मन पाए विश्राम जहाँ
नए वर्ष में नए नाम के साथ प्रस्तुत है यह ब्लॉग !
गुरुवार, फ़रवरी 2
मौसम का वर्तुल
मंगलवार, जनवरी 31
मन भी किसी और की माया
मन भी किसी और की माया
माटी से निर्मित यह भूमा
माटी से ही चोला तन का,
माटी का भी स्रोत कहीं है
ढूँढे वही यात्री मन का !
हर पदार्थ मन की छाया है
मन भी किसी और की माया,
निजता में ही मिलता शायद
धुर नीरव में नाद समाया !
ज्यों कुम्हार मन में रचता है
फिर आकार बनें माटी के,
उर संवेग भाव उमड़ें जब
तब उढ़ाए वस्त्र शब्दों के !
जग में मुक्त वही विचरे वपु
मुदिता मद सम नीर उर भरे,
अकल्पनीय स्वप्न पलकों में
नहीं विकल्पों से कभी डरे !
रविवार, जनवरी 29
गुंजार
गुंजार
तू भेज रहा है प्रेम पाती
हर क्षण मेरे प्रभु !
हम पढ़ते ही नहीं
क्योंकि संसार की
उलझनों में खोए हैं
तू जगा रहा है निज गुंजार से
और हम न जाने
किन अंधेरों में सोए हैं
एक क्षण के लिए
तुझसे नयन मिलते हैं तो
हज़ार फूलों की
डालियाँ झर जाती हैं
तेरी याद में
पवन अपने संग
उन अदृश्य फूलों का
पराग ले आती है
शुक्रिया तेरे उस स्पर्श का
जो भर जाता है
मन में पुनः विश्वास
थिर हो जाती है
आती-जाती हर श्वास !
शनिवार, जनवरी 28
कहना - सुनना
कहना - सुनना
वह जो मेरे भीतर बोलता है
वही तुम्हारे भीतर सुनता है
कहा था आँखों में आखें डाल के किसी ने
फिर भी नहीं समझ पाते
लोग एक-दूसरे की बात
खुद भी नहीं सुनते उसे
न ही खुद बोलते उससे
वरना आसान हो जाती चीजें
लोग बिन कहे
एक-दूसरे की बात समझ जाते
अथवा तो सुनकर वही समझते
जो कहा गया है
जो एक छुपा है सारी कायनात के पीछे
वही देखता है
वही देख रहा है
अपनी पूरी शक्ति से
उसके होने में ही हमारा होना है
वही जीवन की मुद्रिका में जड़ा सोना है
उसकी स्मृति हमें रख सकती है मुक्त
और अपने आप से युक्त !
गुरुवार, जनवरी 26
समता की इक ढाल बना लें
समता की इक ढाल बना लें
पुष्पों का मृदु हार बनें हम
काँटों का चुभता ताज नहीं,
प्रीत सुरभि हर सूं बिखरायें
उर बजे शोक का साज नहीं !
दुनिया आँख खोलकर देखें
झर-झर अमिय निर्झरित होता,
समता की इक ढाल बना लें
नादां मन गर कंपित होता !
जीवन अभेद, जीवन अछेद्य
जग को अपना मीत बनायें,
ले शिव-शक्ति का सदा आश्रय
कण-कण में उमंग बिखरायें !
अनदेखे हर बंधन छूटें
मेरा-तेरा का महा बंध,
कुछ भी नहीं, या हमीं सब कुछ
फिर कैसा यह अंतरद्वंद्व !
हर मरीचिका छलना ही है
छायाओं से कैसा डरना,
भय की बेड़ी से जग बाँधे
उस प्रियतम से जुड़कर रहना !
मंगलवार, जनवरी 24
गणतंत्र दिवस पर शुभकामनाओं सहित
एक ऊर्जा परम लहर बन
विश्व आज देखे भारत को
एक नवल इतिहास बन रहा,
युगों-युगों से जो नायक था
पुनः समर्थ सुयोग्य सज रहा !
भारत की परिभाषा क्या है
नित तेज-प्रकाश खोज में रत,
अंधकार में डूबी दुनिया
महामारी व महाआतंक !
मिला इसे शुभता का बल नित
महाशक्ति हर शिव की पायी ,
एक ऊर्जा परम लहर बन
कण-कण में जो सदा समायी !
अब यह आगे बढ़ निकला है
पथ की हर बाधा को तजकर,
नहीं थमेगा पूर्व लक्ष्य के
कर्मशील यह सदा निरंतर !
रविवार, जनवरी 22
सच में
सच में
हम सच को स्वीकार नहीं करते
वरना साफ़-साफ़ कह देते
हम मंदिर आते हैं खुद के लिए
हे ईश्वर ! हम तुमसे प्रेम नहीं करते
शब्दों को एक-दूसरे के साथ बिठाकर
गढ़ लेते हैं प्रार्थनाएँ
जिनमें हमें भी यक़ीन नहीं होता
तू हमारा कुशल-क्षेम रखेगा
वरना क्या इस बात पर करते नहीं भरोसा
नहीं है अहम् हममें रत्तीभर भी
कहकर, अहंकार को ही फूल चढ़ाते
जो पाठ खुद नहीं पढ़ पाए
वह औरों को पढ़ाते
स्वयं को कटघड़े में खड़े करके
खुद वकील बन जाते
फिर बनते न्यायाधीश और
फ़ैसला भी अपने ही हक़ में सुनाते !
शनिवार, जनवरी 21
वही मार्ग में संबल बनती
वही मार्ग में संबल बनती
मुख मोड़ा जब-जब प्रकाश से
हर दुःख इक छाया सा मिलता,
परछाई इक सँग हो लेती
तज खुद को जब जग को देखा !
बाधा जो सम्मुख आती है
उसकी भी छाया बनती है,
कभी विषाद, विकार कभी बन
माया बन जो गहराती है !
ज्योति का इक स्रोत है भीतर
हम उससे मुख मोड़े रहते,
पीठ किये इस झिलमिल करते
जग में विचरण करते रहते !
छायाएँ जब मिल आपस में
नित्य नवीन रूप धरती हैं,
कुछ अभिनव कुछ भीत बढ़ातीं
सदा साथ मन बन रहती हैं !
थम जाए यदि पल भर कोई
मुड़ कर देखे स्वयं स्रोत को,
मन खो जाता तत्क्षण जैसे
चकित हुआ सा देखे खुद को !
सदा एक रस सदा साथ है
ज्योति विमल जो दिपदिप करती,
जाने या ना जाने कोई
वही मार्ग में संबल बनती !
गुरुवार, जनवरी 19
कुछ छुपाने को न कुछ बताने को
कुछ छुपाने को न कुछ बताने को
खुली किताब सा जब बन जाता है
साथ कुदरत का उसे मिल जाता है
कुछ छुपाने को न कुछ बताने को
राहे इश्क़ पर दिल निकल जाता है
दिल के घावों को हवा लगने दो
धूप में ज़िंदगी की उन्हें तपने दो
ढाँक रखने से न हल होंगे कभी
खुल के जियो औरों को जीने दो
हवा बहती है फूल खिलते हैं
कुछ ऐसे ही यहाँ लोग मिलते हैं
दिल भरा हो प्रेम से लबालब
ठाँव अपनों के कहाँ हिलते हैं
खुद को देखोगे तो सराहोगे
दूर दिल से नहीं जा पाओगे
जहाँ बसता है कोई जादूगर
सारी दुनिया को वहीं पाओगे
अपनी नज़रों में खुद को खुद देखो
यह हक़ीक़त है आज या कल देखो
खुद को चाहता नहीं जब तक कोई
इश्क के घर से उसे दूर ही देखो
खिला फूल सुबह शाम झर जाता है
चंद श्वासों का ज़िंदगी से नाता है
दो घड़ी साथ मिले जिस किसी का यहाँ
शुक्रिया हर बात पर निकल आता है
सोमवार, जनवरी 16
इक विश्वास हृदय में अनुपम
इक विश्वास हृदय में अनुपम
जीवन इक उपहार उसी का
जो सदा निकट, है सुदूर अति,
जिससे यह श्वासें चलती हैं
प्राणों में बल, तन-मन में गति !
जीवन ज्यों स्वीकार सभी का
सुख-दुःख बारी-बारी बरसे,
दिवस बिना भला कैसी रात्रि
स्मित अधरों पर, अश्रु नयन में !
जीवन है इज़हार प्रेम का
घटता-बढ़ता नहीं मोह सम,
एक अचल मृदु आश्रय कोई
इक विश्वास हृदय में अनुपम !
जीवन शुभ व्यापार प्रकृति का
शीत कँपाए, ग्रीष्म सताए,
ऋतु बहार, फिर पतझड़ लाती
बादल बारिश राग सुनाए !
जीवन इक उपकार किसी का
कोई दाना, वस्त्र उगाए,
दिया ज्ञान, घर-द्वार बनाता
पग-पग नया सहायक आए !
शनिवार, जनवरी 14
भारत का हर पर्व अनोखा
भारत का हर पर्व अनोखा
लोहरी की पावन अग्नि में
सपनों के शुभ रंग बिखरते,
देश तरक़्क़ी करे विश्व सँग
भारतवासी यही माँगते !
सबको साथ लिए चलना है
वसुंधरा है एक परिवार,
भारत का हर पर्व अनोखा
जगा रहा हर हृदय में प्यार !
मिलकर आज पतंग उड़ाएँ
वितरण किए तिल गुड़ मिष्ठान,
खिचड़ी का प्रसाद ग्रहण करें
चिवड़ा दही लगते पकवान !
थोड़े में ही सुख मिलता है
सिखा रहा पोंगल, बीहू भी,
फसल काटने की ऋतु आयी
व्यक्त करें आभार कृषक भी !
सारा भारत इक ही सुर में
पर्व मकर संक्रांति मनाए,
धरती, सूरज, वनस्पति संग
मानव मिल सुर-ताल मिलाए !
संस्कृति है यह कैसी अद्भुत
क़ीमत इसकी वही जानता,
मानवता की ख़ुशबू जिसमें
भारत को जो मातृ मानता !
शुक्रवार, जनवरी 13
कविता
कविता
कोई एक भाव
एक शब्द, एक विचार
उतर आता है न जाने कहाँ से
और पीछे एक धारा बही आती है
अक्सर कविता ऐसे ही कही जाती है
अनायास, अप्रयास
कभी थम जाती है कलम तो जानना कि
प्रवाह रुक गया है
कि मार्ग में अवरोध है
कोई पाहन इच्छाओं का
या कोई दीवार द्वेष की
नकार की बाड़ तो नहीं लग गयी
जिन्हें हटाते ही फिर बहेगी
कल-कल छल-छल
काव्य की अजस्र धारा
निरंतर भिगोती हुई अंतर व बाह्य जगत
आलोकित होगा
मन प्राण ही नहीं
देह का एक-एक कण !
बुधवार, जनवरी 11
कोई कोई ही पहुँचे घर
कोई कोई ही पहुँचे घर
हर सुख की छाया दुःख ही है
जो संग चली आती उसके,
हर चाह अचाह छुपाए है
देखेगा, होश जगे जिसके !
चाहों से यह जग चलता है
पर टिका हुआ अचाह बल पर,
मंज़िल दोनों के पार खड़ी
कोई कोई ही पहुँचे घर !
जग दो की फ़िक्र सदा करता
आज हँसे कल रोए वाला,
आख़िर कब तक माया बाँधे
दे आवाज़ बाँसुरी वाला !
योग अधूरा मन का जब तक
मानव खुद को छलता रहता,
प्रेम तंतुओं का जो पुतला
बिरहन सा दुःख सहता रहता !