उसकी स्वयं सो गयी !

एक चेतना व्याकुल करती
एक वेदना आकुल करती,
जिसने उससे बचना चाहा
पीड़ा उसकी सखी हो गयी !

एक प्यास अनबुझी रह गयी
आस एक अनपली रह गयी,
जिसने उसे पोषणा चाहा
अस्मिता भी कहीं खो गयी !

एक पुकार बुलाती थी जो
इक झंकार लुभाती थी जो,
जिसने उससे जुडना चाहा
घुलमिल उससे एक हो गयी !