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बुधवार, जुलाई 16

ढाई आखर सभी पढ़ रहे

ढाई आखर सभी पढ़ रहे



 प्रेम अमी की एक बूँद ही

जीवन को रसमय कर देती, 

 दृष्टि एक आत्मीयता की 

अंतस को सुख से भर देती ! 


प्रेम जीतता आया तबसे 

जगती नजर नहीं आती थी, 

एक तत्व ही था निजता में 

किन्तु शून्यता ना भाती थी !


 स्वयं शिव से ही प्रकटी शक्ति  

प्रीति बही थी दोनों ओर,

वह दिन और आज का दिन है 

बाँधे कण-कण प्रेम की डोर !


हुए एक से दो थे जो तब 

 एक पुन: वे  होना चाहते,  

दूरी नहीं सुहाती पल भर 

प्रिय से कौन न मिलन माँगते ! 


खग, थलचर या कीट, पुष्प हों 

प्रेम से कोई उर न खाली, 

मानव के अंतर ने जाने 

कितनी प्रेम सुधा पी डाली ! 


करूणा प्रेम स्नेह वात्सल्य 

ढाई आखर सभी पढ़ रहे  

अहंकार की क्या हस्ती फिर, 

प्रेमिल दरिया जहाँ बह रहे !  


सोमवार, जून 2

भिगो गई है प्रीत की धारा


भिगो गई है प्रीत की धारा 


दिल की गहराई में बसता 

सत्य एक ही, प्रेम एक ही, 

दिया किसी ने, चखा किसी ने

सुख-समता का स्वाद एक ही !


जैसे जल नदिया का या फिर 

अंबर में बादल बन रहता, 

भाव प्रीत का हर इक दिल में 

कभी बह रहा, कभी बरसता !


उसी चेतना से आयी थी

उसी चेतना को कर पोषित, 

भिगो गई शुभ प्रीत की धारा 

मन-प्राण हुए सबके हर्षित !


शुभ भावना जगी जो भीतर 

प्रसून मैत्री के जो पुष्पित, 

अवसर पाकर मुखर हुए जब

करें ह्रदय को पुन: सुवासित !

मंगलवार, अप्रैल 22

वेद ऋषि

वेद ऋषि 

वे जो भावों की नदियाँ बहाते हैं 

वे जो शब्दों की फसलें उगाते हैं 

बाड़ लगाते हैं विचारों की 

उन्हें कुछ मिला है 

शायद किसी बीज मंत्र सा 

जिसे बोकर वे बाँटना चाहते हैं 

कुछ पाया है जिसे लुटाना है 

माना कि वे बीजों के जानकार नहीं 

पर आनन्दग्राही हैं 

प्रेम को चखा है 

और रस से भरा है 

लबालब उनका अंतर 

वे अनायास ही आ गये  हैं 

उस घेरे में 

जहाँ मौन प्रखर हो जाता है 

और वहीं कोई कान्हा 

बंसी बजाता है !


मंगलवार, अप्रैल 8

प्रेम

प्रेम 


प्रेम कहा नहीं जा सकता 

वैसे ही जैसे कोई 

महसूस नहीं कर सकता 

दूसरे की बाँह में होता दर्द 

हर अनुभव बन जाता है 

कुछ और ही 

जब कहा जाता है शब्दों में 

मौन की भाषा में ही 

व्यक्त होते हैं 

जीवन के गहरे रहस्य 

शांत होती चेतना 

अपने आप में पूर्ण है 

जैसे ही मुड़ती है बाहर 

अपूर्णता का दंश 

सहना होता है 

सब छोड़ कर ही 

जाया जा सकता है 

भीतर उस नीरव सन्नाटे में 

जहाँ दूसरा कोई नहीं 

किसी ने कहा है सच ही 

प्रेम गली अति सांकरी !


बुधवार, फ़रवरी 12

जीवन स्रोत

जीवन स्रोत 


उस भूमि पर टिकना होगा 

जहाँ प्रेम कुसुमों की गंध भरे भीतर 

 सत्य की फसल उगती है 

जहां अभेद के तट हैं 

शांति की नदी बहती है 

जब जगत में विचरने की बारी  आये 

तब भी उस भूमि की याद मिटने न पाये 

जहां एकत्व है और स्वतंत्रता 

अटूट शाश्वत समता 

जो अर्जित की गई है 

पूर्णता की धारा से 

जहाँ आश्रय मिलता है 

हर तुच्छता की कारा से 

वहीं ठिकाना हो सदा मन का 

जो स्रोत है हर जीवन का ! 



बुधवार, दिसंबर 25

बड़े दिन की कविता

बड़े दिन की कविता 


ईसा ने कहा था 

चट्टान पर घर बनाओ 

रेत पर नहीं 

क्या ‘मन’ ही हमारा असली घर नहीं 

क्या हर कोई मन में नहीं रहता 

 आपस में जुड़े हैं मन

मन वस्तुओं से जुड़ा है 

या कहें दुनिया से जुड़ा है 

देखें यह घर किस पर टिका है

रिश्तों का आधार क्या है 

आधार चट्टान सा मज़बूत हो 

वह प्यार हो 

जो अटल है, अमर है और अनंत भी 

न कि मोह 

जो रेत सा अस्थिर है डांवाडोल है 

मोह बाँधता है, जकड़ता है  

वरना तो टिकेगा कैसे 

प्रेम मुक्त करता है, पंख देता है 

ईसा ने कहा था 

ईश्वर प्रेम है !

रिश्तों का आधार ईश्वर हो तो 

किसी बात से न डिगेगा 

तब हर दिन बड़ा दिन मनेगा ! 

 




शुक्रवार, नवंबर 29

चमक

चमक 


चारों ओर से आकाश ने घेरा है 

धरा नृत्य कर रही है अपनी धुरी पर

और परिक्रमा भी उस सूर्य की 

जिसका वह अंश है  

ऐसे ही 

जैसे जीवन को सँभाला है 

अस्तित्त्व ने 

जैसे रत्न जड़ा हो सुरक्षित अंगूठी में 

आनंद में डोलती हर आत्मा 

परिक्रमा करती है परमात्मा की 

जैसे कृष्ण के चारों ओर राधा 

प्रेम की यह गाथा अनादि है 

और अनंत भी 

कितना भी झुठलाये मानव 

प्रेम उसके भीतर जीवित रहता है

वही चमक है आँखों की 

वही नमक है जीवन का 

प्रेम का वह मोती सागर में गहरे छिपा है 

पर उसकी चमक  

सूरज की रोशनी से ही उपजी है 

ऐसे ही जैसे हर शिशु की मुस्कान में

माँ ही मुस्काती है !



शुक्रवार, नवंबर 22

प्रेम

प्रेम 


याद 

हवा की तरह आती है 

और छू कर चली जाती है 

किसी झील की शांत सतह पर 

उड़ते हुए पंछी के पंखों में 

क्योंकि अंततः सब एक है 

प्रेम बरसता है छंद बनकर 

किसी कवि की कविता से 

या चाँदनी बनकर सुनहरे चाँद से 

नहीं होता उस पर किसी का एकाधिकार 

वह तो सबके लिए है 

नदियों, सागरों, मरुथलों 

और बियाबानों तक के लिए 

जिनसे मिलने जाते हैं 

युगों से यात्री 

सितारों के बताये रास्तों से गुजर 

ऐसा प्रेम 

जिसका कोई नाम नहीं है 

वही बच रहता है 

संगीत बनकर 

हर दिल की धड़कन में ! 






रविवार, नवंबर 17

प्रेम

प्रेम 


प्रेम के क्षण में 

स्वर्ग बन जाती है दुनिया 

देव बन जाता है मन 

जो देना चाहता है 

सारे वरदान 

इस जगत को 

प्रेम की नन्ही सी किरण

मिटा देती है सारा तम

खिल जाता है मन उपवन 

प्रेम की तरंग 

भिगो देती है 

आसपास के तटों को 

जब उठती है हास्य के सागर में 

प्रेम दिव्य है 

मानव का मूल है 

पर जो ढक जाता है 

द्वेष और नासमझी के पहाड़ों से

धारा में मीलों नीचे दबे 

हीरे की तरह 

अनदेखा ही रह जाता है 

मन की खुदाई कर उसे पाना है 

प्रियतम के मुकुट में सजाना है 

बार-बार सुननी हैं प्रेम गाथायें 

और गीत प्रेम का गाना है ! 


मंगलवार, नवंबर 5

अस्तित्त्व और हम

अस्तित्त्व और हम 


जब सौंप दिया है स्वयं को 

अस्तित्त्व के हाथों में 

तब भय कैसा ?

जब चल पड़े हैं 

कदम उस पथ पर

उस तक जाता है जो 

तो संशय कैसा  ?

जब बो दिया है बीज प्रेम का  

अंतर में उसने ही 

तो उसके खिलने में देरी कैसी  ?

जब भीतर उतर आये हैं 

शांति के कैलाश 

तो गंगा के अवतरण पर 

भीगने से संकोच कैसा  ?

अपना अधिकार लेने में

 यह झिझक क्यों है 

हम उसी के हैं, और वही 

हम बनकर जगत में आया है 

जब जान लिया है या सत्य 

तब यह नाटक कैसा  ?

उसी को खिलने दो 

बढ़ने दो 

कहने दो 

अब अपनी बात चलाने का 

यह आग्रह कैसा  ?

डूब जाओ 

उसके असीम प्रेम में 

किसी तरह 

वह यही तो चाहता है 

फिर उससे भिन्न होने का 

भ्रम कैसा ?