शुक्रवार, अक्तूबर 11

बदलता हुआ बनारस


बदलता हुआ बनारस 

कल दोपहर हम असम से कोलकाता के लिए रवाना हुए। एयरपोर्ट से सीधे स्टेशन का रुख़ किया, जहां से हमें बनारस के लिए कालका मेल पकड़नी थी। सुबह नींद खुली तो सासाराम आ गया था। खेतों में सुनहरी फसल खड़ी थी, कहीं कट रही थी, कहीं कटने के इंतज़ार में। कहीं मीलों तक फैले खेत ख़ाली पड़े थे। खेतों में आदमी और औरतें दोनों काम कर रहे थे। मुगलसराय स्टेशन पर उतरते ही एक टैक्सी वाला सामने आ गया, उसके पास अम्बेस्डर कार थी। कहने लगा एक दो वर्षों में यह कारें दिखना बंद हो जायेंगी, अब पुर्ज़े नहीं मिलते इसके।ननद के घर पहुँचे तो सामान ऊपर तक पहुँचा गया, बनारस में ही ऐसे टैक्सी ड्राइवर मिल सकते हैं। अगले हफ़्ते पुत्र भी आ रहा है, कह कर गया है, उसे भी वही लेने जायेगा।कल सुबह नाश्ते के बाद हम सभी को गंगा घाट जाना है, परसों वापस लौटेंगे। गंगा स्नान, मणिकर्णिका घाट और विश्वनाथ मंदिर के दर्शन करने हैं। परसों शाम को पंचकर्मा केंद्र जाना है। दुनिया के कई देशों से लोग बनारस आते हैं। बाबा विश्वनाथ की इस नगरी को प्राचीन सप्तपुरियों में स्थान मिलने के कारण काशी की महिमा अपार है। 

सुबह नींद जल्दी खुल गई। अस्तित्त्व हमें हर पल अपनी ओर बुलाता है। उसके सान्निध्य में हम एक पल में ही तृप्त हो सकते हैं,  पर अगले ही पल हमारी बुद्धि अनेक क्षेत्रों में भ्रमण करने लगती है। सदा उपलब्ध दिव्य ऊर्जा को हम यूँ ही गँवा देते हैं। हमारा होटल बिल्कुल गंगा घाट पर स्थित है। इसका नाम मीर घाट है, अपेक्षाकृत काफ़ी साफ़-सुथरा और आरामदेह है।बाहर की गर्मी का अहसास इस कमरे की ठंडक में नहीं हो रहा है। सामान रखकर हम सभी दशाश्वमेध घाट तक गये। शीतला माता के मंदिर के सामने लोगों की क़तार लगी हुई थी। आस-पास की गंदगी से जैसे उन्हें कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ रहा था।कीचड़, सूखे हुए फूल, पत्ते और कहीं कागज के टुकड़े, प्लास्टिक की थैलियाँ इधर-उधर बिखरी हुई थीं। शायद सुबह सफ़ाई हुई होगी, पर यहाँ दिन भर यात्रियों का ताँता लगा रहता है, और अधिकतर गाँवों से आने वाले लोग होते हैं, जिन्हें शायद साफ़-सफ़ाई से ज़्यादा लगाव नहीं होता। विविध दृश्यों को देखते हुए हम कुछ फल ख़रीद कर वापस लौटे। 


दोपहर बाद हम मणिकर्णिका घाट गये, जहां का दृश्य विचित्र था। दस-बारह शव जल रहे थे, जैसे ही एक शव जलता, वे चिता पर पानी डालकर उसे ठंडा कर देते व फूल चुनकर गंगा में बहा देते थे। सीढ़ियों पर कुछ लोग बैठे थे, जिनके प्रियजन उस पार जा रहे थे, पर कोई रोना-धोना नहीं था। उत्सव सा ही लग रहा था, मृत्यु का उत्सव ! लकड़ियों के ढेर लगे थे और तेज हवा में चितायें धू-धू कर जल रही थीं। पुआल में एक अंगारा रखकर चिता जलाने के लिए लाया जाता था, देखते ही देखते नई-नई देहें चिता पर रखी जा रही थीं। यह क्रम चौबीस घंटे चलता रहता है। कहते हैं काशी में मरने वालों को मोक्ष मिल जाता है। शिव का स्थान है काशी। गंगा की धारा हज़ारों वर्षों से बह रही है, मृतकों को अपने आश्रय में लेती आ रही है, फिर भी लोग इसे पावनी गंगा मानते हैं। अभी कुछ देर बाद हम भी इसकी धारा में स्नान करेंगे। अपने अंदर के कल्मष को दूर करने में यह स्नान अवश्य ही सहायक होगा। 


दोपहर बाद चार बजे हम नाव में सवार होकर गंगा पार गये, जहाँ पहले से कुछ नावें खड़ी थीं, लोग स्नान कर रहे थे। पानी पहले तो शीतल लगा फिर तन अभ्यस्त हो गया। गंगा के पावन जल का स्पर्श अत्यंत सुखकारक था, कभी-कभी पैरों के नीचे लोगों के छोड़े हुए वस्त्र छू जाते थे। सफ़ाई की बहुत आवश्यकता है यहाँ पर, लोगों की भीड़ अनवरत आती रहती है कि सफ़ाई के लिए अलग से समय निकालना कठिन होता होगा। वापस आकर शाम को हम दशाश्वमेध घाट पर आरती देखने गये। गोदौलिया चौराहे के आगे कोई वाहन नहीं जाता, लोगों का विशाल हुजूम यहाँ रोज़ ही आता है, जैसे कोई मेला लगा हो। किसी त्योहार के होने पर यात्रियों की भीड़ कुछ अधिक ही बढ़ जाती है। घाट का वातावरण दिव्य प्रतीत हो रहा था। आरती के लिए विशेष मंच बनाये जाते हैं, जिनपर फूलों की पंखुड़ियाँ बिछायी गई थीं। सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित सात पुजारियों ने मंत्रोच्चरण व घंटा ध्वनि के साथ आरती आरम्भ की। गायक और वादकगण के साथ  वेदी पर बैठकर सुनने का सौभाग्य मिला। भजन सुमधुर थे और आरती भव्य थी।अद्भुत क्षण थे वे, परमात्मा की कृपा का अनुभव हो रहा था। आरती समाप्त होने पर होटल में स्वादिष्ट भोजन ग्रहण किया। पुन: बाहर निकले, आगे बढ़ते हुए हम काशी विश्वनाथ कारिडोर के मुख्य द्वार पर पहुँच गये। भारत माता के नक़्शे के साथ मूर्ति भी विशाल प्रांगण में बायीं और लगी थी और दूसरी ओर अहल्याबाई की मूर्ति थी। बाबा विश्वनाथ के मंदिर के दर्शन किए, वहाँ पुलिस का सख़्त इंतज़ाम था। वहाँ से लौटते हुए मार्ग में  माँ अन्नपूर्णा  का मंदिर, शनिदेव, बड़े हनुमान, माँ विशालाक्षी तथा कुछ अन्य छोटे मंदिर भी देखे। एक जगह मलाई वाला दूध बिक रहा था, उसका आनंद लिया और होटल लौट आये। आकाश में चंद्रमा देदीपम्यान हो रहे थे और हवा शीतल थी। कुछ देर ध्यान किया। साढ़े दस बजे सुबह चार बजे का अलार्म लगाकर हम निद्रादेवी की शरण में चले गये।



अब प्रातः काल हो गया है। आकाश में हल्की लालिमा दिखनी शुरू हो गई है। होटल के कमरे से बाहर बालकनी से सूर्योदय का दृश्य हमने कैमरे में क़ैद कर लिया है।अब सूर्योदय का दर्शन करते हुए हम साधना करना चाहते हैं। गंगा तट पर प्राणायाम तथा योगासन करने का सुअवसर बार-बार नहीं मिलता। कुशल योग शिक्षक ने तट पर योगासन करवाए। उसके बाद सभी उस दुकान पर चाय पीने गये, जो यहाँ अति प्रसिद्ध है। वहाँ लोग पंक्ति में खड़े थे, दुकानदार हरेक को ताजी चाय बनाकर देता था, लेमन टी या मसाला चाय। एक वृद्ध वहाँ खड़ा था, मैंने उसे अपना कप पकड़ा दिया, वह तत्क्षण हमारा शुभचिंतक हो गया। जब दुकानदार ने शेष पैसे वापस नहीं दिये  तो वह चिंतित हो गया, बाद में हमने एक चाय और ली, तब वह निश्चिंत होकर चला गया। वहाँ से लौटे तो मन में घाट पर ध्यान करने की इच्छा प्रबल हो गई थी, एक चबूतरे पर बैठकर गंगा की लहरों से आती ठंडक तथा सूर्य की नव रश्मियों का स्पर्श करते हुए कुछ देर ध्यान किया। साढ़े आठ बजे हम नाश्ते के लिए गये। मार्ग में वाराही देवी के मंदिर में दर्शन किए, यह मंदिर एक गली में स्थित है, यहाँ दर्शन भी विचित्र ढंग से होते हैं, ऊपर से एक चौकोर छेद में से झांककर नीचे देखना था, नीचे जिस कक्ष में मूर्ति रखी थी, वहाँ जाना संभव नहीं था। वाराणसी की हर गली में कोई न कोई छोटा बड़ा मंदिर है। अद्भुत नगरी है है यह।  इसके बाद नौका में गंगा विहार की बारी थी। नाव चलाते हुए नाविक कई रोचक बातें बता रहा था। जिन फ़िल्मों की शूटिंग गंगा किनारे हुई है, उनके नाम उसे याद थे। नदी में सैकड़ों पक्षी आ-जा रहे थे। हमने उन्हें दान डाला, वे आवाज़ लगाने पर निकट आते और दाना लेकर उड़ जाते। 



शाम को चार बजे हम ‘स्पर्श आयुर्वैदिक केंद्र’ के लिए निकले।जहां का अनुभव वर्णनातीत है। कपूर मिले सुगंधित तेल से शिरोधारा का हमारा पहला अनुभव था। इसके बाद वाष्प स्नान करवाया गया।वहाँ से लौटे तो तन-मन हल्के हो गये थे। रात्रि को अच्छी नींद आयी। अगले दिन कुछ मित्र परिवारों से मिलने जाना था। पहले मित्र की बिटिया की नन्ही गुड़िया से पहली बार मिले, बहुत नटखट है। दूसरी जगह गये तो वहाँ शोक का माहौल था, कुछ समय पहले परिवार के मुखिया की मृत्यु हो गई थी। कुछ देर में सब सामान्य हो गया।शाम को हम निकट स्थित पार्क में टहलने गये। वापसी में अंधेरा हो गया था। सब तैयार हुए, एक शादी में जाना था। मंडप सुंदर सजा था। भोजन भी अच्छा था। दाल बाटी चूरमा का आनंद लिया। देर रात घर लौटे। 


अगले दिन सुबह अस्सी घाट पर सुबह के समय होने वाली भव्य व अलौकिक आरती में भाग लिया।पाँच तत्त्वों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए युवा साधिकाओं ने वेद के मंत्रों का उच्चारण किया। धूप, कपूर, अग्नि, मोर पंख तथा चंवर आदि से आरती संपन्न हुई। हमने पुष्पांजलि अर्पण की। इसके बाद शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम था। तब तक पूर्व में लालिमा प्रगाढ़ हो गई थी। सूर्य का लाल गोला जल से ऊपर उठ रहा था।हमने सुंदर चित्र उतारे, मिट्टी के कप में चाय पी और न चाहते हुए भी गंगा के सान्निध्य को छोड़कर वापस लौट आये। दिन का समय ख़रीदारी के लिए रखा था, धूप बहुत तेज थी। शायद धूप लग गई, रात को स्वास्थ्य बिगड़ गया। सुबह ननद ने आमपन्ना बनाकर पिलाया, आम के छिलकों से हथेली व पैरों के तलवों की मालिश की। शाम को पुदीने का शरबत और भी कुछ घरेलू उपाय किए। मोहल्ले के डाक्टर भी घर आकर देख गये। फ़ीस भी नहीं ली। उनकी बातों से बहुत उत्साह मिला। बनारस की हवा में कुछ बात है, लोग ख़ुशदिल हैं और बड़े दिल वाले भी। एक पुरानी परिचिता का फ़ोन आया, वह अपने घर आमंत्रित कर रही थीं। एक पुराने मित्र दंपति मिलने आये। गृहणी की बातें बड़ी रोचक थीं। हरी-भरी सब्ज़ी देखकर उनकी तबियत हरी-भरी हो जाती है और चाय का पानी खौले उसके पहले उनका खून खौलने लगता है।देवरानी की शिकायत कर रही थीं और बहू के सुस्त होने की भी। उनके जाते ही मन ही मन जीवन जीने की कला के सूत्र दोहराये, मन की समता बनाये रखना, जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार करना, दूसरों की बातों से प्रभावित न होना, अन्यों की भूलों को क्षमा करना, वर्तमान में रहना। आत्मीयता, सरलता और सरसता जीवन में हों तो विकार नहीं सताते। कल हमें कोलकाता जाना है।


आज दोपहर हम कोलकाता के गेस्ट हाउस पहुँचे हैं। रात को एक मित्र परिवार की बिटिया के विवाह में सम्मिलित होना है। शाम तक का समय बिताना था सो हम निकट स्थित फ़ोरम मॉल देखने चले गये।गुड्डू ने हमारे लिए चाय मंगायी और अपने लिए कॉफ़ी, साथ में कुकीज़। चाय काफ़ी बड़े से सुंदर कपों में परोसी गई थी, बिल भी काफ़ी आया होगा। शानदार चमकती हुई दुकानें थी फ़ोरम में। नीचे उतर कर आये तो छोटे-छोटे बच्चे नंगे बदन मिट्टी में खेल रहे थे। जिनके पास घर तक नहीं है, शिक्षा तो दूर की बात है। इस दुनिया में कितना असमानता है। किंतु इस सबके पीछे एक तत्व है जिसने सबको बाँधा  हुआ है, और जो हर हाल में भीतर शक्ति देता है। 


कल सुबह लगभग दस बजे हम विवाह स्थल पर पहुँचे थे। बहुत अच्छा इंतज़ाम था। पूजा चल रही थी।मेहँदी की रस्म हुई। दोपहर बाद लौट आये, शाम को पुन: गये। वहाँ कई रस्में हुईं, दूल्हे का स्वागत, जयमाला, फेरे, शुभ दृष्टि और कन्यादान मामा के द्वारा किया गया। कुल मिलाकर सभी कुछ बहुत शांति से और भव्यता के साथ संपन्न हुआ। बंगाली दुल्हन द्वारा मारवाड़ी दूल्हे के चारों और फेरे लेने की प्रथा अनोखी थी। एक समरसता पूरे वक्त बनी हुई थी, दूल्हे की माँ बहुत सुलझे हुए विचारों वाली महिला हैं।आज हमें वापस जाना है। घर पहुँच कर भी कुछ दिन तक हम यात्रा की बातें करते रहे। 

  


बुधवार, अक्तूबर 9

रेत पर टिकते नहीं घर

रेत पर टिकते नहीं घर

​​

स्वप्न ही तो है जगत यह 

टूटना नियति है इसकी, 

सत्य मानो या सहेजो 

छूटना फ़ितरत इसी की ! 


आँख भरकर देख लो बस 

मुस्कुरा लो साथ मिलकर, 

किंतु न बाँधो उम्मीदें 

रेत पर टिकते नहीं घर !


ओस की इक बूँद हो ज्यों 

है यही सौंदर्य इसका, 

गगन में रंगों का मेल 

नदी में ज्यों बहे धारा !


प्रीत की जो बेल बोई 

वह सदा उसके लिए है, 

भ्रम हुआ जब जगत चाहा 

शाश्वत सदा अप्रगट है !


जगत माला में पिरोया 

स्वयं बनकर पूर्ण आया, 

स्वयं को ही देखते हम 

स्वप्न का लेते सहारा !


सोमवार, अक्तूबर 7

असली नवरात्रि

असली नवरात्रि 


कामना जगी तो

 धुआँ-धुआँ कर देती है भीतर 

अग्नि आत्मा की बुझ जाती है 

बुझती नहीं तो छुप जाती है !


हर चाह मन के दर्पण पर 

चिपक जाती है 

धूल की परत बन कर 

झलक आत्मा की खो जाती है 

खोती नहीं तो ढक जाती है !


आत्मा का सूरज जहाँ चमकता है 

वहाँ पारदर्शी होता है मन 

अग्नि प्रज्ज्वलित होती है 

पूरे वैभव में 

इच्छा की सुलगती लकड़ियाँ 

कोई धुआँ नहीं देती 

सारे बीज सुख गये होते हैं संस्कारों के 

जो तड़-तड़ कर जलते हैं !


देदीपम्यान होता है भीतर का आकाश 

और यही लक्ष्य है हर मानव का 

फिर भी ख़ुद को भरमाते हैं 

लड़ते और लड़वाते हैं 

माँ को सौंप दें सारी आकांक्षाएँ 

असली नवरात्रि तभी तो मनेगी 

दिल की बगिया 

फिर-फिर खिलेगी !  


शनिवार, अक्तूबर 5

तावांग - उत्तरपूर्व का एक नायाब रत्न

तावांग - उत्तरपूर्व का एक नायाब रत्न 


बोमडिला - होटल शियांग फ़ाँग 


ग्रीष्मावकाश आरंभ होते ही मन पखेरू सैर पर निकल पड़ने को आतुर हो उठता है। यायावर प्रवृत्तियाँ अँगड़ाइयाँ लेने लगती हैं। पुत्र की वार्षिक परीक्षाएँ समाप्त होते ही हमने अरुणाचल प्रदेश स्थित एक सुंदर पहाड़ी स्थान तावांग जाने का कार्यक्रम बना लिया था।इस समय शाम के साढ़े छह बजे हैं, अभी रात्रि के भोजन में समय है, इसलिए अपनी रुचि के अनुसार मैंने अब तक की यात्रा का विवरण संजोने के लिए कलम उठा ली है।कल दोपहर बारह बजे हम असम की  तिनसुकिया ज़िले में स्थित तेल नगरी दुलियाजान से एक मित्र परिवार के साथ रवाना हुए थे। शाम को शिकोनी के गेस्ट हाउस में रुके। वहाँ भोजन की सुविधा नहीं थी, इसलिए निकट स्थित एक बाज़ार में गये, जो रोशनियों से जगमगा रहा था, तेज स्वर में फ़िल्मी गाने बज रहे थे, आने-जाने वाली बसों के यात्रियों को आकृष्ट करने के लिए यह  आयोजन किया जाता है। वहाँ से आर्ट ऑफ़ लिविंग की सदस्या एक वृद्ध महिला विमलाजी को फ़ोन किया। 


अगले दिन सुबह साढ़े आठ बजे हम  तेज़पुर में विमलाजी के घर पहुँच गये। वे बहुत प्यार से मिलीं, अपना शानदार घर दिखाया, नमकीन फ़ैक्ट्री में ले गयीं। अच्छा सा नाश्ता कराया। दोपहर बाद हम बोमडिला पहुँच गये थे।यहाँ तक का रास्ता बहुत अच्छा था, चढ़ाई शुरू हो गई थी और जगह-जगह झरनों के सुंदर दृश्य निहारने के लिए विश्राम लेना पड़ता था। तीपी नदी हमारे साथ-साथ बह रही थी, पहाड़ी नदी में गति होती है, शोर होता है और वह बलखाती हुई सफ़ेद जल को पत्थरों से टकराती दौड़ती हुई सी लगती है। उसका जल शीशे सा स्वच्छ था, और उसमें पेडों के प्रतिबिंब झाँक रहे थे। कभी वह अचानक दिखायी देना बंद हो जाती, शायद किसी गह्वर में समा जाती हो, कभी सड़क के समानांतर आ जाती थी।पहाड़ पेड़ों से घिरे थे, कहीं-कहीं वृक्ष काट लिए गये थे, पर प्रकृति का यह भव्य रूप देखकर लग रहा था मानो हम ईश्वर के निकट आ गये हों। ईश्वर तो हर पल हमारे साथ है, तभी अब तक की यात्रा निर्विघ्न पूरी हो गई है। यह होटल महँगा है, पर अच्छा है। होटल का मैनेजर नेपाली है, उसका व्यवहार देखकर लगता है, शांत है। मुस्कुराता तो बिलकुल नहीं, गंभीर है। तावांग जाने के लिए टाटा सूमो का प्रबंध उसी ने करवाया है। वापसी की यात्रा में हम टूरिस्ट लॉज में ठहरने वाले हैं, जो बहुत सस्ता है। शाम को घूमने निकले तो रविवार होने के कारण यहाँ का आर्ट और क्राफ्ट केंद्र बंद मिला, मोनेस्ट्री में भी कोई नहीं मिला, द्वार बंद था।छोटे से बाज़ार से गुड्डू(पुत्र) ने अपनी अध्यापिका के लिए भूटानी घंटी ख़रीदी। कल सुबह तावांग जाना है। पतिदेव सो रहे हैं। पुत्र अपने मित्र के साथ अपने कमरे में है। अब बच्चे बड़े हो गये हैं, उनको पहली बार अलग कमरे में रहने का मौक़ा अच्छा लग रहा होगा। मेरा मन शांत है, इस कमरे में इतनी शांति है कि मुझे अपने भीतर से आती हुई आवाज़ भी सुनायी दे रही है।


हमारी कल की यात्रा में कभी-कभी ऐसे क्षण आये जब हमारे सहयात्री घबरा गये, शायद हम भी एकाध क्षणों के लिए घबरा गये होंगे। पर यह डर जो मन में है, हमें जीने की प्रारण देता है, इसी को जिजीविषा कहते हैं। आज सुबह उठकर पहले कुछ दूर तक टहलने गये, फिर वापस आकर प्राणायाम का अभ्यास किया। मन जैसे ठहर गया। रोज़मर्रा के जीवन को छोड़कर हम यहाँ छुट्टियाँ बिताने आये हैं, सो निश्चिंत हैं। कहीं कोई ऊहापोह नहीं, यात्रा का प्रबंध अच्छी तरह से किया गया है।


टूरिस्ट लॉज तावांग


आज की हमारी यात्रा यादगार बन गई है। आलू के पराँठों का नाश्ता करके सुबह नौ बजे हम होटल से निकले। बोमडिला में कुछ विशेष देखने को नहीं मिला था, सो तावांग कैसा होगा, रास्ता कैसा होगा, मन में कई विचार चल रहे थे। रास्ता कई जगह काफ़ी खराब  था, भूस्खलन की वजह से सड़क पर जगह-जगह मरम्मत का काम चल रहा था। हमें देखकर अचरज होता था कि लड़कियाँ और औरतें सड़क बनाने के काम में लगी थीं। वे पत्थर कूट रही थीं। उनके लाल-लाल गाल और पीठ पर छोटा बच्चा, यह चित्र आँखों में बस गया है। लोग यहाँ मेहनती हैं और साथ ही स्वभाव से बहुत शांत। दुकानदार भी बहुत नम्र हैं। चाय वाला, होटल वाला और ड्राइवर सभी धीरे-धीरे बात करते हैं। ठंडी जगह पर रहने वाले ठंडे स्वभाव के हो ही जाते हैं शायद। यह टूरिस्ट लॉज भी अच्छा है, पूरे फ़र्श पर हरा कार्पेट बिछा है। कमरे में दो बेड नीचे हैं, एक ऊपर है, सीढ़ी से ऊपर जाना होता है।। यहाँ नेपाली लोग बहुत हैं, ड्राइवर भी नेपाली है। 


मार्ग में हमें लाल, पीले, सफ़ेद व गुलाबी बहुत सुंदर फूल दिखे जो प्रकृति ने स्वयं ही उगाये थे। वे ऑर्किड्स भी हो सकते हैं। चीड़ के पेड़, जिन पर काले व हरे कोन लगे थे, बहुत सुंदर लग रहे थे। पहाड़ों पर हरे रंग के अनगिनत शेड्स दिखायी पड़ रहे थे।धूप में रंग बदलते हुए लाल, पीले व नीले पहाड़ भी देखे।जैसे  प्रकृति अपनी पूरी सुंदरता बिखेर रही थी। पेड़ों के इतने विभिन्न आकार-प्रकार दिखे, जिन्हें सराहते ही मन ईश्वर को याद करने लगता है। पेड़ों की पत्तियाँ नुकीली थीं और वे नीचे की ओर झुकी थीं, जिससे बर्फ उनपर जमा ही न हो सके। याक, कुत्तों और घोड़ों के शरीर पर घने बाल थे। तेरह हज़ार फ़ीट से कुछ ऊँचा ‘सेला पास’ भी हमने देखा। थोड़ा पहले से ही जगह-जगह बर्फ के ढेर दिखने लगे थे, ‘पास’ के निकट तो बहुत बर्फ थी; और हमारे देखते ही देखते हिमपात होने लगा। छोटे-छोटे रूई के फाहों सी गिरती बर्फ कपड़ों व बालों को छू  रही थी। ठंड काफ़ी रही होगी, पर इतने सुंदर दृश्य को देखकर हम सभी बेहद उत्साहित थे। वहाँ दो झीलें भी थीं, जिनमें बर्फ से ढकी चट्टान का प्रतिबिंब झलक रहा था। वह दृश्य देखने लायक़ था। पहली बार हमने एक साथ इतनी बर्फ देखी थी। परसों वापसी में हम एक बार पुन: उसी मार्ग से गुजरेंगे। इस रास्ते में भी हमने छोटे-बड़े कई झरने देखे, नदी भी काफ़ी देर तक सड़क के साथ-साथ ही जा रही थी। एक जगह रुक कर हमने नदी का बर्फ सा ठंडा पानी छुआ ! साफ़, शीतल जल जो पहाड़ों की बर्फ से पिघल कर नीचे आ रहा था ! दो-तीन झरने तो जमे हुए भी मिले। नदी पहाड़, सीढ़ीनुमा खेत, लाल-लाल गाल वाले बच्चे व औरतें यह सारे दृश्य हमने कैमरे में क़ैद किए है और दिल के कैमरे में भी। 



मार्ग में पड़ने वाले एक स्थान ‘जसवंतसिंह गढ़’ में हम रुके, वहाँ सेना की तरफ़ से गर्मागर्म चाय का एक प्याला सबको दिया गया। वहाँ 1962 की भारत-चीन युद्ध की याद में एक स्मारक भी बना था। जो गढ़वाल राइफ़ल की 4 बटालियन के राइफ़ल मैन जसवंत सिंह राणा की वीरतापूर्ण लड़ाई और शहीद होने की घटना को याद दिलाता है। बोमडिला तक के रास्ते में भी सेना का एक बहुत बड़ा बेस दिखा था। यहाँ भी जगह-जगह सेना के कार्यालय दिखे। “फिकर नॉट’, ‘तगड़ा रहो’ आदि नाम भी कई जगह पढ़े, जो संभवत: बटालियन के नाम दिये संदेश हैं।सीमा सड़क संगठन का  एक स्मारक सेला पास में भी था। इंजीनियर व मज़दूर जो इतनी ऊँचाई पर इतने कठिन रास्तों को बनाते होंगे, वे सचमुच बहुत बहादुर होंगे। न जाने कितनों ने अपनी जान भी इस कठिन काम को करते समय गँवायी होगी। पहाड़ों को काट कर दुर्गम मौसम में रास्ते बनाना बेहद दुष्कर कार्य है। मई के महीने में जहां बर्फ गिरती है, वहाँ दिसंबर-जनवरी में तो बर्फ की चादर ढक जाती होगी। यहाँ के लोगों का जीवन कितना कठिन है। प्रकृति ने जहां एक और इतनी सुंदरता बिखेरी है, वही दूसरी ओर मानव के अस्तित्त्व  के लिए कठिनाइयों से भरा जीवन भी दिया है। मानव के भीतर की वह परमशक्ति जो चुनौतियों को पाकर भी घटती नहीं है, उसे साहस से भर देती है। तावांग आकर हमें इतना तो सीखना ही चाहिए कि मेहनत से कभी न घबरायें, शारीरिक श्रम को महत्व दें और चुनौतियों का सामना ख़ुशी-ख़ुशी करें। i   


इतनी ऊँचाई पर स्थित टूरिस्ट लॉज के प्रांगण में बैठकर धूप सेंकने का अवसर रोज़-रोज़ नहीं मिलता। पहाड़ों की धूप बहुत चमकदार और तेज होती है। यहाँ की स्वच्छ जलवायु स्वास्थ्यप्रद तो है ही। आज सुबह पाँच बजे से पहले ही हम उठ गये थे, खिड़की से देखा तो बर्फ से ढकी चोटी पर धूप चमक रही थी। आज हमें पुन: पहाड़ों, नदियों, झरनों और हिमशिखरों को देखने जाना है। “सौ दवा, एक हवा” का सूत्र सिखाता है कि बंद कमरों से निकल कर प्रकृति की गोद में बैठें, सूरज और धरती की वंदना करें, वही हमें जीवन देते हैं। 



आज सुबह साढ़े आठ बजे हम ‘पंकांग टेंग त्सो’ झील​​​​​​ देखने के लिए रवाना हुए। रास्ता कहीं-कहीं ख़राब था, पर हमारा ड्राइवर रामू दक्ष है, वह आराम से 13000  फीट की ऊँचाई तक ले गया। तावांग लगभग दस हज़ार फीट पर है। टूरिस्ट लॉज से जो हिमशिखर दिखायी दे रहे थे, वे नज़दीक आते जा रहे थे। मौसम स्वच्छ था, धूप में चोटियाँ चाँदी की तरह चमक रही थीं। रास्ते में हमें याक दिखे जो ढलानों पर कांटेदार झाड़ियों, विभिन्न प्रकार के पौधों, वृक्षों व घास के खेतों में घूम रहे थे। किसी-किसी के कान में पहचान के लिए उनके मालिकों ने कुछ पहना दिया था। पीले, लाल, गुलाबी और बैंगनी फूलों के पौधे भी रास्ते में यदा-कदा दिख जाते थे। फिर बर्फ दिखनी शुरु हुई, जो सड़क के दोनों ओर की पहाड़ियों पर दूर-दूर छितरी थी। जैसे रूई के फाहे बिछे हों। जैसे-जैसे गाड़ी आगे बढ़ती गई, बर्फ की चादर घनी और विस्तृत होती गई।काली हरी पहाड़ी की चोटियों पर श्वेत बर्फ हम सभी के मनों में उल्लास भर रही थी। अद्भुत दृश्य था, जैसे हम स्वर्ग में आ गये हों। स्वर्ग भी क्या इससे सुंदर होता होगा ! हमारी सहयात्री महिला ने कहा,  ईश्वर भी अपनी बनायी इस रचना को देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाता होगा। वह भी हर दिन एक बार तो इसे देखने आता होगा। गुड्डू और उसके मित्र काकू को विश्वास नहीं हो रहा था कि यह स्वप्न है या वास्तविकता। मुझे तो लगा हम सभी किसी दूसरे लोक में पहुँच गये हैं। प्रकृति का इतना मोहक रूप हमने पहले कभी नहीं देखा था। बर्फ कभी हमें तेंदुए के तन पर पड़े चक्कतों सी प्रतीत होती, कभी रूई के फाहों सी ! इतनी स्वच्छ व श्वेत थी कि सूर्य की किरणें उसे चाँदी की तरह चमका रही थीं। हिमालय के हिमशिखरों पर कितनी कविताएँ पढ़ीं थीं, पर उनका सौंदर्य आज जाना था। हम बर्फ पर चलने से स्वयं को रोक नहीं पाये, फिर तो अगले आधे घंटे तक बर्फ पर फिसलना, बर्फ के गोले बनाकर फेंकना व फ़ोटोग्राफ़ी करना, यही जारी रहा। चारों तरफ़ पहाड़, मध्य में घाटी, जिसमें फूलों के पेड़ जो अब बर्फ़ में छिप गये थे और नीचे एक झील थी। सामने के पर्वत शिखर भी चमक रहे थे। यह दृश्य कैमरे में क़ैद करने का प्रयास तो हमने किया पर उस सुंदरता को क़ैद करना बहुत मुश्किल है। इतने निकट से बर्फ की अद्भुत छटा को देखने का यह हमारा पहला अवसर था। दार्जलिंग तथा गंगोत्री में बर्फ़ दूर से ही देखी थी, उसे छूने का अवसर नहीं मिला था।हमने फिर वापस तो आना ही था, सड़क पर लौटते-लौटते चढ़ाई के कारण श्वास फूल गई थी, सभी के जूते भीग चुके थे। बच्चों के तो कपड़े भी भीग चुके थे। हम निकट स्थित सेना के कैंप में गये। वहाँ तीन-चार जवान थे। उन्होंने हमें चाय पिलायी तथा सूजी का हलवा प्रसाद रूप में खिलाया। गरम पानी भी दिया ताकि हम अपने पैर धो सकें। वापस आने से पहले हमने उनका नाम पूछा, बच्चों ने उनके साथ एक तस्वीर खिंचवाई। सभी बेहद थक चुके थे और भीग भी चुके थे सो वापस आ गये। दोपहर का भोजन यहाँ मिलने वाला नहीं था, सो हम बाज़ार में खाना खाने गये, बड़ी मुश्किल से एक जगह चावल तथा मिर्च वाली दाल व सब्ज़ी मिली, जो हम मुश्किल से ही खा पाये, हमने चाकलेट ख़रीदी और सब्ज़ी बाज़ार से खीरे व केले ख़रीद कर लाये।  


थोड़ी देर विश्राम करने के बाद हम तावांग गुम्फा  देखने गये। यह चार सौ वर्ष पुराना तिब्बतियन मठ है, जो सुबह से ही अपनी पीली छतों वाली इमारतों के कारण हमें दूर से ही आकर्षित कर रहा था। वहाँ भगवान बुद्ध की एक विशाल मूर्ति थी, दीवारों व छतों पर रंगीन आकर्षक आकृतियाँ बनी थीं। पूरे तावांग में ही तिब्बती संस्कृति का स्पष्ट प्रभाव दिखायी पड़ता है। हम तावांग वॉर मेमोरियल देखने भी गये, यह भारत-चीन युद्ध की स्मृति में बनी चालीस फ़ीट ऊँची इमारत है, वह भी तिब्बती स्तूप की आकृति में बनी है।यहाँ युद्ध में हत हुए शहीदों के नाम पढ़ते-पढ़ते मन भर आता है। भगवान बुद्ध की प्रतिमा वहाँ भी थी और द्वार भी तिब्बती वास्तुकला को दर्शाता है। पूरा तावांग ही दलाई लामा के स्वागत में लगाये गये झंडों से सजाया हुआ है। हम आर्ट और क्राफ्ट केंद्र भी गये, जहां कई कलात्मक वस्तुएँ थीं, हमने कुछ ख़रीदारी की। फिर वापस लौट आये। टूरिस्ट लॉज में हमारे वस्त्र बाहर धूप में सूख रहे थे, खिली हुई धूप में बाहर के मैदान से पुन: एक नज़र उन चोटियों पर डाली जिन्हें हम निकट से देख कर आये थे। गुम्फा के बाहर से नीचे घाटी में झांककर देखते समय मन में कई विचार व कल्पनाएँ उमड़ने लगी थीं। पेड़ इतने घने थे और घाटी इतनी गहरी, पहाड़ों की ढलान पर एक-दो अकेले मकान , जो दूर से दिखायी दे रहे थे, आकर्षित कर रहे थे। इतने सुंदर जंगल के दृश्य भी पहली बार इतने निकट से देखे थे, वह हरियाली जैसे पूरे निखार पर थी। पता नहीं पतझड़ में यह जंगल कैसे दिखते होंगे। हमारे जीवन में ऐसे अछूते पल कम ही आते हैं जब मन बिलकुल ठहर जाता है, हम सहज भाव से सभी कुछ स्वीकारते हैं और ख़ुशी को पूरी शिद्दत से महसूस करते हैं, ह्रदय जब पूर्ण रूप से एक ही बात को अनुभव करता है, पूरे सौ प्रतिशत ! हमारा तन, मन व आत्मा तब एक हो जाते हैं। ऐसे क्षण इस यात्रा में सभी ने महसूस किए हैं। हमारे अंतर्मन तृप्त हुए हैं, प्रकृति को हमने अपने मन की गहराई से सराहा है।हमने बर्फ की शीतलता को भीतर तक अनुभव किया, उसकी निर्मलता और श्वेतता हमारे मन को छू गई है। प्रकृति के प्रति और उसके सौंदर्य के प्रति आकर्षण ने हमें आपस में और निकट कर दिया है। हम सभी एक ही समय एक ही भाव को महसूस कर पाये, इसलिए यह यात्रा यादगार रहेगी। न जाने कितनी बार कितने जन्मों में हमने इस प्रकृति को निहारा है। यह भी शाश्वत है और हम भी ! प्रकृति के पीछे जो तत्व है वह अदबल है। हम कुछ ही देर में तावांग से जाने वाले हैं। ईश्वर का अनुग्रह हम सब पर है, कृपा ही तो है, जो हमारी यात्रा निर्विघ्न पूरी हो पायी है। 


टूरिस्ट लॉज बोमडिला 


शाम का वक्त होते ही यहाँ ठंड बढ़ जाती है। मैं कंबल ओढ़कर बैठी हूँ, साथ वाले दो कमरों में शेष लोग हैं। पतिदेव बरामदे में टहल रहे हैं। कुछ देर पूर्व हम यहाँ का बाज़ार देखकर आये हैं। शाम के नाश्ते में खाने के लिए, मैगी लाए, जो यहीं बनवा कर सबने खायी। साथ में अपनी पसंद के अनुसार काफ़ी या लाल चाय। आज सुबह आठ बजे हम तावांग से वापसी के लिए रवाना हुए। आज का मुख्य आकर्षण था, तावांग का मुख्य ‘नूरा नेहांग जल प्रपात’, जहां बिजली भी बनायी जाती है। ऊँची-नीची बलखाती सड़कों पर हमारा ड्राइवर दक्षता से गाड़ी चला रहा था, चारों ओर हिमाच्छादित पर्वतों की चाँदी सी चमकती चोटियाँ दिखायी दे रही थीं।दूर से ही वह जल प्रपात दिखायी दे रहा था, जहां हमें जाना था । घुमावदार सड़क से नीचे उतारते हुए ड्राइवर ने हाइड्रो पावर प्लांट के सामने ले जाकर गाड़ी रोक दी। वहाँ से दायीं और नज़र डाली तो जो दृश्य हमने देखा, वह अविस्मरणीय था। एक ऊँचे पहाड़ से दूध सा फेनिल विशाल जलप्रपात गिर रहा था, उसका शोर भी दूर से सुनायी दे रहा था। फुहारों की चादर सी तन गई थी। रास्ते में आने वाली चट्टानों पर ज़ोर से गिरता, ध्वनि करता झरना अपने वैभव का भरपूर प्रदर्शन कर रहा था। हम सीढ़ियों से उतरकर नीचे गये, झरना जहां ज़मीन को छू रहा था। उस के सामने ही पद्मा नदी भी अपने तेज बहाव के साथ नाचती हुई जा रही थी, झरने का जल उसी में मिल रहा था। फुहारों का वेग इतना तेज था कि वर्षा और तूफ़ान का सा आलम बन गया था। हम सभी के चेहरे भीग गये। शीतल फुहार कोहरे की मानिंद थी। कभी सूर्य की किरणों से इंद्रधनुष बनते-बिगड़ते नज़र आते तो कभी फुहारों से स्वयं को स्थिर रखना कठिन हो जाता। तब हम दूर जाकर नदी में पड़े बड़े-बड़े शिलाखंडों पर बैठ गये और दूर से जलप्रपात को निहारने लगे, वापसी का समय हो रहा था, सो हम लौट आये और पुन: बोमडिला की ओर चल पड़े। शेष यात्रा में हमें पूरे रास्ते पद्मा नदी व यदा-कदा झरनों के दृश्य मिलते रहे। सेना के कई पड़ाव भी जगह-जगह दिखे। शाम को चार बजे के लगभग हम इस टूरिस्ट लॉज में आ गये। कल सुबह हमें वापस असम जाना है।     




शुक्रवार, अक्तूबर 4

नारी भारत की


नवरात्रि के पावन अवसर पर नारी शक्ति को समर्पित


नारी भारत की

आँखों में निज ऊर्जा की पहचान लिए 

आगे बढ़ते जाने का अरमान लिए, 

अधरों पर नवल विजय की मुस्कान लिए 

नारी भारत की आशा की ख़ान लिए !


रोक सके ना कोई बाधा अब इसको 

वह सबला है जग कहता अबला जिसको, 

नहीं चाहिए अब गहनों का कारावास 

उसे चाहिए खुली धरा खुला आकाश !


न सुंदर वस्त्र न ही लुभाते राजमहल 

उतर पड़ी है करने हर कठिनाई हल, 

वह ख़ुद की ताक़त को पहचान चुकी है 

इस दुनिया की लघुता को जान चुकी है !


जो अब तक बस नीर बहाती है आयी 

बेवजह अपनी अस्मिता गँवाती आयी, 

जिसने सपनों को सदा बिलखते देखा 

वह अब उनको साकार बनाने आयी !


नहीं रुकेंगे इन कदमों को बढ़ने दो 

जग महकेगा, हाथों से  संवरने दो, 

उसे मान दो, उसे चाह सिर्फ़ स्नेह की 

हक़ है उसका समानता का अधिकार दो !





मंगलवार, अक्तूबर 1

मिट जाएँगे संशय उर से

मिट जाएँगे संशय उर से 


झाँकें कान्हा के नयनों में

प्रेम समंदर एक झलकता, 

डूब गई थी राधा जिसमें 

थाह न कोई जिसकी पाता !


अनगिन नाम दिये हैं जग ने

बाला-लाला कहा कन्हाई, 

प्रीत किंतु इतनी असीम है

जाती न शब्दों में बताई !


सुख-दुख दोनों रहे किनारे 

मध्य में आनंद की धारा, 

राधा बनकर जो बहती है 

यमुना तट पर जिसे पुकारा !


आनंद से उपजी है सृष्टि 

कृष्ण वही आनंद का स्रोत, 

हाथ थाम लें, उसे थमा दें  

 मिटेगा दोनों में हर क्षोभ !


कान्हा दिल की गहराई में 

बसा हुआ मीठी धुन टेरे 

कान लगा कर सुनना इसको 

खिल जाएँगे तन-मन तेरे !



शुक्रवार, सितंबर 27

सत्य-असत्य

सत्य-असत्य 


असत्य की हल्की सी रेखा भी 

सत्य के हिमालय को छुपा देती है 

जैसे आँख में पड़ा धूल का एक कण 

विस्तीर्ण गगन को 

चाह की एक हल्की सी चिंगारी भी 

मन के चैन को जला देती है 

जैसे विष की एक बूँद 

सारे कूप को बना देती है विषैला 

उसके पास जाना हो 

तो निर्मल रखना होगा मन को 

दानवों का अधिकार हो जाता है 

यदि कपट हो ह्रदय में 

निःस्वार्थ, निष्पाप और निर्द्वंद्व 

ही मिल सकता है 

उस निसंग, निरंजन से 

और तब शांति की अजस्र धाराएँ 

चारों ओर से 

दौड़ी चली आती हैं 

उग आते हैं पुष्प उद्यान, मन प्रांगण में 

और गूंजने लगती है सरगम श्वासों में 

सत्य की ही विजय होती है 

असत्य तो पहले से ही पराजित है 

चिर पराजित ! 


बुधवार, सितंबर 25

मिलन धरा का आज गगन से

मिलन धरा का आज गगन से



काले कजरारे मेघों का 

गर्जन-तर्जन सुन मन डोले,  

छम-छम बरसा नीर गगन से 

मलय पवन के सरस झकोले !


चहुँ दिशा से जलद घिर आये 

कितने शुभ संदेश छिपाए, 

आँखों में उतरे धीरे से 

कह डाला सब फिर बह जायें !


उड़ते पत्ते, पवन सुवासित 

धरती को छू-छू के आये, 

माटी की सुगंध लिए साथ 

हर पादप शाखा सहलायें !


ऊँचे, लंबे तने वृक्ष भी 

झूमें, काँपें, बिखरे पत्ते, 

छुवन नीर  की पाकर प्रमुदित 

मिलन धरा का आज गगन से !


ऊपरे नीचे जल ही जल है  

एक हुए धरती आकाश, 

खोयीं सभी दिशाएँ जैसे 

कुहरे में डूबा है प्रकाश !




सोमवार, सितंबर 23

शृंगार

शृंगार 


सज गया स्मित हास अधरों पर 

नयनों में स्वप्नों का काजल, 

दुल्हन का श्रृंगार हो गया

मुखड़े पर लज्जा का आँचल  !


सहज मैत्री, विश्वास, आस्था 

आभूषण शोभित करते तन, 

करुणा, ममता और सरलता 

से ढँका-ढँका मन का हर कण !


ले चल प्रिय गृह आतुर इसको 

मधु शीत पवन की डोली में, 

नभ देखता नक्षत्रों संग 

 सूर्य-चन्द्र साक्षी बन आये !