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गुरुवार, मई 15

कृतज्ञता का फूल


कृतज्ञता का फूल 


समय से पूर्व

और आवश्यकता से अधिक 

जब मिलने लगे 

जो भी ज़रूरी है 

तो मानना चाहिए कि 

ऊपरवाला साथ है 

और कृपा बरस रही है !


कृतज्ञता का फूल 

जब खिलने लगे अंतर में 

तो जानना चाहिए कि 

मन पा रहा है विश्राम 

और आनंद-गुलाल बिखर रहा है !


सब मिला ही हुआ है 

यह अनुभव में आ जाये 

तो छूट जाती है हर चाह

राह के उजाले गवाह बन जाते 

कि विश्वास का दीपक ह्रदय में 

जलने लगा है !


रविवार, मई 5

प्रेम

प्रेम 


जिस पर फूल नहीं खिल रहे थे 

उसने उस वृक्ष को 

पास जाकर ऐसे छुआ 

जैसे कोई अपनों को छूता है 

और अचानक कोई हलचल हुई 

पेड़ सुन रहा था 

चेतना हर जगह है 

आकाश में तिरते गुलाबी बादलों  

और लहराती पवन में भी 

 प्रकट हो जाती है 

एक नई दुनिया ! 

जब विस्मय से भर जाता है मन

जैसे कदम-कदम पर कोई 

मंदिर बनता जा रहा हो 

और हर शै उसमें रखी मूरत 

कभी सुख-दुख बनकर 

जिसने हँसाया-रुलाया था 

  शाश्वत बन जाता है वही मन

इतना कठोर न बने यदि 

कि प्रेम भीतर ही भीतर 

घुमड़ता रह जाये 

बंद गलियों में उसकी 

और न इतना महान 

कि प्रेम मिले किसी का 

तो अस्वीकार कर दे 

प्रेम जीवंत है 

वही बदल रहा है 

सागर की लहरों की तरह 

वही यात्री है वही मंज़िल भी !


बुधवार, जनवरी 10

एक लपट मृदु ताप भरे जो

एक लपट मृदु ताप भरे जो 



बैंगनी फूलों की डाल से

फूल झर रहे झर-झर ऐसे, 

लहरा कर इक पवन झकोरा 

सहलाये ज्यों निज आँचल से !


याद घेर लेती है जिसकी 

बनकर अनंत शुभ नील गगन, 

कभी गूंजने लगता उर में 

अनहद गुंजन आलाप सघन ! 


एक लपट मृदु ताप भरे जो 

हर लेती हृदय का संताप, 

सुधियाँ किसी अरूप तत्व की 

बनी रहतीं फिर भी अनजान ! 


सागर-लहर, गगन-मेघा सा 

नाता उस असीम से उर का, 

कौन समाया किस पल क़िसमें  

ज्योति अगन या गंध सुमन में !



सोमवार, सितंबर 25

यह तू तो नहीं

यह तू तो नहीं


कहीं कुछ ऐसा नहीं 

जहाँ नज़र ठहर जाये 

दिल के मोतियों को लुटाता चल 

कि यह दामन भर जाये

हर सुकून भीतर ही मिला 

जब भी मिला 

बाहर फूलों के धोखे में 

काँटों से पाँव छिलवाये 

ख़ुद पे यक़ीन कर 

ख़ुदा में छिपा है ख़ुद 

वह यक़ीन ही छू सकता उसे 

 जर्रे-जर्रे में जो मुस्कुराए 

तू खुश है ही बेवजह 

जैसे दुनिया की वजह नहीं 

तलाश ख़ुशियों की 

बेमज़ा ज़िंदगी को बनाती जाये 

तेरे दामन में हज़ार 

ख्वाहिशें लिपटीं 

उतार फेंक इसे क्योंकि 

यह तू तो नहीं, बताती जाये ! 


बुधवार, जुलाई 19

आत्मा का फूल


आत्मा का फूल 

जहां प्रमाद है वहाँ अहंकार है 

जहां अहंकार है वहाँ प्यार नहीं 

जहां प्यार नहीं वहाँ राग-द्वेष है 

अर्थात वे दो असुर 

जिन्होंने देवों का धरा वेश है 

राग प्रिय से बाँधता है 

द्वेष अप्रिय से बचना चाहता है 

पर हर बंधन दुःखदायी है 

और बचने की कामना ही 

और जोरों से बाँधती आयी है

जिसे पकड़ा है 

वह छूट जाता है 

जिसे छोड़ना चाहा 

वह बना रहता है मन में 

इन असुरों का अंत किए बिना 

प्रेम का राज्य नहीं मिलता 

और प्रेम के बिना 

आत्मा का फूल नहीं खिलता !  



सोमवार, मार्च 20

राहों को रोशन करे जिनकी ख़ुशबू

राहों को रोशन करे जिनकी ख़ुशबू 


जान-जान कर भी जाना नहीं जाता 

जो किसी परिभाषा में नहीं समाता, 

इक राज है जो आज तक खुल न पाया 

है ख़ुद में ख़ुदा पर नज़र कहाँ आता है !


अपना अहसास भी दिलाए जाता है 

फिर भी स्वयं को छिपाए जाता है, 

कभी यह तो कभी वह बनकर जगत में 

दिल को सदियों से लुभाए जाता है !


तू है तो हम हैं सदा इतना यक़ीन 

सहज कृपा के दिए दिल में जलते हैं, 

राहों को रोशन करे जिनकी ख़ुशबू 

हर कदम अकीदत के फूल खिलते हैं !




शुक्रवार, फ़रवरी 10

चुनाव

चुनाव 


शब्दों का एक जखीरा है वहाँ

हाँ , देखा है मैंने 

 ध्वनि एक,  जिससे उपजे शब्द अनेक 

एक  शै के भिन्न-भिन्न नाम 

उनमें से कुछ चुन लिए मैंने 

प्रेम, विश्वास और हंसी 

करते हुए शब्द ब्रह्म को प्रणाम 

शायद अनजाने में ही 

तुमने चुने होंगे 

युद्ध, सन्देह और पीड़ा 

तभी पनपी हैं दुःख की बेलें 

तुम्हारे आंगन में 

और यहाँ सुरभित फूलों की लताएँ !

सुवास से भरा है प्रांगण  

आँगन ही नहीं 

गली तक फैली है ख़ुशबू 

ऐसे ही कुछ देश चुन लेते हैं 

अपने लिए विकास और विश्वास 

और कुछ जाने किस भय में 

जिए जाते हैं खोकर हर आस ! 


शुक्रवार, दिसंबर 23

अरूप

अरूप


वह जो अरूप है भीतर 

अकारण सुख है 

उसकी मुस्कान थिर है 

चिर बसंत छाया रहता है उसके इर्दगिर्द 

अनहद राग बजता है अहर्निश 

जगत से उपराम हुआ 

कोई उस राम से मिलता है 

किसी-किसी के हृदय में 

उसकी चाहत का फूल खिलता है 

प्रपंच से परे वह समाधि में लीन है 

जैसे हिमालय के शिखर पर शिव आसीन है 

आत्मा के अनन्त सागर में उठने वाली लहरों को ही 

निहारते हैं हम 

जो कहीं नहीं जातीं

व्यर्थ ही सिर टकराती हैं 

भँवर उठते हैं कहीं तूफान 

कहीं बहते चले आते हैं फूल 

कहीं बहाया गया उच्छिष्ट 

अनदेखा ही रह जाता है वह अनूप 

वह जो अरूप है भीतर !


गुरुवार, अगस्त 25

कौन फूल खिलने से रोके

कौन फूल खिलने से रोके 
  
बहे न दिल से धार प्रीत की
जाने कितने पाहन रोकें, 
हरियाली उग सकती थी जब 
कौन फूल खिलने से रोके !

सहज स्पंदित भाव क्यों उठते  
तर्कों के तट बांध लिए जब,
घुट कर रह जाती जब करुणा  
कैसे जगे ख़ुशी भीतर तब !

एक बीज धरती में बोते 
बना हजार हमें लौटाती,
इक मुस्कान हृदय से उपजी 
अनगिन दिल के शूल मिटाती !

बहना ही होगा मन को नित 
अंतर का सब प्यार घोलकर, 
भरते रहना होगा घट को 
उस अनाम का नाम बोलकर !

 उसी एक का प्रेम जगत में 
लाखों के अंतर  में झलके,
जो दिल इसमें भीग गया हो 
पा जाता है खुद को उसमें !

गुरुवार, जून 16

भेद - अभेद

भेद - अभेद 

यह चाह कि कोई देखे 

फूल को खिलने नहीं देगी 

वह तो अच्छा है कि 

किसी फूल को यह चाह नहीं होती 

बड़ा फ़ासला है तेरे मेरे बीच 

इसी चाह के कारण 

वरना यह मुहब्बत कब की 

परवान चढ़ गयी होती 

पलकें उठा के देखते हैं वह 

 नज़रें किसी की टिकी हैं या नहीं 

अपनी सीरत पे यक़ीन नहीं आता 

हसीनों को भी 

ज़िंदगी जैसी भी है 

खूबसूरत है 

लाइक्स की चाह ने इसे 

क्या से क्या न बना दिया 

देखने वाला भी वही

 देखा गया भी वही 

क्यों भेद की दीवार कोई 

बीच में  उठा गया !


शुक्रवार, मई 27

फूल शांति का

फूल शांति का


झुक जाने में ही विश्राम है 

सदा मौन में मिलता राम है 

‘और चाहिए’ की ज़िद छोड़कर 

जो मिला है उसे स्वीकार लें 

विचार सागर की लहरों में 

डूबते हुए मन को, उबार लें 

  भीतर सहज ही किनारा मिलता है 

 फूल शांति का खिलता है 

जो देता है जीवन को दिशा 

उमग आती भीतर अनंत ऊर्जा 

विशेष होने की कोई चाह न रहे  

‘कुछ बनो’ की धारा जब न बहे  

थम जाये भीतर शोर मन का 

 एकांत में उससे मिलन घटे  

जिसकी शरण में है कायनात  

 दे रहा जो हर इक को हयात  ! 




सोमवार, जनवरी 31

श्रद्धा का फूल



श्रद्धा का फूल 


श्रद्धा का फूल 

जिस अंतर में खिलता है 

प्रेम सुरभि से 

वही तो भरता है !


बोध का दिया जलता 

अविचल, अविकंप वहाँ 

समर्पण की आँच में 

अहंकार ग़लता है !


श्रद्धा का रत्न ही 

पाने के काबिल है 

स्वप्न से इस जगत में 

और क्या हासिल है 

आनंद की बरखा में 

भीगता कण-कण उर का 

सारी कायनात 

इस उत्सव में शामिल है !


हरेक ऊहापोह से

 श्रद्धा बचाती है 

चैन की एक छाया 

जैसे बिछ जाती है 

जो नहीं करे आकलन

 नहीं व्यर्थ रोकटोक 

श्रद्धा उस प्रियतम से

जाकर मिलाती है !


श्रद्धा का दीप जले 

अंतर उजियारा है  

हर घड़ी साथ दे 

यह ऐसा सहारा है 

अकथनीय, अनिवर्चनीय 

जीवन की पुस्तक को

 इसने निखारा है !