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बुधवार, जून 5

अब चलो, पर्यावरण की बात सुनें

अब चलो, पर्यावरण  की बात सुनें 


ख़त्म हुई चुनाव की गहमा गहमी 

अब चलो, पर्यावरण  की बात सुनें 


सूखते जलाशयों पर नज़र डालें 

कहीं झुलसती धरती की बात सुनें 


कहीं घने बादलों का करें स्वागत

उफनती नदियों का दर्द भी जानें  


पेड़ लगायें, जितने गिरे या कटे   

जल बचायें, भू में जज्ब होने दें  


गर्म हवाओं में इजाफ़ा मत करें  

ग्रीनहाउस गैसों को ना बढ़ायें 


बरगद लगायें बंजर ज़मीनों पर 

न हो, गमलों में चंद फूल खिलायें 


पिघल रहे ग्लेशियर बड़ी तेज़ी से 

पर्वतों पर न अधिक  वाहन चलायें 


सँवारे कुदरत को, न कि दोहन करें 

मानुष   होने का कर्त्तव्य निभायें 


पेड़-पौधों से ही जी रहे प्राणी 

है यह धरा  जीवित, उसे बसने दें 


जियें स्वयं भी जीने दें औरों को

नहीं कभी कुदरती आश्रय ढहायें 


साथ रहना है हर हाल में सबको 

बात समझें, यह  औरों को बतायें ! 


गुरुवार, अक्टूबर 27

प्रकट और अप्रकट

प्रकट और अप्रकट 


जगत 

बुना है 

प्रकट और अप्रकट 

  तन्तुओं से 

मन 

कुछ-कुछ ज़ाहिर होता है कर्मों से 

कुछ छिपा ही रहता है भीतर 

कितना छुपाना है 

कितना दिखाना 

शायद यह सीख लिया है 

सहज ही कुदरत से 

जड़ें छिपी रहती हैं 

भूमि में दूर तक अंधकार में 

और ऊपर फूल खिलाता है पेड़ 

मन की जड़ें भी फैली हैं 

रिश्तों, वस्तुओं, स्मृतियों में 

ना जाने कितने जन्मों की 

अनंत की छाँव में यह खेल चलता है 

यह धूप-छाँव का खेल ही जीवन है 

हर श्वास में उगता निःश्वास में ढलता है ! 


मंगलवार, मार्च 15

कुदरत की होली

कुदरत की होली 


झांको कभी निज नयनों में 

और थोड़ा सा मुस्कुराओ,

रंग भरने हैं अंतर में मोहक यदि  

हाथ कुदरत से अपना मिलाओ !

नीले नभ पर पीला चाँद 

रूपहले सितारों में जगमगाये  

कभी स्याह बादलों में 

इंद्र धनुष भी कौंध अपनी दिखाए !

हरे रंग से रंगी वसुंधरा

जिस पर अनगिन फूल टंके हैं 

ज़रा संभल कर जाना पथ पर

तितलियों के झुंड उड़े हैं !

होली खेलती दिनरात यह कुदरत 

जगाना उल्लास ही इसकी फ़ितरत 

केवल आदमी लड़ाई के बहाने खोजता  

जहाँ रंगों के अंबार लगते

तुच्छ बातों को एक मसला बना लेता  !

रंग सजते बन उमंग जीवन में 

भर जाते तरंग तन और मन में 

अगर रंग भरने हैं सदा के लिए अंतर में 

सहज हर भोर में

संग सूरज के खिलखिलाओ 

हाथ कुदरत से अपना मिलाओ !


सोमवार, फ़रवरी 28

इतना सा सच अनुभव कर ले

इतना सा सच अनुभव कर ले

दुनिया बहुत पुरानी फिर भी
नई नवेली दुल्हन सी है,
मानव अभी-अभी आया है
हुई पुरानी उसकी छवि है !

हर सुबह कुदरत नवीन हो 
पुनर्नवा जैसे हो जाती ,
विस्मित होता देख इसे जो
नूतन उसका उर कर देती !

वृक्ष, पवन, पौधे, पर्वत, नद 
सहज हुए सुख बाँटा करते,
मानव जग में बहुरूप धरे 
खुद से दूर कहीं खो जाते  !

जहाँ सृष्टि विनाश भी होगा 
कुदरत सहज भाव से सहती,
 मानव का उर भयभीत सदा 
पल-पल मृत्यु छलावा देती !

किंतु न जाने खुद को शाश्वत 
नश्वरता का जोर नहीं है,
इतना सा सच अनुभव कर ले
उसका कोई छोर नहीं है !

जीवन से भी चूक गया मन 
भय, आशंका, अकुलाहट में,
स्नेहिल धारा शुष्क हो गयी 
अंगारों में घबराहट के !

सदा नि:शंक खिला जो उर हो 
जीवन का रस उसे मिलेगा,
रस की धारा झरे निर्झर सी 
बस उसमें से प्यार बहेगा !

बुधवार, फ़रवरी 9

सच

सच  

यहाँ अपना कुछ भी नहीं है 

काया यह कुदरत से मिली   

मन माया भी जिसमें खिली 

भाषा ज्ञान मिला जगत से 

जग से ही पाया जब सब कुछ

यहाँ खोना कुछ भी नहीं है 

बस एक अहसास है, होने का 

वह कौन है ? कोई क्या माने 

कभी रस धार मन में फूटती सी 

कहाँ हैं स्रोत ? कोई क्या जाने 

कभी इक दर्द भी दिल में समाता  

जहाँ में दुःख बहुत देखा न जाता 

 हुआ है मौन मन  ! अब क्या कहे यह 

अजाना है सफर !  जाना किधर ! 

न कोई यह बताता 

इशारों में ही, सूनी राह पर, लिए है जाता 

मगर हर बार गिरने से भी वह ही बचाता 

फ़िकर किसको ? जब पाना कुछ भी नहीं है 

यहाँ अपना कुछ भी नहीं है !


सोमवार, अक्टूबर 18

लेकिन सच है पार शब्द के


लेकिन सच है पार शब्द के


कुदरत अपने गहन मौन में

निशदिन उसकी खबर दे रही,

सूक्ष्म इशारे करे विपिन भी 

गुपचुप वन की डगर कह रही ! 


पल में नभ पर बादल छाते

गरज-गरज कर कुछ कह जाते

पानी की बौछारें भी तो

पाकर कितने मन खिल जाते !


जो भी कुछ जग दे सकता है

शब्दों में ही घटता है वह,

लेकिन सच है पार शब्द के

जो निशब्द में ही मिलता है !


‘सावधान’ का बोर्ड लगाये

हर कोई बैठा है घर में,

मिलना फिर कैसे सम्भव हो

लौट गया वह तो बाहर से !


या फिर चौकीदार है बुद्धि

मालिक से मिलने ना देती,

ऊसर-ऊसर ही रह जाता

अंतर को खिलने ना देती !


प्राणों का सहयोग चाहिए

भीतर सखा  प्रवेश पा सके,

सच को जो भी पाना चाहे

मुक्त गगन सा गीत गा सके !


सोमवार, जून 21

धरती, सागर, नीलगगन में

धरती, सागर, नीलगगन में 


सत्यम,  शिवम, सुंदरम तीनों 

झलक रहे यदि अंतर्मन में, 

बाहर वही नजर आएँगे 

धरती, सागर, नीलगगन में !


सत्यनिष्ठ उर तीव्र संकल्प 

बन शंकर सम करे कल्याण, 

सुंदरता का बोध अनूठा 

जगा दे जड़-चेतन में प्राण !


कुदरत भी अनुकूल हो रहे 

अंतर अगर सजग हो जाये, 

हर दूरी तज स्वजन बना ले 

दोनों एक साथ सरसायें !


अंतर्मन हो सदा प्रतिफलित 

बाहर सहज सृष्टि बन जाता,

उहापोह हर द्वंद्व मनस का 

जग में कोलाहल बन जाता !


 

सोमवार, मई 24

सृष्टि का रहस्य नहीं जाने

सृष्टि का रहस्य नहीं जाने 
धरती बाँटी, सागर बाँटे 
अंतरिक्ष भी बाँटा हमने, 
टूट गईं सारी सीमाएं 
जब-जब भी चाहा कुदरत ने !

तूफ़ानों का क्रम कब थमता 
मानव सिंधु-सिंधु मथ डाले,
आसमान में बादल फटते 
सरि पर चाहे बांध बना ले !

रोग नए नित बढ़ते जाते 
पाँच सितारा अस्पताल हैं, 
मौसम भीषण रूप दिखाते 
हिमपात कहीं घोर ज्वाल हैं !

कुदरत पर कुछ जोर न चलता  
मानव कितना हो बलशाली, 
सृष्टि का रहस्य नहीं जाने 
हो ज्ञानवान, वैभवशाली !

कुछ रहस्य, रहस्य ही रहते 
खुद को ही यह बोध सिखा लें, 
जिस अनंत में ठहरा है सब 
उस अनाम से नजर मिला लें !

रविवार, अप्रैल 11

उस अनंत के द्वार चलें हम

 उस अनंत के द्वार चलें हम

बाहर की इस चकाचौंध में   

भरमाया, भटकाया खुद को 

काफी दूर निकल आए हैं

अब तो घर को लौट चलें हम  !


कुदरत की यह मूक व्यथा है 

ठहरो, थमो, जरा तो सोचो, 

व्यर्थ झरे सब, सार थाम लो  

अब तो कदम संभल रखें हम ! 


माना मन के नयनों में कुछ  

स्वप्न अभी भी करवट लेते,  

किस आशा का दामन थामें !

आज अगर जीवन खो दें हम !


जो भव रोग बना हो छूटे 

आश्रय मिले मनस गुहवर  में,

सीमित हैं साधन जीवन के ! 

उस अनंत के द्वार चलें हम


लौट चलें हैं दूर वतन से 

जाने कब यह शाम घिरेगी,

जिस घर जाना नियति सभी की 

उसकी राह न कहीं मिलेगी !



सोमवार, अप्रैल 5

क्यों रहे मन घाट सूना


क्यों रहे मन घाट सूना


पकड़ छोड़ें, जकड़ छोड़ें 

 भीत सारी आज तोड़ें, 

बन्द है जो निर्झरी सी  

प्रीत की वह धार छोड़ें !


स्रोत जिसका कहाँ जाने 

कैद है दिल की गुफा में, 

कोई बिन भीगे रहे न 

आज तो हर बाँध तोड़ें !


रंग कुदरत ने बिखेरे 

क्यों रहे मन घाट सूना,

बह रही जब मदिर ख़ुशबू

बहा आँसूं हाथ जोड़ें !


जो मिले, भीगे, तरल हो 

टूट जाये हर कगार,  

पिघल जाये दिल यह पाहन 

भेद का हर रूप छोड़ें !


 

मंगलवार, अप्रैल 14

उर दर्पण में उसको देखा

उर दर्पण में उसको देखा 


उर दर्पण में ‘उसको’ देखा 
‘उसको’ यानि स्वयं को देखा,
आश्वस्ति की लहर छू गयी
जब-जब भीतर जाकर देखा !

पहले-पहले गहन बवंडर 
झंझावात बहुत उठेंगे, 
अनजाने रस्तों पर मन के 
बीहड़ कंटक पाहन होंगे !

लेकिन दूर कहीं से कोई 
झरने की कल-कल भी आती, 
कभी किसी पंछी की कुह-कुह
मधुरिम कोई प्यास जगाती !

निकट कहीं ही वह बसता है 
श्रद्धा दीप न बुझने पाए, 
बढ़ता रहे निरन्तर राही 
मंजिल इक दिन सम्मुख आए !

एक झलक जो भी पा लेता 
जग में नहीं अजनबी रहता,
पर्वत नदिया बादल उपवन 
सबसे दिल का नाता बनता ! 

कुदरत से संघर्ष नहीं हो 
मानव उसका एक अंश है, 
माँ से दूर गया हो बालक 
चुभता उर में सदा दंश है !

अवसर एक हाथ आया है 
अंबर से हम नाता जोड़ें, 
धरती पर जब पाँव धरें तो 
माँ कहकर ही नमन भी करें ! 

रविवार, अप्रैल 5

दीप जलाकर भरें उजाला


दीप जलाकर भरें उजाला 


 इक ही हो संकल्प हृदय में 
एक भावना हर अंतर में, 
दीप जलाकर भरें उजाला 
घर-घर के दर पर भारत में !

दूर रहे हर तम की छाया 
इसी आस में दीप जलाया,
भय का तम ना घेरे मन को 
सबने गीत विजय का गाया !

विपदा को हम सीख बना लें 
शुभता को दिल से अपना लें, 
काल ठहर कर इंगित करता 
‘देने’ का ही धर्म जगा लें !

कुदरत निशदिन लुटा रही है 
प्राणवायु, जीवन जल, पावक,
मोल लगाया इनका भी अब 
जाग तुरन्त ओ मानव जाग !

मिलजुल कर रहना यदि सीखें 
कोई नहीं रहेगा भूखा, 
धरा इक परिवार है सुंदर 
सत्य अटल यह सूत्र अनोखा !

बुधवार, मार्च 25

कुदरत यही सिखाने आयी

कुदरत यही सिखाने आयी 


घर में रहना भूल गया है 
बाहर-बाहर तकता है मन, 
अंतर्मुख हो रहे भी कैसे ?
नहीं नाम का सीखा सुमिरन !
  
घर में रहने को नहीं उन्मुख 
शक्ति का जहाँ स्रोत छुपा है,
आराधन कर उस चिन्मय का 
जिसमें तन यह मृण्मय बसा है !

कुदरत यही सिखाने आयी 
कुछ पल रुक कर विश्राम करो,
दिन भर दौड़े-भागे फिरते 
अब दुनिया से उपराम रहो !

हवा शुद्ध होगी परिसर की 
धुँआ छोड़ते वाहन ठहरे,
पंछी अब निर्द्वन्द्व उड़ेंगे 
आवाजों के लगे न पहरे !

धाराएँ भी निर्मल होंगी 
दूषित पानी नहीं बहेगा,
श्रमिकों को विश्राम मिलेगा 
उत्पादन यदि अल्प घटेगा !



गुरुवार, जुलाई 11

जीवन - मरण


जीवन - मरण

उसे ज्ञात है कि जो कुछ भी 'अच्छा' है
वह उसके बस में है
अगर उसका होना
कुदरत के साथ एक होने में ही हो
नहीं हो कोई भी निजी योजना
जब हवायें सांझी है
छूट है विचरने की सबको यहाँ धरती और आकाश में
फ्लू वायरस तक भेद नहीं करते अँधेरे और प्रकाश में
यहीं की मिट्टी से उपजा अन्न
इसी की समझ से बना.. मन !

और.. अच्छा होने का अर्थ है
जो सबको आनंदित करे
एक खिला हुआ फूल ज्यों
आँखों से बहता हुआ प्रेम झरे
पूरी बात सुने बिना
जवाब न देना ..  सोच भी न जगाना
सीख ली हो प्रतीक्षा करने की कला बिना अधीर हुए
तब जीवन हो जाता है सहज
मरण रह जाता है शब्द महज !

शनिवार, फ़रवरी 23

एक जागरण ऐसा भी हो



एक जागरण ऐसा भी हो


पल में गोचर हो अनंत यह
इक दृष्टिकोण ऐसा भी हो,
जिसकी कोई रात न आये
एक जागरण ऐसा भी हो !

कुदरत निशदिन जाग रही है
अंधकार में बीज पनपते,
गहन भूमि के अंतर में ही
घिसते पत्थर हीरे बनते !

राह मिलेगी उसी कसक से
होश जगाने जो आती है,
धूप घनी, कंटक पथ में जब
एक ऊर्जा जग जाती है !

प्रीत चाहता उर यदि स्वयं तो

अप्रीति के करे न साधन,
मंजिल की हो चाह हृदय में
अम्बर में उड़ने से विकर्षण ?


डोर बँधी पंछी पग में जब
कितनी दूर उड़ान भरेगा,
सुख स्वप्नों में खोया अंतर
दुःख की पीड़ा जाग सहेगा !





बुधवार, अप्रैल 11

मुक्त हुआ हर अंतर उस पल

मुक्त हुआ हर अंतर उस पल


पैमाना हम ही तय करते
जग को जिसमें तोला करते,
कुदरत के भी नयन हजारों
भुला सत्य यह व्यर्थ उलझते !

जो चाहा है वही मिला है
निज हाथों से जीवन गढ़ते,
बाधाएँ जो भी आती हैं
उनमें स्वयं का लिखा ही पढ़ते !

दुःख के बीज गिराए होंगे
कण्टक हाथों में चुभते हैं,
मन संकीर्ण राह का राही
भय के जब दानव डसते हैं !

सुख की महज आस भर की थी
जब ग्लानि के पुल बांधे थे,
आशंकाएं भी पाली थीं
महल गढ़े थे सुख स्वप्नों में  !

मुक्त हुआ हर अंतर उस पल
जिसने राज हृदय में जाना,
जो अबूझ  कर रहा इशारे
उस दर पाया सहज ठिकाना !