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बुधवार, अक्टूबर 30

एक दीप अंतर करुणा का

एक दीप अंतर करुणा का


दीप जलायें शुभ स्मृतियों के 

स्मरण करें राघव, माँ सीता,

इस बार दिवाली में हम मिल 

वरण करें कान्हा की गीता !


 साधें सुमिरन आत्मज्योति का

सुदीप जलायें दिवाली में, 

याद करें सभी प्रियजनों को 

जो अंतर में गहरे बसते  ! 


 अवतारों, सिद्धों को पूजा 

 स्मृति में उनकी ज्योति जलायें,  

करुणामय माँ, परम पिता की  

याद का दीप जले हृदय में !


चैतन्य का दीपक प्रज्ज्वलित 

अपने लक्ष्यों को याद करें, 

मंज़िल तक राहों पर पग-पग 

दीप जलायें संकल्पों के ! 


बहे उजियाला संतोष  का 

आशा का भी दीप जलायें,

दीप जलायें उसी स्नेह से 

पिघल-पिघल जो बहे ह्रदय से !


इस धरती को रोशन कर दे 

भाव व्यक्त हों, बहे उजाला, 

दीप जले श्रद्धा का अनुपम  

एक दीप अंतर करुणा का !




शनिवार, जून 15

जीवन रहे बुलाता हर पल

जीवन रहे  बुलाता हर पल


​​भीतर इक संसार दूसरा 

शायद  यह जग कभी न जाने, 

इस जीवन में राज छिपे हैं 

लगे सभी हैं जिन्हें छिपाने !


लेकिन इसी अँधेरे में इक 

दीप जला करता है निशदिन, 

देख न पाते, कहीं दूर है 

खुला जो नहीं तीसरा नयन !


कोई कहाँ जान सकता है 

मन की दुनिया बड़ी निराली, 

यूँ ही नहीं सुनाते आगम 

अंधकार ने ज्योति चुरा ली !


फिर भी यह श्वासें चलती हैं 

चाहे लाख तमस ने घेरा, 

 कैसे अर्थवान हो जीवन 

इसी प्रश्न ने डाला डेरा !


कोई पीछे खड़ा हँस रहा 

जीवन रहे बुलाता हर पल, 

रंग-बिरंगी इस दुनिया की 

याद दिलाती है हर हलचल !  


कितना गहरे और उतरना 

 अभी सफ़र बाकी है कितना, 

जहां पुष्प प्रकाश के खिलते 

जहाँ बसा अपनों से अपना ! 


बुधवार, मार्च 13

जीवन

जीवन 

इतनी शिद्दत से जीना होगा 

जैसे फूट पडती है कोंपल कोई

सीमेंट की परत को भेदकर,

ऊर्जा बही चली आती है जलधार में

चीर कर सीना पर्वतों का 

या उमड़-घुमड़ बरसती है 

बदली सावन की !


न कि किसी जलते-बुझते 

दीप की मानिंद 

या अलसायी सी 

छिछली नदी की तरह पड़े रहें

 और बीत जाये जीवन... का यह क्रम

लिए जाए मृत्यु के द्वार पर

 खड़े होना पड़े सिर झुकाए

देवता के चरणों में चढ़ाने लायक

फूल तो बनना ही होगा

इतनी शिद्दत से जीना होगा…!


मंगलवार, दिसंबर 27

उजियारा मन बाती कारण


उजियारा मन बाती  कारण


देह दीप माटी का जैसे

उजियारा मन बाती  कारण, 

स्नेह प्राण का, ज्योति आत्म की 

जग को किया  उसी ने धारण !


दीपक छोटे, बड़े क़ीमती 

मन भी भिन्न क्षमता की  बात, 

प्राणों में बल घटता-बढ़ता 

किंतु ज्योति है एक दिन-रात !


उसी ज्योति की ओर चले थे 

ऋषि ने जब तमसो गाया था, 

वही ज्योति शुभ मार्ग दिखाती 

महाजनों को जो भाया था !





गुरुवार, जुलाई 21

अंतर में इक दीप जलाये

अंतर में इक दीप जलाये


खुद का खुद से मिलना कैसा 

कली-पुष्प में खिलने जैसा, 

लहर सिंधु में ज्यों खो जाये 

सुरभि चमन में भरने जैसा !


नभ में कोई खुले झरोखा 

जल का इक सरवर दिख जाये, 

छुपी शिला में मूरत कोई 

मन की आँखों से लख जाये !


ध्वनियों का इक मधुरिम आकर 

निशदिन कोई तान सुनाये, 

अम्बर में अनगिन सूरज हैं 

अंतर में इक दीप जलाये !


पलक झपकते ही जैसे यह 

जग पल में विलीन हो जाता, 

अद्भुत मिलन घटे जब तुझसे 

जगत कहीं नजर नहीं आता !


गुरुवार, सितंबर 2

देह दीप में तेल हृदय यह


देह दीप में तेल हृदय यह


ज्योति पुष्प उर के उपवन में 

खिला सदा है उसे निहारें,

सुख का सागर भीतर बहता 

सदा रहा है उसे पुकारें !


नयनों में उसी का उजाला 

अंतर में विश्वास बना है, 

वही चलाता दिल की धड़कन 

रग-रग में उल्लास घना है !


ज्योति वह दामिनी बन चमके 

सूर्य चंद्रमा में भी दमके, 

उसी ज्योति से पादप,पशु हैं 

वही ज्योति हर जड़ चेतन में !


देह दीप में तेल हृदय यह 

ज्योति समान आत्मा ही है, 

माटी का हो या सोने का 

दीपक आख़िर दीपक ही है !


ऐसे ही हैं तेल जगत में 

कुछ सुवास से भरे हुए मन, 

कई आँखों में धुआँ भरते 

किंतु ज्योति न होती कभी कम !

बुधवार, फ़रवरी 3

अब भी उस का दर खुला है

अब भी उस का दर खुला है 


खो दिया आराम जी का 

खो दिया है चैन दिल का,

दूर आके जिंदगी से 

खो दिया हर सबब कब का !


गुम हुआ घर का पता ज्यों

भीड़ ही अब नजर आती,

टूटकर बैठा सड़क पर 

घर की भी न याद आती !


रास्तों पर कब किसी के 

फैसले किस्मत के होते, 

कुछ फ़िकर हो कायदों की 

हल तभी कुछ हाथ आते !


दूर आके अब भटकता 

ना कहीं विश्राम पाता, 

धनक बदली ताल बदली 

हर घड़ी सुर भी बदलता !


अब भी उस का दर खुला है 

जहाँ हर क्षण दीप जलते, 

अब भी संभले यदि कोई 

रास्ते कितने निकलते !

 

सोमवार, अक्टूबर 5

बरसेगा वह बदली बनकर

 बरसेगा वह बदली बनकर 

उर में प्यास लिए राधा की 

कदमों में थिरकन मीरा की, 

अंतर्मन में निरा उत्साह 

उसकी बांह गहो !


जीवन की आकुलता से भर 

प्राणों की व्याकुलता से तर, 

लगन जगाए उर में गहरी 

नित नव गीत रचो !


बाँटो जो भी पास तुम्हारे 

कोई हँसी दबी जो भीतर, 

शैशव की वह तुतलाहट भी 

खिल कर राह भरो !


झर जाने दो पीले पत्ते 

सारे दुःख अपने अंतर से, 

तोड़ श्रृंखला जन्मों की हर 

दिल की बात कहो !


दीप जलाये प्रीत का सुंदर 

पग रखो फिर उसके पथ पर, 

गिर जाने दो हर भय, संशय 

उसकी चाह करो !


अब वह मन्दिर दूर नहीं है 

दूरी या देरी होने पर 

किन्तु न करना रोष जरा भी 

उसकी राह तको !


बरसेगा वह बदली बनकर 

कभी प्रीत की चादर तनकर,

ढक लेगा अस्तित्व् को सारे 

उसके संग रहो !


रविवार, अगस्त 2

रौशनी बन झर रहा तू

रौशनी बन झर रहा तू


चैन दिल का, सुकूं मेरा 
प्रीत का सागर रहा है,
जहाँ रुकते कदम, झुकते 
नयन, तेरा दर रहा है !

कहाँ जाना क्या पाना 
तू ही मंजिल बन मिला है, 
तेरे दम से छूट गम से 
मन पंकज यह खिला है !

दीप जलते हैं हजारों 
रौशनी बन झर रहा तू, 
बह रहा बन एक दरिया 
प्यास खुद की भर रहा तू !

नित लुटाता मोतियों सा 
इक खजाना जिंदगी का, 
खोल देता ख़ुशी-गम में 
राज अपनी बन्दगी का !

सोमवार, अप्रैल 15

सुरमई शाम ढली




सुरमई शाम ढली


खग लौट चले निज नीड़ों को
भरकर विश्वास सुबह होगी !

बरसेगा नभ से उजियारा
फिर गगन परों से तोलेंगे,
गुंजित होगा यह जग सारा
जब नाना स्वर में बोलेंगे !

इक रंगमंच जैसे दुनिया
हर पात्र यहाँ अभिनय करता,
पंछी, पादप, पशु, मानव भी
निज श्रम से रंग भरा करता !

किससे पूछें ? हैं राज कई
कब से ? कहाँ हो पटाक्षेप,
बस तकते रहते आयोजन
विस्मय से आँखें फाड़ देख !

अंतर में जिसने प्रश्न दिए
उत्तर भी शायद वहीं मिलें,
कभी नेत्र मूँद हो स्थिर बैठ
मन के सर्वर में कमल खिलें !

बस खो जाते हैं प्रश्न, नहीं
उत्तर कोई भी मिलता है,
इक मीठा-मीठा स्वाद जहाँ
इक दीप अनोखा जलता है !

बाहर उत्सव भीतर नीरव
कुछ कहना और नहीं कहना,
अंतर से मधुरिम धारा का
 धीमे-धीमे से बस बहना !


मंगलवार, अक्टूबर 30

जगमग दीप दीवाली के


जगमग दीप दीवाली के


कुछ कह जाते
 कुछ दे जाते
सरस पावनी
ज्योति बहाते
जगमग दीप दीवाली के !

संदेसा गर
कोई सुन ले
कही-अनकही
भाषा पढ़ ले
शीतल मधुरिम 
अजिर उजाला
कोने-कोने
में भर जाते
जगमग दीप दीवाली के !

पंक्ति बद्ध
सचेत प्रहरी से
तिमिर अमावस
का हर लेते
खुद मिट कर
उजास बरसाते
रह अकम्प
थिरता भर जाते
जगमग दीप दीवाली के !

सोमवार, सितंबर 11

रस मकरंद बहा जाता है


रस मकरंद बहा जाता है

अंजुरी क्यों रिक्त है अपनी 
रस मकरंद बहा जाता है,
साज नवीन सजे महफिल में 
सन्नाटा क्यों कर भाता है !  

रोज भोर में भेज सँदेसे 
गीत जागरण वह गाता है, 
ढांप वसन करवट ले मनवा 
खुद से दूर चला जाता है ! 

त्याज्य हुआ जो यहाँ अभीप्सित 
हाल अजब न कहा जाता है, 
बैठा है वह घर के अंदर
जान सुदूर छला जाता है ! 

मुख मोड़े ही बीता जीवन 
बिन जिसके न रहा जाता है, 
क्यों कर दीप जले अंतर में 
सारा स्नेह घुला जाता है !



शुक्रवार, अगस्त 18

स्वप्न देखे जगत सारा

स्वप्न देखे जगत सारा 

झिलमिलाते से सितारे
झील के जल में निहारें,
रात की निस्तब्धता में
उर उसी पी को पुकारे !

अचल जल में कीट कोई
कोलाहल मचा गया है,
झूमती सी डाल ऊपर
खग कोई हिला गया है !

दूर कोई दीप जलता
राह देखे जो पथिक की,
कूक जाती पक्षिणी फिर
नींद खुलती बस क्षणिक सी !

स्वप्न देखे जगत सारा
रात्रि ज्यों भ्रम जाल डाले,
कालिमा के आवरण में
कृत्य कितने ही निभा ले !