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शुक्रवार, अगस्त 15

पंख मिले इसके सपनों को


भारत के उन्यासिवें स्वतंत्रता दिवस पर 

हार्दिक शुभकामनाओं सहित 


रोक सकेगा नहीं विश्व यह 

भारत के बढ़ते कदमों को, 

विश्व आज पीछे चलता है 

पंख मिले इसके सपनों को !


जहाँ कदम रखे ना किसी ने 

दूर चाँद को छू कर आया, 

देश की सीमाएँ सुरक्षित 

दुश्मन जिसको भेद न पाया !


हरित ऊर्जा में है अग्रिम 

पर्यावरण की अति परवाह, 

विकसित होने की भारत के 

जर्रे-जर्रे में भरी चाह ! 


अध्यात्म का मार्ग दिखलाता 

योग सभी को सिखलाया है, 

संपन्नता व समृद्धि में भी 

पहले पाँच में यह आया है !


लेते हैं संकल्प आज, हर 

 क्षमता का उपयोग करेंगे, 

भारत के बढ़ते कदमों को 

कभी न पीछे हटने देंगे !


मंगलवार, दिसंबर 28

हो निशब्द जिस पल में अंतर


हो निशब्द जिस पल में अंतर

शब्दों से ही परिचय मिलता

उसके पार न जाता कोई,

शब्दों की इक आड़ बना ली

कहाँ कभी मिल पाता कोई !

 

ऊपर-ऊपर यूँ लगता है

शब्द हमें आपस में जोड़ें,

किन्तु कवच सा पहना इनको

बाहर ही बाहर रुख मोड़ें !

 

भीतर सभी अकेले जग में

खुद ही खुद से बातें करते,

एक दुर्ग शब्दों का गढ़ के

बैठ वहीं से घातें करते !

 

खुद से ही तो लड़ते रहते

खुद को ही तो घायल करते,

खुद को सम्बन्धों में पाके

खुद से ही तो दूर भागते !

 

हो निशब्द जिस पल में अंतर

एक ऊष्मा जग जाती है,

दूजे के भी पार हुई जो

उसकी खबर लिए आती है !

 

दिल से दिल की बात भी यहाँ

उसी मौन में घट जाती है,

शब्दों की सीमा बाहर है

भीतर पीड़ा छंट जाती है !

 

कोरे शब्दों से न होगा

मौन छुपा हो भीतर जिनमें,

वे ही वार करेंगे दिल पर

सन्नाटा उग आया जिनमें !


सोमवार, जुलाई 12

चंद ख़्याल


चंद ख़्याल 



पाया हुआ है सब जो खोजते हैं हम 
शब्दों में ज्ञान बसता दिल का था भरम 
-
जाना हुआ सभी कहता है छोटा मन 
कोई कमी नहीं तो फिर क्यों करे जतन 
-
छोड़ा यहाँ बाँधा वहाँ 
मुक्ति से डरता है जहां 
-
मुश्किलों से डर जो ख़ुदा के द्वार आए 
पाए नहीं उसे बस पीड़ा को बढ़ाए 
-
स्वप्नों में भयभीत हुआ मन 
सीमाओं में खुद को बाँधा 
  कहीं नहीं थी कोई सीमा
जब भी आँख खोल कर देखा 

गुरुवार, मई 14

शब्द जाल

शब्द जाल

शब्दों के जाल में मन का पंछी फंस गया है 
मात्र शब्द हैं वे पर दंश उनका डस गया है 
शब्द हजार हों या लाख 
फिर भी उनकी सीमा है 
मौन हर हाल में उनसे बड़ा है 
हाँ, स्वर उसका अति धीमा है 
शब्दों से ज्ञान मिलेगा 
कितना बड़ा भ्रमजाल फैलाया है
ज्ञान अनंत है भला चन्द शब्दों में कहीं वह समाया है 
तभी ऐसा कहा जा सकता है 
हैं ‘राम’ में तीन लोक समाए 
ताकि शब्दों के जाल से मुक्त हुआ जाए !

गुरुवार, अक्टूबर 30

प्राणों में बसंत छाएगा

प्राणों में बसंत छाएगा


फूल चढ़ाए जाने कितने
फिर भी दूर रहा वह प्रियतम,
प्राणों में बसंत छाएगा
अर्पित होगी जिस पल धड़कन !

कोरा कोरा नाम जपा था
फिर कैसे रस उपजे बाड़ी,
उससे भी तो जग ही माँगा
निर्झर बहा न विकसी क्यारी !

वह तो लुटने को है आतुर
यहाँ जमाए अपनी धूनी,
कैद किया सीमा में खुद को
हर कोई बन गया अलूनी !

कतरा कतरा रस में भीगा
रग रग में बह रहा छंद सा,
मंद स्वरों में रुनझुन गूँजे
जैसे झरता फूल गंध सा  !

क्यों फिर दूर रहे जग उससे
भेद न जाने विस्मित अंतर,
जहाँ सुखों की लहर दौड़ती
वहाँ गमों सा लगे समुन्दर !







शुक्रवार, सितंबर 19

यायावर का गीत

यायावर का गीत


जग चलता है अपनी राह
उसने लीक छोड़ दी है,
है मंजूर अकेले रहना
हर जंजीर तोड़ दी है !

सदियों घुट-घुट जीता आया
माया के बंधन में बंधकर,
अब न दाल गलेगी उसकी
रार ठनेगी उससे जमकर !

कितनी सीमायें बांधी थी 
जब पहचान नहीं थी निज से,
कितने भय पाले थे उर में
जब अंजान रहा था उस से !

कैसे कोई रोके उसको
दरिया जो निकला है घर से,
सागर ही उसकी मंजिल अब
बाँध न कोई भी गति रोके !

गुरुवार, अगस्त 14

स्वतन्त्रता दिवस पर हार्दिक शुभकामनायें

स्वतन्त्रता दिवस पर हार्दिक शुभकामनायें 

आजादी ! आजादी ! आजादी !
मांग है सबकी आजादी,
कीमत देनी पड़ती सबको
फिर भी चाहें आजादी !

नन्हा बालक कसमसाता
हो मुक्त बाँहों से जाने,
किशोर एक विद्रोह कर रहा
माता-पिता के हर नियम से !

नहीं किसी का रोब सहेंगे
तोड़-फोड़ कर यही दिखाते,
हड़तालों से और नारों से
अपनी जो आवाज सुनाते !

इस आजादी में खतरे हैं
बंधन की अपनी मर्यादा,
एक और आजादी भी है
जब बंधन में भी मुक्त सदा !

ऊपर का बंधन तो भ्रम है
मन अदृश्य जाल में कैदी,
उस जाल को न खोला तो
ऊपर की मुक्ति भी झूठी !

छोड़-छाड सब भाग गया जो
सन्यासी जो मुक्त हुआ है,
मन के हाथों बंधा है अब भी
उसको केवल भ्रम हुआ है !

 उस असीम की चाह बुलाती
मानव कैद का अनुभव करता,
निमित्त बनता बाहरी बंधन  
असल में उसका मन बांधता !

जिसका रूप अनंत हो व्यापक
कैसे वह फिर कैद रहे,
खुला समुन्दर जैसा है जो
क्योंकर सीमाओं में बहे !

मुक्ति का संदेश दे रहे
खुले व्योम में उड़ते पंछी,
मत बांधो पिंजर में मन को
गा गा गीत सुनाते पंछी ! 

जिसके लिये गगन भी कम है
उसे कैद करते हो तन में,
जो उन्मुक्त उड़ान चाहता
कैसे वह सिमटेगा मन में !

पीड़ा यही, यही दुःख साले
सारे बंधन तोड़ना चाहे,
लेकिन होती भूल यहाँ है
असली बंधन न पहचाने !


सोमवार, जून 2

घट-घट में आकाश बंट रहा


घट-घट में आकाश बंट रहा


धूप बंट रही पोखर-पोखर
भर जाती खेतों को छूकर
हवा बंट रही अनगिन उर में
जाती खिल-खिल जीवन बनकर
जल बंटता अवनि अम्बर में
धरा बंट रही पादप रचकर
घट-घट में आकाश बंट रहा
फिर क्यों हम अनबंटे रह गये
सीमाओं में छंटे रह गये ?
जो बंट जाता वही बचा है
ऐसा ही यह खेल रचा है
एक अनेकों रूप बनाये
हर इक स्मित में मुस्का जाये !

रविवार, फ़रवरी 16

इंतजार इक नयनों में पलने देना

इंतजार इक नयनों में पलने देना


कुछ करना कुछ ना करने की जिद करना
अच्छा है खुद से सब कुछ होने देना

करने में सीमा होगी श्रम भी होगा
अच्छा है बस उसको ही करने देना

जैसे कलियाँ फूल बनी इतराती हैं
किस्मत वाले बन सब कुछ घटने देना

क्या करना जब खबर नहीं कोई इसकी
इक मुस्कान न अधरों से हटने देना

खाली होकर कभी-कभी तो बैठ रहो
मिलजुल रहना रार नहीं तनने देना

हर दिन कुदरत एक चुनौती लाएगी  
दोनों बाहें फैला कर स्वागत करना

कितनी देर लगेगी उससे मिलने में
हौले से बस पलकों को खुलने देना

शुभ करने का दिल चाहे कर ही लेना
पछतावे से दिल का न आँगन भरना

खुला रहे हर पल ही दरवाजा मन का
भेद छिपा कर नहीं कभी उससे रखना

जीवन भर भी मिलने में है लग सकता
एक प्रतीक्षा अंतर में झरने देना






बुधवार, अक्टूबर 9

तृप्ति भीतर ही पलती


तृप्ति भीतर ही पलती



एक यात्रा बाहर की है
एक यात्रा भीतर चलती,
बाहर सीमा राहों की है
अंतर में असीमता मिलती !

बाहर प्रायोजित है सब कुछ
 भीतर सहज घटे जाता है,
एक थकन ही शेष है बाहर
 गहन शांति भीतर घटती !

भ्रम ही बाहर आस बंधाता
 निष्पत्ति में खाली हाथ,
निज घर में पहुंचाती सबको
 कलिका मन की जब भी खिलती !

 अंतहीन हैं चाहें मन की
पूर्ण हुई इक दूजी हाजिर,
 भीतर जाकर ही जाना यह
तृप्ति भीतर ही पलती !

शुक्रवार, जून 17

ब्लॉग जगत के सभी पाठकों को समर्पित


एकत्व जगाती है कविता

कवि को कौन चाहिए जग में
एक सुहृदय पाठक ही तो,
कोई तो हो जग में ऐसा
जो समझे उसकी रचना को !

पाठक पढ़ जब होता हर्षित
कवि और उत्साह से लिखता,
रख देता उंडेल कर दिल को
अंतर का बल उसमें भरता !

कवि शब्दों का खेल खेलता
पाठक उसमें होता शामिल,
सीधी दिल में जाकर बसती 
कविता पूरी होती उस पल !

एकत्व जगाती है कविता
जाने कितने दिल यह जोड़े
देश काल के हो अतीत यह
फैले हर सीमा को तोड़े !

कवि खड़ा होता निर्बल हित
सर्वहारा, वंचित जनता हित,
अंतर भर पीड़ा से उनकी 
विरोध करे अन्याय का नित !

अनिता निहालानी
१७ जून २०११