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शुक्रवार, मई 19

मुक्ति

मुक्ति 


स्मृति पटल पर अंकित 

हैं कुछ पल 

 कर याद जिन्हें होता अंतर सजल 

चिकित्सक ने उतारा पुराना 

और सरका दिया नूतन मल्टी फ़ोकल लेंस 

आँख के भीतर 

जिनमें भरा था द्रव 

और ऊपर तेज रोशनी थी 

टीवी पर देख रहे थे प्रियजन 

आपरेशन की सारी गतिविधि 

चंद मिनटों में ही ओटी से बाहर ले आये वे 

तब घंटों, दिनों व हफ़्तों में बाँटकर 

हुए सिलसिले आरम्भ बूँदें डालने के 

चढ़ाया चार दिन काला चश्मा  

फिर पारदर्शी बिना नंबर का 

दाहिनी के बाद 

बायीं आँख की बारी आयी 

इस तरह  बरसों बाद 

चश्मे से मुक्ति पायी ! 


गुरुवार, जनवरी 5

हर पीड़ा मुदिता से भर दे

हर पीड़ा  मुदिता  से भर दे


मुक्त पिरोया गया माल में 

बिंध मध्य में शून्य हुआ जब,

जा पहुँचा सम्मान बढ़ाने 

देवस्थल की शोभा बन तब !


मन भी मुक्त सघन पीड़ा से 

सीखे  रीता होना खुद से, 

कृष्ण सूत्र में गुँथ जाता है 

एक हुआ फिर सारे जग से !


मुक्ति का यह मार्ग अतुलनीय  

हर पीड़ा मुदिता  से भर दे, 

ज्ञान प्रीत से, प्रीत कर्म से  

सुगम राह पर ला कर धर  दे !


कर्म अर्चना है अकर्म सम

व्यक्त ऊर्जा को होने दे, 

गंगा सी बहती जो निर्मल 

दिव्य भाव भीतर बोने दे  !


चाह मुक्ति की यह अनुपम है 

स्वयं का व जग का हित सधता, 

रिक्त हुआ उर जब भीतर से 

प्रियतम खुद ही आकर बसता  !


गुरुवार, सितंबर 9

गाकर कोई गीत मुक्ति का


 गाकर कोई गीत मुक्ति का 


मन नि:शंक हो, ठहरे जल सा 

जब इक दर्पण बन जाए,

झांके कहीं से आ कोई

निज प्रतिबिम्ब दिखा जाए !


मन उदार हो, जलते रवि सा 

जब इक दाता बन जाए, 

 हर ले सारी उलझन कोई

निज मुदिता से भर जाए !


मन बहता हो,निर्मल जल सा 

जब इक निर्झर बन जाए, 

 आकर कोई सारे जग की 

शीतलता फिर भर जाए !


मन विशाल हो, छाया हर सूँ 

विमल गगन सा बन जाए, 

 गाकर कोई गीत मुक्ति का 

हर बंधन को हर जाए !




रविवार, मई 2

मन निर्मल इक दर्पण हो

मन निर्मल इक दर्पण हो


लंबी गहरी श्वास भरें 

वायरस का विनाश करें, 

प्राणायाम, योग अपना 

अंतर में विश्वास धरें !


उष्ण नीर का सेवन हो 

उच्च सदा ही चिंतन हो, 

परम सत्य तक पहुँच सके  

मन निर्मल इक दर्पण हो !


खिड़की घर की रहे खुली

अधरों पर स्मित हटे नहीं, 

विषाणु से कहीं बड़ा है

साहस भीतर डटें वहीं !


नियमित हो जगना-सोना

स्वच्छ रहे घर, हर कोना, 

स्वादिष्ट, सुपाच्य आहार    

मुक्त हवा आना-जाना !


नयनों में पले विश्वास 

मन को भी न करें उदास, 

पवन, धूप, आकाश, नीर  

परम शक्ति का ही निवास !


मुक्ति का अहसास मन में 

चाहे हो पीड़ा तन में,

याद रहे पहले कितने  

फूल खिले इस जीवन में !

 

बुधवार, फ़रवरी 10

शरण गए बिन बात न बनती

शरण गए बिन बात न बनती 


अंधकार मन का जो हरता 

ज्ञान मोतियों से उर भरता 

उसकी महिमा कही न जाती 

गुरुद्वार पर भीड़ उमड़ती 

शरण गए बिन बात न बनती 


शरण गए बिन बात न बनती !


हर पीड़ा का कारण जाने 

भीतर बाहर वह पहचाने 

परम सत्य तक खुद ले जाता 

उसके निकट अभय मन पाता 

आँखों से शुभ कृपा झलकती 


शरण गए बिन बात न बनती !


अहम आवरण वही गिराए 

सहज ही सुख राह पर लाये 

एक आस विश्वास वही है 

उससे दिल की बात कही है 

वरना कौन सहारा  जग में 

किसी ठौर नहीं मुक्ति आती 


शरण गए बिन बात न बनती !



 

शुक्रवार, अगस्त 21

इच्छा से शुभेच्छा तक

  

इच्छा से शुभेच्छा तक

 


वस्तुओं की इच्छा 

भरमाती है चेतना को, 

व्यक्तियों की, रुलाती है !

सुख की अभिलाषा सुला देती है 

जब समूह की चेतना से 

जुड़ जाती है इच्छा

कुछ भी करवा ले जाती है 

नहीं होता भीड़ के पास मस्तिष्क

एक उन्माद होता है 

मिट जाता है भय

जो कर नहीं सकता था एक

समूह करवा लेता है उससे 

विपरीत इसके

हो यदि इच्छा ज्ञान की 

आनंद व प्रेम की !

शुभ की इच्छा ...जगे भीतर 

वह परम से मिलाती है !

मुक्ति का स्वाद चखाती है 

निर्द्वन्द्व होकर गगन में 

चेतना को उड़ना सिखाती है 

शुभेच्छा ही देवी माँ है 

जो शिव की प्रिया है ! 

 


सोमवार, अगस्त 10

मन पंकज बन खिल सकता था !


मन पंकज बन खिल सकता था


 

तन कैदी कोई मन कैदी 

कुछ धन के पीछे भाग रहे, 

तन, मन, धन तो बस साधन हैं 

बिरले ही सुन यह जाग रहे !

 

रोगों का आश्रय बना लिया 

तन मंदिर भी बन सकता था, 

जो मुरझा जाता इक पल में  

मन पंकज बन खिल सकता था ! 

 

यदि दूजों का दुःख दूर करे 

वह धन भी पावन कर देता, 

जो जोड़-जोड़ लख खुश होले  

हृदय परिग्रह से भर लेता !

 

जब  विकल भूख से हों लाखों 

 मृत्यू का तांडव खेल चले, 

क्या सोये रहना तब समुचित 

पीड़ा व दुःख हर उर में पले !

 

मुक्ति का स्वाद चखे स्वयं जो  

औरों को ले उस ओर चले, 

इस रंग बदलती दुनिया में 

कब कहाँ किसी का जोर चले !

 


गुरुवार, जुलाई 9

इक अनंत आकाश छुपा है

इक अनंत आकाश छुपा है 

इक अनंत आकाश छुपा है 
ऋतु बासन्ती बाट जोहती, 
अंतर की गहराई में ही 
छिपा सिंधु का अनुपम मोती !

दिल तक जाना है दिमाग से 
भाव जगे, छूटें उलझन से, 
कुशल-क्षेम का राग मिटे अब 
मुक्ति पा लें सभी अभाव से !

मिटे नहीं जब खुद से दूरी
दिखे आवरण, उलझा आशय,
उस अनाम में अटल प्रीत हो 
कदम-कदम पर मिले आश्रय ! 



गुरुवार, जून 11

श्रद्धा सुमन

श्रद्धा सुमन 

एक ही शक्ति एक ही भक्ति 
एक ही मुक्ति एक ही युक्ति 
एक सिवा नहीं दूजा कोई 
एकै जाने परम सुख होई

तुझ एक से ही सब उपजा है 
यह जानकर हमें पहले तृप्त होना है भीतर 
फिर द्वैत के जगत में आ 
आँख भर जगत को देखना है 
हर घटना के पीछे तू ही है 
हर व्यक्ति के पीछे तेरी अभिव्यक्ति 
हर वस्तु की गहराई में तेरी ही सत्ता है 
यह जानकर झर जाती हैं 
कामनाएं हृदय वृक्ष से 
सूखे पत्तों की तरह 
और फूटने लगती हैं नव कोंपलें 
श्रद्धा का पुष्प खिलता है 
नेह का पराग झरता है 
अनुराग की सुवास उड़ती है 
जो जरूर पहुँचती होगी तुझ तक !

मंगलवार, जून 9

का मना ?

का मना ?

क्या है मन में 
दो ही तो हैं यहाँ
एक ‘मैं’ दूजा ‘तू’
 ‘मैं’ है, तो यही कामना है  
अर्थात बंधन
 यदि ‘तू’ है तो मुक्ति !

‘मैं’  किसी का बचता नहीं 
‘तू’ कभी मिटता नहीं 
‘मैं’ लहर है ‘तू’ सागर है 
‘मैं’ किरण है ‘तू’ दिनकर है 
‘मैं’ युक्त है तुझसे पर जानता नहीं 
‘मैं’ कुछ नहीं ‘तू’ के बिना पर मानता नहीं 
‘मैं’ अँधेरा है ‘तू’ ज्योति है 
‘मैं’ दुई है ‘तू’ एकता है 
‘मैं’ मरे तो ‘तू’ हो जाता है 
‘तू’ रहे तो ‘मैं’ खो जाता है 

दो ही तो हैं वहाँ 
एक माया दूजा हरि 
माया ‘मैं’ को नचाती है 
हरि माया को छवाते हैं 
माया को हटा दो तो 
हरि सम्मुख आते हैं 
भक्त यह राज समझ जाते हैं 
उन्हें एक ही नजर आता है 
ज्ञानी यह भेद खोल देते हैं 
हरि उनका ‘मैं’ ही बन जाता है 

दो ही तो हैं जीवन में 
एक उत्सव दूजा संघर्ष 
जीवन एक उत्सव है जब ‘तू’ बड़ा है 
संघर्ष है जब ‘मैं’ खड़ा है 
जीवन एक लीला है 
जब माया की धुंध छंट जाती है 
एक पहेली है जब तक कामना सताती है 
कामना से अमना होने की यात्रा है साधना 
भावना से निरन्तर सुख पाना ही भक्ति ! 

गुरुवार, जुलाई 12

नदिया सा हर क्षण बहना है



नदिया सा हर क्षण बहना है



ख्वाब देखकर सच करना है 
ऊपर ही ऊपर चढ़ना है,  
जीवन वृहत्त कैनवास है 
सुंदर सहज रंग भरना है !

साथ चल रहा कोई निशदिन 
हो अर्पित उसको कहना है,
इक विराट कुटुंब है दुनिया 
सबसे मिलजुल कर रहना है !

ताजी-खिली रहे मन कलिका
नदिया सा हर क्षण बहना है,
घाटी, पर्वत, घर या बीहड़ 
भीतर शिखरों पर रहना है !

वर्तुल में ही बहते-बहते 
मुक्ति का सम्मन पढ़ना है,
फेंक भूत का गठ्ठर सिर से 
हर पल का स्वागत करना है !

जुड़े ऊर्जा से नित रहकर 
अंतर घट में सुख भरना है,  
छलक-छलक जाएगा जब वह 
निर्मल निर्झर सा झरना है !

सोमवार, जुलाई 10

मानव और परमात्मा


मानव और परमात्मा

मुक्ति की तलाश करे अथवा ऐश्वर्यों की
परमात्मा होना चाहता है मानव
या कहें ‘व्यष्टि’ बनना चाहता है ‘समष्टि’
प्रभुता की आकांक्षा छिपी है भीतर
पर कृपण है उसका स्नेह
जो प्रेम में नहीं बदलता
बदल भी गया तो धुंधला-धुंधला है  
पावन है यदि प्रेम तो धुआं नहीं देगा दर्द का
अग्नि सम जला देगा हर द्वैत को
जिसकी चट्टान ही
नहीं पनपने देती आत्म के बीज को 
  जो खिलकर अस्तित्त्व से एक हो  
धरा-आकाश, जड़-चेतन से एक
शुद्ध प्रेम ही खिलायेगा श्रद्धा का फूल
  उड़ेल दी श्रद्धा जब उसके चरणों में
तब जन्मेगी भक्ति
  बनेगा भक्त.. भगवान भी उसी क्षण !

शुक्रवार, मार्च 27

नेह घट सजाने हैं

नेह घट सजाने हैं

आशा के नहीं आस्था के दीप जलाने हैं
आकाश कुसुम नहीं श्रद्धा पुष्प खिलाने हैं,
हर लेंगे तम, जो भर देंगे सुवास मन में
प्रीत की अल्पना पर नेह घट सजाने हैं !

मोहपाश तोड़कर मुक्ति राग बज उठें
गगन में उड़ान भर मन मयूर गा उठें,
पाषणों से ढके स्रोत जो सिमटे थे
हुए प्रवाहित अबाधित वे बह निकलें !

छाए बहार चहुँ ओर मिटे तम घट का
झांकें क्या है पार खोल पट घूँघट का,
जो न गाए गीत कभी न राग जगे
परिचय कर लें आज नये उस स्वर का !  

सोमवार, सितंबर 1

कौन हो तुम

कौन हो तुम 

मृत्यु पाश में पड़ा
एक देह छोड़
अभी सम्भल ही रहा था...
कि गहन अंधकार में बोया गया
नयी देह धरा में
शापित था रहने को
उसी कन्दरा में
बंद कोटर में हो जाये ज्यों पखेरू
कैद पिंजर में हो जाये कोई पशु
एक युग के समान था
वह नौ महीनों का समय...

...और फिर आया.. मुक्ति का क्षण..
अपार पीड़ा के बाद
हुआ प्रकाश का दर्शन
मुंद-मुंद जाती थीं आँखें
और तब पेट में पहली बार
उठी वह मरोड़..
मांग हुई भोजन की
कोमल स्पर्श, ऊष्मा और गर्म पेय
पाकर तृप्त हुआ तन
और पड़ा मन पर एक नया संस्कार
रख दी गयी थी नींव उसी क्षण..
एक और जन्म की..
स्मृतियाँ पूर्व की
होने लगीं गड्ड मड्ड
पहचान में आने लगे नए चेहरे
बाल... किशोर.. युवा होते होते
मन ने छोड़ दिया आश्रय मेरा
जैसे छोड़ जाते हैं घरौंदा, पक्षी शावक
हो गया कैद अपने ही कारावास में
जिसकी दीवारें थीं
ऊँची और ऊँची होती हुई महत्वाकांक्षाएं..
कामनाओं.. और लालसाओं.. की छत के नीचे
विषय रूपी चारे को चुग कर
फंसता गया जाल में वह एक नादान पंछी की नाईं
जैसे किसी निर्जन द्वीप पर अकेला फेंक
दिया गया हो
कैद था मन अपने ही भीतर
और यहाँ बात कुछ महीनों की नहीं थी...
जैसे वीणा के टूटे तार
व्यर्थ हैं, व्यर्थ है खाली गागर
व्यर्थ ही बुन रहा था
जाल सपनों के...
और एक दिन..
वह चुप था बेखबर अपने आप से
मैंने झाँका..
उसे खबर तक न हुई मेरे आने की
वरना झट धकेल दिया जाता
मैं उसके साम्राज्य से
मैंने पीछे से समेट लिया उसे
सकपकाया सा बोला, क्या करते हो ?
बुद्धि भी चकराई
उसे यह हरकत पसंद न आई
मैंने सुनी अनसुनी कर दी
क्योकि मन पिघल रहा था मेरे सान्निध्य में
कुछ देर ही चला यह खेल
फिर मैं लौट आया
लेकिन अब मुझे जब-तब सुनाई देती एक पुकार
मन की पुकार
जो पहली बार तृप्त हुआ था मुझसे मिलकर
तुम कौन हो ?
कौन हो तुम ?
कहाँ हो ?
फुसफुसाता हूँ मैं, सुनो
मैं तुम हूँ
मैं वही चेतना हूँ
जो विचार बन कर दौड़ रही है
श्वास बन कर जीवित है
मैं अनंत प्रेम, अनंत शांति और अनंत आनंद हूँ...
लेकिन मेरी आवाज नहीं सुन पाता मन...
कोई सुख बिना कीमत चुकाए नहीं मिलता
प्रतिष्ठा बढ़ाने को बोले गए झूठ
किये गए फरेब
कर्मों के जाल में कैद हुआ
व्यर्थ के मोह जाल में फंसा
असूया के पंक में धंसा
सुख पाने की आकांक्षा में
बोता गया दुःख के बीज...
मन द्वन्द्वों का दूसरा नाम है..
कभी कभी थक कर पुकार लेता है मुझे
और पश्चाताप कर हो जाता है नया
पुनः एक नया खेल खेलने के लिये...
मैं प्रतीक्षा रत हूँ
कब थकेगा वह
कब लौटेगा मुझ तक
कब ..?