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सोमवार, जुलाई 8

जीवन सा हो मरण भी सुंदर

जीवन सा हो मरण भी सुंदर

भरे न उर ऊँची उड़ान जब  

बरबस बहे न प्रेमिल सरिता, 

 पाँवों में थिरकन न समाये  

जीवन वन सूना सा रहता !


एक मोड़ आये जब ऐसा 

रुखसत पूर्ण ह्रदय से ले लें, 

जीवन को भरपूर जी लिया 

अब स्वयं ही मृत्यु पथ चुन लें !


गहन दुर्दम निद्रा है मृत्यु 

 जीवन सा हो मरण भी सुंदर,

अंतर  का अवसाद मिटाने  

मिला सभी को रहने का घर !


जान लिया हर लक्ष्य जगत का 

जो पाना था पाया हमने, 

पढ़ ही डाले जितने भी थे 

ख़ुशियों और गमों के किस्से !


बने कृतज्ञ इस अस्तित्त्व के 

धीमे से हम आँख मूँद लें, 

जीवन ने कितना कुछ सौंपा 

अब अंतिम ऊँचाई पा लें !


मृत्यु सभी भेदों  से ऊपर 

राजा-रंक सभी मरते हैं, 

खेल ख़त्म हो जाते इसमें 

व्यर्थ मनुज इससे डरते हैं !


जीने की जो कला सीख ले 

सहज मरण के पार हो गया, 

देह और मन के ऊपर जा 

ख़ुद का जब दीदार हो गया !


गुरुवार, अप्रैल 6

अमिलन


अमिलन

लाख मिलाएँ

 शक्कर और रेत 

जैसे नहीं मिलते 

आत्मा और देह वैसे ही हैं 

अंतत: शक्कर भी 

परमाणुओं से बनी है 

रेत की तरह 

देह भी बनी है 

उसी तत्व से जिससे 

आत्मा गढ़ी है 

स्वयं भू ! चिन्मय !

और कोई चुनाव कर सकता है 

सदा ही 

जो स्थूल है 

जिसे देखा, सुना, सूंघा जा सकता है 

दूजी वायवीय जिसमें डूबकर 

वही हुआ जा सकता है 

एक में खुद पर चार चाँद

लगाए जा सकते हैं 

एक में खुद को मिटाया जाता है 

लगाओ लाख तमग़े 

मृत्यु का एक झटका 

सब छीन लेता है 

मिटकर जो मिलता है 

वह रहता है मृत्यु के पार भी 

इसीलिए वेद गाते हैं 

तुम हो वही ! 

शनिवार, अगस्त 27

वीर शहीदों के नाम




वीर शहीदों के नाम 

 त्याग दिया हर सुख जीवन का

मृत्यू को भी गले लगाया,

कैसे धुर दीवाने थे वे 

शुभ देश प्रेम को अपनाया !


भारत माता है गुलाम क्यों 

यह दंश उन्हें अति चुभता था, 

ब्रिटिशों की सह रही  दासता

दर्द बहुत ही यह खलता था ! 


उन बलिदानों की गाथा अब 

हर भारतवासी जन जाने, 

वे जो सच्चे सेनानी थे 

उनकी नव कीमत पहचाने ! 


अनगिन बाधाएँ सहकर भी  

भारत हित वे डटे रहे थे , 

नत हो जाता है हर मस्तक 

उनकी  खातिर जो झुके नहीं ! 


वह शौर्य, तेज, पराक्रमी दिल 

वह अमर भाव बलिदानी का, 

देश आज आजाद हुआ है 

है कृतज्ञ उनकी वाणी का !


भारतमाँ पर त्रस्त आज भी 

भूख, गरीबी,व  अज्ञान से,

अस्वच्छता, बेकारी और 

पाखंड, असत्य, अभिमान से ! 


उन वीरों की हर क़ुरबानी 

व्यर्थ नहीं अब जाने पाए, 

वसुंधरा  का यह महादेश  

पुनः विस्मृत निज  गौरव पाए !


शुक्रवार, मार्च 11

सत्यमेव जयते

सत्यमेव जयते 


सत्य की विजय होती है सदा 

क्योंकि सत्य ही विजय है !

सत्य अग्नि है 

जो हर झूठ को निगल जाती है अंतत: !

सत्य का दामन काँटों भरा लगता है 

पर उल्लास के पुष्प भी वहीं खिलते हैं !

कहते हैं सत्य की राह दुधारी तलवार की तरह होती है 

पर संतुलन की कला  वहीं सीखी जाती है !

सत्य हरेक शै का आधार है 

हरेक के अंतर्मन में  छिपा निर्दोष प्यार है !

असत्य भी सत्य का सहारा लेता है 

नादान रस्सी को ही साँप समझ लेता है 

और सीपी को चाँदी !

सत्य कभी मरता नहीं 

क्योंकि वह कभी जन्मता नहीं 

असत्य बनावट है, जो जन्माया जाता है  

सो एक दिन निश्चित है उसकी मृत्यु ! 


सोमवार, नवंबर 1

मर कर जो जी उठा

मर कर जो जी उठा 


​​जीवन का मर्म खुला 

दूजा जब जन्म हुआ, 

मर कर जो जी उठा 

उसको ही भान हुआ !


मृत्यु का खटका सदा 

कदमों को रोकता, 

‘मैं हूँ’ कुछ बना रहूँ 

भाव यही टोकता !


पल-पल ही घट रही 

मृत्यु कहाँ दूर है, 

मन मारा, तन झरा 

जग का दस्तूर है !


दिल में रख आरजू 

जो खुद में खो  गया, 

पकड़ छोड़ अकड़ छोड़ 

रहे, वही जी गया !


जीवन कब सदा रहे 

त्याग का ही खेल है, 

इस क्षण जो जाग उठे

हुआ उससे  मेल है !

शुक्रवार, अप्रैल 30

घड़ी विचित्र यह दौर अनोखा

घड़ी विचित्र यह दौर अनोखा


जूझ रहा है देश आजकल 

जिस विपदा से वह है भारी,

तुच्छ हुई है सम्मुख उसके 

जो कुछ भी की थी तैयारी !


हैं प्रकृति के नियम अनजाने 

मानव जान, जान न जाने, 

घड़ी विचित्र यह दौर अनोखा 

कभी न पहले ऐसा देखा !


कोटि-कोटि जन होते पीड़ित 

उतनी हम सांत्वना बहायें,

भय आशंका के हों बादल 

श्रद्धा का तब सूर्य जलाएं !


पृथ्वी का जब जन्म हुआ था 

अनगिन बार बनी यह बिगड़ी,  

प्रलय भी झेली, युद्ध अनेक

 महामारियों की विपदा भी !


किन्तु सदा सामर्थ्यवान हो 

विजयी बन वसुधा उभरी है 

इसकी संतानों की बलि भी 

व्यर्थ नहीं कभी भी हुई है 


सब जन मिलकर करें सामना 

इक दिन तो यह दौर थमेगा, 

मृत्यु-तांडव, विनाशी-लीला  

देख-देख मनुज संभलेगा !


जीतेगी मानवता इसमें 

लोभी मन की हार सुनिश्चित, 

जीवन में फिर धर्म जगेगा 

मुस्काएगी पृथ्वी प्रमुदित !


 

शनिवार, अप्रैल 24

वासन्ती प्रभात

 वासन्ती प्रभात 

जन्म और मृत्यु के मध्य 

बाँध लेते हैं हम कुछ बंधन

जो खींचते हैं पुनः इस भू पर 

भूमिपुत्र बनकर न जाने कितनी बार बंधे हैं 

अब पंच तत्वों के घेरे से बाहर निकलना है 

पहले निर्मल जल सा बहाना है मन को 

फिर अग्नि में तपना है 

होकर पवन के साथ एकाकार 

घुल जाना है निरभ्र आकाश में 

फिर आकाश से भी परे 

उस परम आलोक में जगना है 

जहां कभी दिन होता न रात 

सदा ही रहता है वासन्ती प्रभात 

जहाँ द्रष्टा और दर्शन में भेद नहीं 

जहाँ दर्शन और दृश्य में अभेद है 

आनंद के उस लोक में 

जहां आलोक बसता है 

वाणी का उदय होता है 

मौन के उस अनंत साम्राज्य में 

जहाँ चेतना निःशंक विचरती है 

अहर्निश कोई नाम धुन गूँजती है 

शायद वही कृष्ण का परम धाम है 

जहाँ मन को मिलता विश्राम है !


गुरुवार, नवंबर 5

समय या भ्रम

समय या भ्रम

 


समय जो निरंतर गतिमान है

क्या वाकई गति करता है?

या घटनाएं ही ऐसा प्रतीत कराती हैं

दिन और रात

माह और वर्ष

जन्म और मृत्यु

के मध्य समय बहता सा लगता है

 पर देखने वाला सदा एक सा रहता है !

रेत पर धँसे पाँव ज्यों

कहीं जाते से प्रतीत होते हैं

लहर आकर चली जाती है

वे वहीं के वहीं रहते हैं !

इतिहास बनता रहता है

व्यक्ति वही रहता है

कभी भयभीत, कभी निर्भीक,

कभी शोषक अथवा कभी शोषित

महामारी फिर-फिर दोहराती है

युद्ध भी लड़े जाते हैं बार-बार

जो भी बदलता है वह भ्रम ही सिद्ध होता है

एक पर्दा है जैसे जिस पर

घट रहा है सब कुछ

शायद गहराई में हर मन जानता है

यह एक दोहराया जाने वाला खेल है

 और वह इसमें व्यर्थ ही फंस गया है

सदा से है वह यहीं

वह कहीं गया ही नहीं

सारा भय ऊपर-ऊपर है

विचार में या भावना में

कुछ छूट जाने का भय

कुछ न कर पाने का भय

मारे जाने का भय

जो कंपता है वह प्रतिबिंब है

चाँद को कुछ नहीं होता

मछली के जाल में वह कभी फंसा ही नहीं

बस मान लिया है

सारा समय इस एक क्षण में समाया है

शेष सब..  कुछ छाया और कुछ माया है !

 


बुधवार, अक्टूबर 14

जीवन - मरण

 जीवन - मरण 

अछूते निकल जाते हैं वे  

हर बार मृत्यु से 

पात झर जाता है 

पर जीवन शेष रह जाता है

वृक्ष रचाता है नव संसार 

जब घटता है पतझर

नई कोंपलें फूटती हैं 

वैसे ही जर्जर देह गिर जाती है  

नया तन धरने  

जब सताता हो मृत्यु का भय 

तब जीते जी करना होगा इसका अनुभव 

देह से ऊपर उठ 

जैसे हो जाते हैं ऋषि पुनर्नवा 

देह वृद्ध हो पर मन शिशु सा निष्पाप 

या बालक सा अबोध 

तब देह भी ढल जाती है उसके अनुरूप 

चेतना के आयाम  में पहुंचकर ही 

नव निर्माण होता है अणुओं का 

जैसे वृक्ष धारण करता है नव पात 

योगी को मिलता है नव गात !


शुक्रवार, सितंबर 18

माँ

 माँ 

उभर आती हैं अनगिनत छवियाँ 

मानस पटल पर 

तुम्हारा स्मरण होते ही, 

गोरी, चुलबुली, नटखट स्वस्थ बालिका 

जो हरेक को मोह लेती थीं !

पिता की आसन्न मृत्यु पर 

माँ को ढाँढस बंधातीं  किशोरी, 

नए देश और परिवेश में 

अपने बलबूते पर  शिक्षा ग्रहण करती !

विशारद के बाद ही विवाह के बन्धन में  बंधी

युवा माँ बनकर बच्चों को पालती 

मुँह अँधेरे उठ, रात्रि को सबके बाद सोती 

अचार, पापड़, बड़ियां बनातीं 

तन्दूर में मोहल्ले भर की रोटी लगातीं 

सिर पर पीपा भर कपड़े ले 

नदी तट पर धोने जातीं

रिश्तेदारी में ब्याह में आती-जाती 

नयी-नयी जगहों पर हर बार 

नए उत्साह से गृहस्थी जमातीं

झट पड़ोसियों से लेन-देन तक की मित्रता बनातीं 

बच्चों  को  पढ़ाती इतिहास और गणित 

उनकी छोटी-छोटी उपलब्धियों पर गर्व से भर जातीं

बड़े चाव से औरों को बतातीं 

खाली वक्त में पत्रिकाएं पढ़ती 

रेडियो पर नाटक, टीवी पर धारावाहिक

 दत्तचित्त हो  सुनतीं 

पहले बच्चों फिर नाती-पोतों हित

 हर साल ढेर स्वेटर बुनतीं 

पिता के साथ बैठकर महीने का बजट बनातीं 

माँ तुमने भरपूर जीवन जिया 

संतानो को उच्च शिक्षा और संस्कार दिए 

पिताजी की हर आवश्यकता का सदा ध्यान रखा 

स्वादिष्ट भोजन, बन अन्नपूर्णा सभी को खिलाया 

स्वयं कड़ाही की खुरचन से ही कभी काम भी चलाया 

तुमने उड़ेल दी सारी ऊर्जा अपने घर परिवार में 

 सबको दुआएं दीं जाते-जाते 

मृत्यु से पूर्व तुम्हारा वह संदेश है अनमोल 

आज तुम्हें अर्पण करती हूँ  

कुछ शब्द कुसुम भीगे भावनाओं की सुवास से 

 जो   पहुँच जायेंगे तुम तक परों पर बैठ हवाओं के !