मन
जब भी इबादत में बैठता कोई
मन पड़ोसी की तरह ताक-झाँक करे
जाने क्या डर, उसे कौन सी चाहत
न रहे निज हदों में खुद को चाक करे
'आज' में रहने का कायल जो बना
बीती बातें दोहरा नापाक करे
कहाँ दूरी दरम्यां रब बंदे के
मन ख्यालों की दीवार आबाद करे
कोई पहुँचा वहाँ, जहाँ सन्नाटा
मन की आदत डराए,हैरान करे
बच्चे कभी माँ की शक्ल में आता
दे दुहाई दुनिया की बस बात करे
जब भी निकला राह में उजालों की
सुना हकीकत अँधेरों की खाक करे
जिस इबादत का खिला गुल वर्षों में
यूँही आकर उसमें सदा फांक करे