मंगलवार, नवंबर 27

स्वर्ण रश्मियों सा छू लेता




स्वर्ण रश्मियों सा छू लेता



माँ शिशु को आँचल में छुपाती
आपद मुक्त बनाती राहें,
या समर्थ हथेलियाँ पिता की
थामें उसकी नन्हीं बाहें !

वैसे ही सिमटाये अपने
आश्रय में कोई अनजाना,
उस अपने को, जिसने उसकी
चाहत को ही निज सुख माना ! 

अपनाते ही उसको पल में 
बंध जाती है अविरत डोर,
वंचित रहे अपार नेह से
 जो मुख न मोड़े उसकी ओर !

जो बेशर्त बरसता निशदिन 
निर्मल जल धार की मानिंद,
स्वर्ण रश्मियों सा छू लेता
अमल पंखुरियों को सानंद !

कर हजार फैले चहूँ ओर
थामे हैं हर दिशा-दिशा से,
दृष्टिगोचर कहीं ना होता
पर जीवन का अर्थ उसी से !

गुरुवार, नवंबर 15

बचपन लौटा था उस पल में



बचपन लौटा था उस पल में



बचपन को ढूँढा यादों में
बाल दिवस पर नगमे गाये,
मन के गलियारों में कितने
साथी-संगी खड़े दिखाए !

रोते हुए किसी बच्चे के
पोँछे आँसू और हँसाया,
नन्ही सी ऊँगली इक थामी
दूर गगन में चाँद दिखाया !

बचपन लौटा था उस पल में
भीतर कोई खेल रहा था,
बाहर मुस्काती थीं आँखें
जीवन लास्य उड़ेल रहा था !

फुटपाथों पर बीते बचपन
इससे बड़ी न पीड़ा होगी,
खिल सकती थी जो बगिया में
शैशव में ही कली तोड़ दी !

होनहार बिरवान सभी हैं
जरा उन्हें सिखलाना होगा,
बचपन खो जाये न अधखिला
मार्ग सही दिखलाना होगा !

तन उर्जित है जोश भरा मन
बन कुम्हार बस गढ़ना भर है,
शिशु के भीतर छुपा युवा है
दो चार कदम बढ़ना भर है !