गुरुवार, जून 25

अपने ही घर में जो बैठा



 अपने ही घर में जो बैठा

इतने बड़े जहाँ में अपना
नहीं ठिकाना बन पाया,
टूट के सबसे खुद को ढूँढा
सबको खुद में ही पाया !

पास ही था वह मीत खड़ा
हाथ बढ़ाकर छू लेते,
लेकिन रूह को हर ख्वाहिश से
हमने खाली ही पाया !

छुपे हुए थे जाने कितने
ख्वाब खजानों से भीतर,
सदा लुटाया है गीतों को
हमने जी भर भर गाया !

नहीं चुकेगा रस्ता उसका
जो तिल भर भी दूर नहीं,
अपने ही घर में जो बैठा
उसको कहाँ कहाँ पाया !

गुरुवार, जून 18

वही एक है

वही एक है



एक मधुर धुन वंशी की ज्यों
एक लहर अठखेली करती,
एक पवन वासन्ती बहकी
एक किरण कलियों संग हँसती !

एक अश्रु चरणों पर पावन
एक दृष्टि हर ले जो पीड़ा,
 एक परस पारस का जैसे
एक शिशु करता हो क्रीड़ा !

एक परम विश्राम अनूठा
एक दृश्य अभिराम सजा हो,
एक स्वप्न युगों तक चलता  
एक महावर लाल रचा हो !

एक मन्त्र गूँजे अविराम
एक गीत लहरों ने गाया,
एक निशा सोयी सागर पर
एक उषा की स्वर्णिम काया !

बुधवार, जून 17

मंजिल और रस्ता


मंजिल और रस्ता 

लगता है यूँ सफर की.. आ गयी हो मंजिल
या यह भी इक ख्याल ही निकलेगा दिलों का

यूँ ही चले थे उम्र भर मंजिल पे खड़े थे
अब लौट के पहुंचे जहाँ वह अपना ही घर था

रस्ते में खो गयी गठरी जो ले चले
राही भी न बचा रस्ता भी खो गया सा 

अब एक ही रहा है चुप सी ही इक लगाये
कहने को कुछ नहीं है यूँ मौन बह गया 

शुक्रवार, जून 12

राहे जिंदगी में

राहे जिंदगी में

न तू है न मैं बस एक ख़ामोशी है
इश्क की राह पर यह कैसा मोड़ आया

न ख्वाहिश मिलन की न विरह का दंश
राहे जिंदगी में कैसा मुकाम आया

एक ठहराव सा कोई सन्नाटा पावन
सफर में यह अनोखा इंतजाम पाया

पत्ते-पत्ते पर लिखी है कहानी जिसकी
हर श्वास पर उसी का अधिकार पाया 

बुधवार, जून 10

आषाढ़ की एक रात



आषाढ़ की एक रात


बरस बरस दिन भर
पल भर विश्राम लेते बादल
ठिठक गये हैं अम्बर पर
अँधियारा छाया है नीचे ऊपर
बेचैन होंगे चाँद, तारे भी
झांक लें धरा
गा रहे जो गीत झींगुर, सुनने
उसे जरा
युगलबंदी मेढकों की
जुगनुओं की सुप्रभा
रातरानी की महक
जो उड़ रही है हर कहीं
रात अंधियारी लुभाती
नम हुई हर श्वास भी !

सोमवार, जून 8

रौशनी का दरिया


चलना है बहुत पर पहुँचना कहीं नहीं  
किताबे-जिंदगी में आखिरी पन्ना ही नहीं

घर जिसे माना निकला पड़ाव भर
सितारों से आगे भी है एक नगर

दिया हाथ में ले चलना है सफर पर
साथ नहीं कोई न कोई फिकर कर

जुबां नहीं खोलता वह चुप ही रहता है
रौशनी का दरिया खामोश बहता है

बिन बदली बरखा बिन बाती दीपक जलता
कहा न जाये वर्तन कभी न वह सूरज ढलता  

शुक्रवार, जून 5

विश्व पर्यावरण दिवस पर शुभकामनायें

विश्व पर्यावरण दिवस पर शुभकामनायें


रोज भोर में
चिड़िया जगाती है
झांकता है सूरज झरोखे से
पवन सहलाती है
दिन चढ़े कागा
पाहुन का लाये संदेस
पीपल की छाँव
अपने निकट बुलाती है
गोधूलि तिलक करे
गौ जब रम्भाती है
झींगुर की रागिनी
संध्या सुनाती है
नींद में मद भरे
रातरानी की सुवास
प्रातः से रात तक
प्रकृति लुभाती है !

नदियाँ दौड़ती हैं सागर तक
देती सौगातें राह भर
अवरुद्ध करे निर्मल धारा
मानव क्यों स्वार्थ कर
अपना ही भाग्य हरे
प्रकृति का चीर हरे !

बुधवार, जून 3

नई नकोर कविता


नई नकोर कविता

बरसती नभ से महीन झींसी
छू जाती पल्लवों को आहिस्ता से
ढके जिसे बादलों की ओढ़नी
झरती जा रही फुहार
उस अमल अम्बर से !
छप छप छपाक खेल रहा पाखी जल में
लहराती हवा में लिली और
रजनीगन्धा की शाखें
गुलाब निहारता है जग को भर-भर आँखें
हरी घास पर रंगोली बनाती
 गुलमोहर की पंखुरियां
भीगे-भीगे से इस मौसम में
खो जाता मन 
संग अपने दूर बहा
ले जाती ज्यों पुरवैया...