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रविवार, मार्च 16

प, फ, ब, भ, म

प, फ, ब, भ, म


प-वर्ग में आकर बसते हैं 

सारे रिश्ते जो भाते हैं, 

परम परमात्मा, भगवान भी 

पंचम सुर में ही गाते हैं !


प औ’ म के मध्यांतर में इक 

रिश्तों का संसार बसा है, 

प से पिताजी और म से माँ 

इनसे ही परिवार बना है !


प से पत्नी, प्रियतम भी प से 

फ से फूफी-फूफा कहाते, 

ब बना बहना, बिटिया, बेटी 

भ भाई का भाभी भी भ से !


मामा-मामी, मौसा-मासी 

माँ सम  ममता सदा लुटाते, 

भ से भार्या, भगिनी भी भ से 

ब से बुआ व बहू बन जाते !


शनिवार, जुलाई 22

ऐसा एक मिलन था अद्भुत


ऐसा एक मिलन था अद्भुत

प्रिय ब्लॉगर मित्रों,

बरसों पहले घर में परिवार के सभी लोग इक्कट्ठे हुए, जब एक कुनबा एक साथ होता है तो कई नई यादें मनों में घर कर लेती हैं भविष्य में आने वाली पीढ़ियों तक वह यादें किसी न किसी तरह पहुँच जाती हैं. कुछ यादें मैंने इस कविता में उतारी थीं, इसे पढ़कर शायद आपको भी अपने परिवार के मिलन की कोई  स्मृति हो आये...

कई बरस के बाद मिले थे

ह्रदय सभी के बहुत खिले थे,

इक छत के नीचे वे चौदह

चले बातों के सिलसिले थे !


दिवस सुहाने, माह नवम्बर

न ही गर्मी न सर्दी का डर,

कारण पापा की बीमारी

लेकिन खुश वे, उन्हें देखकर !


वाराणसी से डिब्रूगढ़ का

राजधानी में सफर चला,

मुम्बई से उड़े विमान में

फिर असम भूमि का दर्श मिला !


सँग लाए वे भेटें अनुपम

मिठाई का पूरा भंडार,

दीवाली के बाद मिले थे

मीठा मीठा करें व्यवहार !


मलाई गिलौरी, गोंद-पाक 

बूंदी चूर, बरफ़ी अनगिन

मेवों, सेव से बने व्यंजन

खाए मिलजुल सबने हरदिन !


वजन बढ़ा या घटा औंस भर

नापा करते बारी बारी,

अभी नाश्ता समाप्त हुआ न

दोपहरी की हो तैयारी !


फिर बारी भ्रमण  की आती

दो वाहनों  में सभी समाते,

रोज नापते असम की धरती

चाय बागानों में जाते !


नदी किनारे, पुल के ऊपर

पार्क के झूले मन मोहते

पंछी, धूप, हवा, पानी सँग

हरी घास पर सभी झूमते !


ओ सी एस में इक अजूबा

पानी में थी लपट अग्नि की,

देख सभी रह गए अचम्भित

साँसें  सबकी रह गयी रुकीं !


बच्चों ने भी लीं तस्वीरें

मन में यादें भरीं सुनहरी,

दो सौ तेरह में सोये सब

दो सौ सात में की दुपहरी !


मिलकर उनो व कैरम खेला

झूले में भी पींग बढाई,

पौधों को नहलाया जल से

ग्रुप में फोटो खूब खिचाई !


मोनोपली का खेला खेल  

 सभी थे हाज़िर फेसबुक पर  ,

एक जगत जो यह दिखता है 

​​दूसरा आभासी  स्क्रीन  पर  I


मेलजोल से हर दिन बीता

खुशियाँ जैसे झलक रहीं थीं,

योग, प्राणायाम के बल पे

सेहत सबकी ठीक रही थी !


ऐसा एक मिलन था अद्भुत

कविता में जो व्यक्त हुआ है ,

सभी दिलों में जो अंकित है

बड़े प्रेम से खुदा हुआ है !


इसी तरह का प्यार सदा ही

सबके मन में बसा रहेगा 

पापा-माँ की मिलें दुआएं

जीवन सुंदर सदा रहेगा  !!





सोमवार, अप्रैल 25

तीन विचार


तीन विचार

अब 

मंदिर तोड़े गए 

पुस्तकालय जलाए गए 

अधिकारों से वंचित किया गया 

मारा गया 

कठोरता की सीमाएँ लांघी गयीं 

ग़ुलाम बनाया गया, बेचा गया 

अब बहुत हुआ, अब और नहीं 

अब परिवर्तन अवश्यंभावी है !


मन 

शिकायतों का पुलिंदा बना अगर मन 

अपनी बस अपनी ही चलाए जाता, 

चीजें जैसी हैं वैसी कहाँ देखे 

महज ज़िद का मुलम्मा चढ़ाए जाता !


छिपा इश्क का समुंदर गहराई में

न भीगे खुद उसमें न जग को डुबाए, 

बना महरूम अपने ही ख़ज़ानों से 

अपने ही हाथों से खुद को सताए  !


परिवार 


दो में होता है प्यार 

पर तीन से बनता है परिवार 

दो बिंदु जुड़ते हैं

तो एक पंक्ति का जन्म होता है 

पर तीसरा बिंदु बना सकता है वृत्त 

जिसमें भ्रमण करती है  ऊर्जा 

माता-पिता और संतान के प्रेम की  

पिता देता है असीम प्रेम माँ को

संतान माँ के वात्सल्य से सिंचित होती है 

और देती है सारा निर्दोष प्रेम पिता को 

और इस तरह एक वलय में घूमता है स्नेह 

प्रीत का जो वृक्ष लगाया था युगों पूर्व 

शिव और पार्वती ने 

उसकी शाखाएँ आज भी पल्लवित हो रही हैं  ! 


सोमवार, मार्च 8

अमृत स्रोत सी

अमृत स्रोत सी



एक दिन नहीं 

वर्ष के सारे दिन हमारे हैं,

हर घड़ी, हर पल-छिन 

हमने जगत पर वारे हैं !


माँ सी ममता छिपी नन्ही बालिका में जन्मते ही 

बहना के दुलार का मूर्त रूप है नारी 

सारे जहान से अनायास ही नाता बना लेती 

चाँद-सूरज को  बनाकर भाई

पवन सहेली संग तिरती  !


हो बालिका या वृद्धा  

सत्य की राह पर चलना सिखाती  

नारी वह खिलखिलाती नदी है

जो मरुथल में फूल खिलाती !

धरती सी सहिष्णु बन रिश्ते निभाए 

परिवार की धुरी, समर्पण उसे भाए !


स्वाभिमान की रक्षा करना

सहज ही है आता  

श्रम की राह पर चलना भी सुहाता 

अमृत स्रोत सी जीवन को पुष्ट करती है 

आनंद और तृप्ति के फूल खिलाती 

सुकून से झोली भरती है !

 

सोमवार, जनवरी 28

नन्ही नव्या के लिए


परिवार में नए मेहमान का आना सदा ही हर्ष का कारण होता है, फिर मेहमान जब चौथी पीढ़ी की प्रथम कन्या हो तो खुशियाँ और भी बढ़ जाती हैं, माँ होतीं तो कुछ ऐसे ही आशीर्वाद अपनी बड़ी पुत्री(यानि मेरी दीदी)की पहली पोती नव्या को देतीं, जिसने अपने देश से दूर नार्वे में छब्बीस जनवरी को जन्म लिया है. यह कविता माँ को भी समर्पित है, उनकी वंश बेलि ही तो फल-फूल रही है.


नन्ही नव्या के लिए

नन्हा तन तुम्हारा नव्या
अधखुली पलक, रंगत गोरी,
तुम हुई साक्षी जिस पल से
बिन देखे बंधी प्रीत डोरी !

रोने के स्वर में छुपा ओम
मुस्काती हो जैसे योगी,
काले कुंतल, काली आँखें
ऐसी तुम ऐसी ही होगी !

नाता प्रेम का तुमसे जोड़ा
पाकर परिजन विमुग्ध हुए,
जीवन के सुंदर उत्सव में
इक नया रंग लख मुग्ध हुए !

हो गार्गी, तुम कल्याणी
शुभ आत्मा नव तन धारे
आनंदी, पावन गायत्री सी
देख तुझे गए सब मन वारे !

तन कोमल सा लघु अंग तेरे
मुस्कान कल्पना से बढकर,
लक्ष्मी ! तू वरदान स्वरूपा
आयी रूप बालिका धरकर !

चन्द्र कला सी बढती जा
जीवन शोभित हो तुझसे,
माँ की गोद में फूल सी महके
पिता दुआएं दिल दे से !

रविवार, जून 19

पिता


पिता

पिता वह मजबूत तना है
जिसके आधार पर पनप रहा है परिवार
और माँ वह जड़
जो दिखाई नहीं देती, पर जिसकी वजह से खड़ा है वृक्ष
और जो मुखरित है नई नई कोंपलों और कलिकाओं में...

पिता की रगों में दौड़ता है सत्
सत् जो शाखाओं से होता हुआ उतर आया है फूलों में
जिनके भार से झुक गयीं हैं शाखाएँ
धरा तक
और नई जड़ों ने गाड़ दिये हैं अपने डेरे
वृक्ष जीवित रहेगा बनेगा साक्षी प्रलय का

पिता की आँखों में सुकून है भीतर अपार संतोष
जो रिस रहा है
पत्तियों के आखिरी सिरों तक ...

अनिता निहालानी
१९ जून २०११