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गुरुवार, सितंबर 21

गणपति अथर्वशीर्ष

गणपति अथर्वशीर्ष  संस्कृत भाषा में एक लघु उपनिषद है। यह पाठ गणेश को समर्पित है, जो बुद्धि और सीखने का प्रतिनिधित्व करने वाले देवता हैं। इसमें कहा गया  है कि गणेश शाश्वत अंतर्निहित वास्तविकता, ब्रह्म के समान हैं। यह स्तोत्र अथर्ववेद से जुड़ा हुआ है। इसका पाठ कई रूपों में मौजूद है, लेकिन सबमें एक ही संदेश दिया गया है। गणेश को अन्य हिंदू देवताओं के समान, परम सत्य और वास्तविकता के रूप में, सच्चिदानंद के रूप में, और हर जीवित प्राणी में आत्मा के रूप में  तथा ॐ के रूप में वर्णित किया गया है।

श्री श्री रविशंकर जी ने ने इस स्तोत्र की बहुत सुंदर और सरल व्याख्या  की है । सर्वप्रथम शांति पाठ किया गया है। ईश्वर से यही प्रार्थना करनी है कि जब तक जीवन रहे, हम शुभ देखें, शुभ ही सुनें. केवल काँटों को नहीं फूलों को भी देखें. हमारी वाणी में स्थिरता हो, अपने वचन पर हम स्थिर रह सकें. ऐसी वाणी न बोलें  जिससे किसी को आघात पहुँचे। वाणी की कुशलता ही जीवन की कुशलता है. सत्य वचन बोलें पर मधुरता के साथ बोलें. यदि वाणी में त्रुटि रह जाती है तो दिल अच्छा होने पर भी हमारे संबंध बिगड़ने लगते हैं. जब तक हम इस धरा पर हैं,  हमारा जीवन देवताओं के काम में लग जाये.  हमसे बड़े काम हों. हमारा जीवन देव के हित में लग जाये.  

इंद्र भी हमारे लिए कल्याणकारी हो. हम अपने आप में स्थिर हो जाएँ. अनिष्टकारी चेतना भी हमारे लिए अनर्थकारी न हो. इंद्र हमारी रक्षा करे. हे गणपति ! तुम ब्रह्म हो, जिसमें जड़, चेतन सब कुछ समाया है. ब्राह्मी चेतना तुम ही हो. तुम ही कर्ता हो. तुम्हीं मेरे दिल की धड़कन चलाते हो, मेरी श्वसन क्रिया भी तुम्हारे कारण ही है. प्रकृति का सारा काम तुम्हारे कारण है. समय-समय पर जो भी परिवर्तन हो रहा है, नदियाँ बह रही हैं, सूरज का उगना आदि सब कुछ तुम्हारे कारण है. विचारों व भावों का उमड़ना भी तुमसे ही है. जैसे एक मकड़ी अपने ही स्राव से जाला बनाती है वैसे ही सब कुछ तुमसे ही हो रहा है. इसे धारण करने वाले भी तुम हो. इन सबको समाप्त करने वाले भी तुम हो. फूल खिलता है फिर मुरझा जाता है, प्राणी जन्मते हैं फिर विनाश को प्राप्त होते हैं. तुम ही सब कुछ हो. यहां जो कुछ भी है वह तुम ही हो. मैं भी तुम ही हूँ. मेरा जीवन तुमसे ही है. बोलने वाले तुम हो, सुनने वाले भी तुम हो. तुम्हीं देने वाले हो, तुम्हीं पकड़ कर रखने वाले हो. तुमसे कुछ बचा नहीं है. सही- गलत, अच्छा-बुरा सब कुछ तुमसे है. तुम मेरे पीछे हो, तुम्हीं आगे हो. पूर्वज भी तुम हो, संतति भी तुम हो. प्रश्न भी तुम हो, उत्तर भी तुम हो. दाएं -बाएं भी तुम हो. स्त्री-पुरुष दोनों तुम हो. सरल और कठिन दोनों तुम हो. विद्या प्राप्ति को कुशलता से किया जाता है, वह दक्षता भी तुम हो. गंतव्य भी तुम हो और मेरे अस्तित्त्व का आधार भी तुम हो. मेरा मूल भी तुम हो, और उद्देश्य भी तुम हो. मनुष्य जन्म मिला इसका कारण तुम हो, देवत्व को प्राप्त करना है, वह भी तुम हो. 

तुम सब जगह से मेरा पालन करो, तुम पालनहार हो. मैं तुम्हारे शरणागत हूँ. वाणी के रूप में तुम हो, वाणी के पार की तरंग भी तुम हो. तुम चिन्मय हो. आनंदमयी चेतना तुम हो. आनंद के भी परे ब्रह्म तुम ही हो. तुम सच्चिदानंद हो. तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो. अभी इसी क्षण तुम हो ! तुम ज्ञान भी हो और विज्ञान भी हो. बुद्धि के रूप में तुम ही हो. यह जगत तुमसे उपजा है, और तुममें ही स्थित है. हरेक की इच्छा का लक्ष्य तुम ही हो. तुम भूमि हो, जल तुम हो, आकाश, धरा, अग्नि सब तुम हो.  प्रपंच से परे भी तुम हो. 

वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा वाणी भी तुम हो. तुम तीनों गुण के परे हो. तीनों अवस्थाओं के परे तुम हो. तीन देहों के परे हो. ज्ञान को भी तिलांजलि देकर जब कोई गुणातीत हो जाता है, वह गणपति को प्राप्त होता है. भूत, वर्तमान, भविष्य तीनों में तुम हो. तीनों कालों के परे भी तुम हो. 

मूलाधार चक्र में तुम सदा ही हो. इच्छा, क्रिया और ज्ञान तीनों शक्तियों के रूप में तुम हो. ध्यान में स्थित योगी तुम्हें पाते हैं. ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र, सूर्य, चन्द्र, ब्रह्म, प्रजापति, भूर, भुवः, स्व आदि  लोक तुम्हीं हो. मन्त्र में देवता बसते हैं. जगत देवताओं के अधीन है, देवता मंत्र में हैं. गम गणपतये नमः, पहले ग फिर अ और अंत में म, ग अर्थात अवरोध, अ मध्य है. म पूर्णता का प्रतीक है. जो बाधा को दूर करे, वह तुम हो। एक दन्त अर्थात एकाग्रता, एकमुखी चेतना, देने वाले, हमें उस ज्ञान और ध्यान में प्रेरित करो. 

गणक ऋषि ने अपने ध्यान में इस मन्त्र को देखा, ऐसे गणपति मुझे प्रेरित करें, मेरे मस्तिष्क को तेजवान बनायें. तुम इस जगत के कारण हो, तुम अच्युत हो, तुम चतुर्भुज वाले हो, इस रूप में तुम मेरे भीतर हो, लाल पुष्प से तुम्हारी पूजा होती है. मूलाधार चक्र में लाल रंग है । पहले रूप में उसे देखा, फिर रूप के साथ संबंध बनाने के लिए कहा गया. प्रकृति और पुरुष से परे तुम हो. योगियों में जो बड़े योगी हैं, ऐसे ध्यानी व योगी को तुम वर देते हो. 

जो इसका अर्थ समझते हैं, वे ब्रह्म तत्व को प्राप्त करते हैं. यह रहस्य उन्हें ही देना चाहिए जो शिष्य हों, जो सौम्य हो. जो बार-बार इस ज्ञान को अपने में दोहराते हैं, उनकी सब कामनाएं पूरी हो जाती हैं. जो इस ज्ञान में अभिषिक्त हो जाते हैं. उनकी वाणी में बल आ जाता है. इस विद्या को पाने के लिए चतुर्थी के दिन इसका परायण करो. कुशलता से इस ज्ञान को पकड़ लें तो सब प्राप्त हो जाता है. इस ज्ञान को अच्छी तरह समझने से यश, सम्पत्ति मोक्ष  सब मिल जाता है. इसका जाप करने से हजारों को आनंद प्राप्त होता है.

बुधवार, अगस्त 9

कुछ दोहे


कुछ दोहे


वाणी से साथी बनें, वाणी अरि बनाये 

वाणी अगर कठोर है,मनस सुख ले जाये 


वाणी के सायक चलें, कुछ भी रहे न शेष 

अभी-अभी जो राग था, बन जाता है द्वेष 


वाणी का आदर करें, करें न इससे चोट 

अपने जन ही ग़ैर बन, व्यर्थ निकालें खोट 


वाणी जोड़े दिलों को, सुख का है आधार 

वाणी ही संबल बने, बन जाती है प्यार 


वाणी इक वरदान है, देवी की है देन

सम्मान इसका रखें, येन, केन, प्रकारेण


गुरुवार, नवंबर 3

तुम नाम हो इस क्षण

तुम नाम हो इस क्षण 


अभय कर देती है 

तुम्हारी मौन वाणी 

शक्ति व ऊर्जा से कर आप्लावित 

कदमों में संबल भरती 

वही हर मुस्कान का स्रोत है 

अंधकार से प्रकाश की ओर जाने 

की प्रेरणा दे 

हर पीड़ा को पल में हर लेती 

सुना अमरता का संदेश 

जीवन को अर्थ देती है 

तुम जीवन के स्रोत हो 

शब्द और अर्थ उपजे हैं तुम्हीं से 

हर कर्म वहीं से उपजता है 

जहाँ से आती है श्वास 

जहाँ  मिलन होता है 

पदार्थ और शक्ति का

अथवा  रूप बदलते हैं

 दोनों एक-दूजे  का

तुम नाम हो इस क्षण 

अगले पल रूप धर लेते हो 

नाम-रूप से परे होकर भी 

इस ब्रह्मांड का सृजन करते हो ! 




मंगलवार, अगस्त 30

गणेश चतुर्थी पर हार्दिक शुभकामनायें

 गणपति अथर्वशीर्ष

गणपति अथर्वशीर्ष  संस्कृत भाषा में एक लघु उपनिषद है। यह पाठ गणेश को समर्पित है, जो बुद्धि और सीखने का प्रतिनिधित्व करने वाले देवता हैं। इसमें कहा गया  है कि गणेश शाश्वत अंतर्निहित वास्तविकता, ब्रह्म के समान हैं। यह स्तोत्र अथर्ववेद से जुड़ा हुआ है। इसका पाठ कई रूपों में मौजूद है, लेकिन सबमें एक ही संदेश दिया गया है। गणेश को अन्य हिंदू देवताओं के समान, परम सत्य और वास्तविकता के रूप में, सच्चिदानंद के रूप में, और हर जीवित प्राणी में आत्मा के रूप में  तथा ॐ के रूप में वर्णित किया गया है।

श्री श्री रविशंकर जी ने ने इस स्तोत्र की बहुत सुंदर और सरल व्याख्या  की है । सर्वप्रथम शांति पाठ किया गया है। ईश्वर से यही प्रार्थना करनी है कि जब तक जीवन रहे, हम शुभ देखें, शुभ ही सुनें. केवल काँटों को नहीं फूलों को भी देखें. हमारी वाणी में स्थिरता हो, अपने वचन पर हम स्थिर रह सकें. ऐसी वाणी न बोलें  जिससे किसी को आघात पहुँचे। वाणी की कुशलता ही जीवन की कुशलता है. सत्य वचन बोलें पर मधुरता के साथ बोलें. यदि वाणी में त्रुटि रह जाती है तो दिल अच्छा होने पर भी हमारे संबंध बिगड़ने लगते हैं. जब तक हम इस धरा पर हैं,  हमारा जीवन देवताओं के काम में लग जाये.  हमसे बड़े काम हों. हमारा जीवन देव के हित में लग जाये.  

इंद्र भी हमारे लिए कल्याणकारी हो. हम अपने आप में स्थिर हो जाएँ. अनिष्टकारी चेतना भी हमारे लिए अनर्थकारी न हो. इंद्र हमारी रक्षा करे. हे गणपति ! तुम ब्रह्म हो, जिसमें जड़, चेतन सब कुछ समाया है. ब्राह्मी चेतना तुम ही हो. तुम ही कर्ता हो. तुम्हीं मेरे दिल की धड़कन चलाते हो, मेरी श्वसन क्रिया भी तुम्हारे कारण ही है. प्रकृति का सारा काम तुम्हारे कारण है. समय-समय पर जो भी परिवर्तन हो रहा है, नदियाँ बह रही हैं, सूरज का उगना आदि सब कुछ तुम्हारे कारण है. विचारों व भावों का उमड़ना भी तुमसे ही है. जैसे एक मकड़ी अपने ही स्राव से जाला बनाती है वैसे ही सब कुछ तुमसे ही हो रहा है. इसे धारण करने वाले भी तुम हो. इन सबको समाप्त करने वाले भी तुम हो. फूल खिलता है फिर मुरझा जाता है, प्राणी जन्मते हैं फिर विनाश को प्राप्त होते हैं. तुम ही सब कुछ हो. यहां जो कुछ भी है वह तुम ही हो. मैं भी तुम ही हूँ. मेरा जीवन तुमसे ही है. बोलने वाले तुम हो, सुनने वाले भी तुम हो. तुम्हीं देने वाले हो, तुम्हीं पकड़ कर रखने वाले हो. तुमसे कुछ बचा नहीं है. सही- गलत, अच्छा-बुरा सब कुछ तुमसे है. तुम मेरे पीछे हो, तुम्हीं आगे हो. पूर्वज भी तुम हो, संतति भी तुम हो. प्रश्न भी तुम हो, उत्तर भी तुम हो. दाएं -बाएं भी तुम हो. स्त्री-पुरुष दोनों तुम हो. सरल और कठिन दोनों तुम हो. विद्या प्राप्ति को कुशलता से किया जाता है, वह दक्षता भी तुम हो. गंतव्य भी तुम हो और मेरे अस्तित्त्व का आधार भी तुम हो. मेरा मूल भी तुम हो, और उद्देश्य भी तुम हो. मनुष्य जन्म मिला इसका कारण तुम हो, देवत्व को प्राप्त करना है, वह भी तुम हो. 

तुम सब जगह से मेरा पालन करो, तुम पालनहार हो. मैं तुम्हारे शरणागत हूँ. वाणी के रूप में तुम हो, वाणी के पार की तरंग भी तुम हो. तुम चिन्मय हो. आनंदमयी चेतना तुम हो. आनंद के भी परे ब्रह्म तुम ही हो. तुम सच्चिदानंद हो. तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो. अभी इसी क्षण तुम हो ! तुम ज्ञान भी हो और विज्ञान भी हो. बुद्धि के रूप में तुम ही हो. यह जगत तुमसे उपजा है, और तुममें ही स्थित है. हरेक की इच्छा का लक्ष्य तुम ही हो. तुम भूमि हो, जल तुम हो, आकाश, धरा, अग्नि सब तुम हो.  प्रपंच से परे भी तुम हो. 

वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा वाणी भी तुम हो. तुम तीनों गुण के परे हो. तीनों अवस्थाओं के परे तुम हो. तीन देहों के परे हो. ज्ञान को भी तिलांजलि देकर जब कोई गुणातीत हो जाता है, वह गणपति को प्राप्त होता है. भूत, वर्तमान, भविष्य तीनों में तुम हो. तीनों कालों के परे भी तुम हो. 

मूलाधार चक्र में तुम सदा ही हो. इच्छा, क्रिया और ज्ञान तीनों शक्तियों के रूप में तुम हो. ध्यान में स्थित योगी तुम्हें पाते हैं. ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र, सूर्य, चन्द्र, ब्रह्म, प्रजापति, भूर, भुवः, स्व आदि  लोक तुम्हीं हो. मन्त्र में देवता बसते हैं. जगत देवताओं के अधीन है, देवता मंत्र में हैं. गम गणपतये नमः, पहले ग फिर अ और अंत में म, ग अर्थात अवरोध, अ मध्य है. म पूर्णता का प्रतीक है. जो बाधा को दूर करे, वह तुम हो। एक दन्त अर्थात एकाग्रता, एकमुखी चेतना, देने वाले, हमें उस ज्ञान और ध्यान में प्रेरित करो. 

गणक ऋषि ने अपने ध्यान में इस मन्त्र को देखा, ऐसे गणपति मुझे प्रेरित करें, मेरे मस्तिष्क को तेजवान बनायें. तुम इस जगत के कारण हो, तुम अच्युत हो, तुम चतुर्भुज वाले हो, इस रूप में तुम मेरे भीतर हो, लाल पुष्प से तुम्हारी पूजा होती है. मूलाधार चक्र में लाल रंग है । पहले रूप में उसे देखा, फिर रूप के साथ संबंध बनाने के लिए कहा गया. प्रकृति और पुरुष से परे तुम हो. योगियों में जो बड़े योगी हैं, ऐसे ध्यानी व योगी को तुम वर देते हो. 

जो इसका अर्थ समझते हैं, वे ब्रह्म तत्व को प्राप्त करते हैं. यह रहस्य उन्हें ही देना चाहिए जो शिष्य हों, जो सौम्य हो. जो बार-बार इस ज्ञान को अपने में दोहराते हैं, उनकी सब कामनाएं पूरी हो जाती हैं. जो इस ज्ञान में अभिषिक्त हो जाते हैं. उनकी वाणी में बल आ जाता है. इस विद्या को पाने के लिए चतुर्थी के दिन इसका परायण करो. कुशलता से इस ज्ञान को पकड़ लें तो सब प्राप्त हो जाता है. इस ज्ञान को अच्छी तरह समझने से यश, सम्पत्ति मोक्ष  सब मिल जाता है. इसका जाप करने से हजारों को आनंद प्राप्त होता है.


शनिवार, जुलाई 23

कहीं धूप खिली कहीं छाया

कहीं धूप खिली कहीं छाया  

 

यहाँ कुछ भी तजने योग्य नहीं 

यह जगत उसी की है माया,  

वह सूरज सा नभ में दमके 

कहीं धूप खिली कहीं छाया !


दोनों का कारण एक वही 

उसका कुछ कारण नहीं मिला, 

वह एक स्वयंभू शिव सम है 

उससे ही उर आनंद खिला !


नाता उससे क्षण भर न मिटे 

इक धारा उसकी ओर बहे, 

उससे ही पूरित हो अंतर 

वाणी नयनों से उसे गहे !


उसी मौन से प्रकटी हर ध्वनि

खग, कोकिल कूक पुकार बनी,

सागर में उठी लहर जैसे 

जल धारे ही पल-पल उठती !


जग नाटक है वह देख रहा 

मन भी उसका ही मीत बने, 

कुछ भी न इसे छू पायेगा 

निर्द्वन्द्व ध्यान से भरा  रहे !


शुक्रवार, फ़रवरी 4

वसंत पंचमी


वसंत पंचमी 

माघ मास के शुक्ल पक्ष की

तिथी पंचमी जब भी आती,

खिलते दिगंत, आता वसंत

सरस्वती पूजा शुभ भाती !


विद्या, बुद्धि, ज्ञान, वाणी, श्री 

मेधा, प्रज्ञा, धी, स्मृति, ब्राह्मी ,

माँ भारती, हंसविराजती 

आद्या शक्ति परमेश्वर की !


वीणापाणि, श्वेताम्बरा माँ 

कुमुदी, शारदा अनगिन नाम,

भाषा, इला, गो, वाग्देवी 

बारम्बार है तुम्हें प्रणाम!


श्वेत हंस वाहन अति सुंदर

 आसन पंकज श्वेत विराजे,

दो हाथों में वाद्य उठाये

वेद, पुहुप बाक़ी में साजे !


अमृतमय, हो प्रकाश पुंज तुम

शुभ कृपा बरसती है प्रतिपल,

शुद्ध प्रेममय, हे  तेजोमय 

अंतर में बसो सदा अविचल !

शुक्रवार, मार्च 19

उतना ही जल नभ से बरसे

उतना ही जल नभ से बरसे


जर्रे-जर्रे में बसा हुआ  

रग-रग में लहू बना बहता, 

वाणी से वह प्रकटे सबकी 

माया से परे सदा रहता !


छह रिपुओं को यदि हरा दिया 

उसके ही दर पर जा पहुँचे, 

अंतर में जितनी प्यास जगी 

उतना ही जल नभ से बरसे !


जाने कब से यह सृष्टि बनी 

परम संतों ने उसे पाया, 

जिसने अपने भीतर झाँका 

बस गीत उसी का फिर गाया ! 


 महादानी वह सर्व समर्थ 

दीनों का है रखवाला वह, 

जो श्रद्धा से भजता उसको 

अंतर उसको दे डाला यह ! 


पल भर भी उससे दूर नहीं 

वह अंतर्यामी बन रहता, 

जीवन इक सुंदर उत्सव है 

मन कष्टों को हँस कर सहता ! 


समता का भाव भरे दिल में 

वह सुख का पाठ पढ़ाता है, 

हर भेद दिलों से मिट जाए  

सेवा का मर्म सिखाता है !


उसकी महिमा क्या जग जाने 

जो अपनी राह चले जाता,  

पल में सोने को धूल करे 

 भू को पल में स्वर्ग बनाता !

 

शनिवार, अक्टूबर 24

व्यक्त वही अव्यक्त हो सके

 व्यक्त वही अव्यक्त हो सके 

हे वाग्देवी ! जगत जननी  

वाणी में मधुरिम रस भर दो, 

जीवन की शुभ पावनता का 

शब्दों से भी परिचय कर दो !


भाषा का उद्गम तुमसे है 

नाम-रूप से यह जग रचतीं,

ध्वनि जो गुंजित है कण-कण में 

नव अर्थों से सज्जित करतीं !


शिव-शिवानी अ, इ में समाए

क से म पंचम वर्गीय सृष्टि,

हर वर्ण में अर्थ भरे कई

मिले शब्दों से जीवन दृष्टि !


कलम उठे जब भी कागज पर 

व्यक्त वही अव्यक्त हो सके, 

निर्विचार से जो भी उपजे 

भाव वही प्रकटाये मानस !


हे देवी ! पराम्बा माता 

कटुता रोष, असत् सब हर ले, 

गंगा की निर्मलधारा सम 

रचना में करुणा रस भर दे !


मंगलवार, अक्टूबर 13

उस लोक में

उस लोक में 


जहां आलोक है अहर्निश 

किंतु समय ही नहीं है जहाँ

रात-दिन घटें कैसे ? 

पर शब्दों की सीमा है 

जागरण के उस लोक में 

जहाँ नितांत एकांत है 

और निपट नीरव 

पर जहाँ जाकर ही मिलता है 

मानव को निजता का गौरव 

उस निजता का जिसमें कोई पराया है ही नहीं 

जहाँ हर पेड़-पौधे, हर प्राणी से 

जुड़ जाते हैं अदृश्य तार 

जहां वाणी के बिना ही संदेश 

लिए-दिए जाते हैं 

चेतना का वह प्रकाश ही 

बरस रहा है ज्योत्स्ना में 

जिसे हंस की तरह चुगना होगा 

उस आभा से ही भीतर

मन का आसन बुनना होगा 

जिससे बुनते हैं कबीर झीनी चादर 

जो ज्यों की त्यों रह जाती है 

उस जागरण की याद 

हमें क्यों नहीं सताती है ! 





रविवार, जुलाई 19

कैसे कोई समझे उसको


कैसे कोई समझे उसको 
 

वह अजर अमर, है अटल शिखर 
अखिल ब्रह्माण्ड में व्याप रहा, 
कुसुमों से भी कोमल उर है 
बन मानव हर संताप सहा !
 
लघु पीड़ा से व्याकुल होता 
प्रियजन पर प्रेम लुटाता है, 
जब कोई राह भटक जाता 
करूणाकर पुनः दिखाता है !
 
वह वाणी का मर्मज्ञ बड़ा 
रसिक दिलदार रसज्ञ भी है, 
प्रकृति ने अनेकों रूप धरे 
भरे प्राण उन्हें डुलाता है !
 
जड़ चट्टानों से झर निर्झर
उससे ही बह चैतन्य हुए,
अग्नि की लपटों में प्रज्ज्वलित 
वायु के प्रचंड झकोरों में !
 
असीम अंबर सा व्याप्त रहा 
सब लीला उसमें घटती है, 
कैसे कोई समझे उसको 
मेधा भी उससे झरती है !
 
वह शिव भी है शक्ति भी वही 
वह एक बहुत अलबेला है,
उसको भजता मन जिस क्षण जो  
रहता ना कभी अकेला है !
 

शनिवार, जून 6

वाणी

वाणी 


वाणी का वरदान मिला है 
मानव को !
पर अभिशाप बना लेता है 
व्यर्थ, असत्य, कटु वचनों से 
निज खाते पाप लिखा लेता है 
लहजे में यदि  छिपी शिकायत 
स्वयं की कमजोरी ही झलके  
या तेजी हो शब्दों में तो 
मन की अस्थिरता ज्यों ढलके 
रोषपूर्ण यदि वचन निकलते 
अहंकार का खेल चल रहा 
घुमा-फिरा कर बात कही तो 
मन अनजाना खुद को छल रहा 
स्वयं की राय थोपने जाता 
मन खुद उसमें धँसता जाता 
जब तक दर्पण नहीं बनेगा 
जग जैसा है उसमें आखिर 
कैसे वैसा ही झलकेगा ? 

शनिवार, मार्च 17

भीतर एक स्वप्न पलता है




भीतर एक स्वप्न पलता है



आहिस्ता से धरो कदम तुम
हौले-हौले से ही डोलो,
कंप न जाये कोमल है वह
वाणी को भी पहले तोलो !

कुम्हला जाता लघु पीड़ा से
हर संशय बोझिल कर जाता,
भृकुटी पर सलवट छोटी सी
उसका आँचल सिकुड़ा जाता !

सह ना पाए मिथ्या कण भर
सच के धागों का तन उसका,  
मुरझायेगा भेद देख कर
सदा एक रस है मन जिसका !

हल्का सा भी धुआं उठा तो
दूर अतल में छिप जायेगा,  
रेखा अल्प कालिमा की भी
कैसे उसे झेल पायेगा !

कोमल श्यामल अति शोभन जो
भीतर एक स्वप्न पलता है,
बड़े जतन से पाला जिसको
ख्वाब दीप बन कर जलता है !

बुधवार, जून 8

कवि और कविता


कवि और कविता

वाणी अटकी, बोल न फूटे
 अंतर का चैन कोई लूटे,
कविता दिल की भाषा जाने
कितने कूल-किनारे छूटे !

रागी मन बनता अनुरागी
भीतर कैसी पीड़ा जागी,
पलकों में पुतली सा सहेजे
भीतर लपट लगन की लागी !

उर में प्रीत भरे वह करुणा
डबडब नयना करें मनुहार,
छलक-छलक जाये ज्यों जल हो
गहराई में छिपा था प्यार !

सरल, तरल बहता मन सरि सा
घन बन के जो जम ना जाये,
अंतर उठी हिलोर उलीचे
नियति लुटाना, कवि कह जाये !


अनिता निहालानी
८ जून २०११